दाल
की खाली होती कटोरी
भारत
डोगरा
भारत में सदियों से
दालें जनसाधारण के लिए प्रोटीन का सबसे सामान्य व महत्त्वपूर्ण स्रोत रही हैं। अत: यह गहरी चिंता का
विषय है कि दाल की प्रति व्यक्ति उपलब्धता में बहुत गिरावट आई है। इस
स्थिति को तालिका से समझा जा सकता है।

इन आंकड़ों से
स्पष्ट होता है कि वर्ष 1966
के
बाद जो हरित क्रांति आई उसमें दलहन की उपेक्षा हुई व विशेषकर मिश्रित फसल में दलहन
को उगाने की उपेक्षा भी हुई। पंजाब में तो इसके बाद के 16 वर्षों में दलहन का
क्षेत्रफल कुल कृषि क्षेत्रफल में 13
प्रतिशत
से घटकर 3 प्रतिशत रह गया।
भारत
में प्रति व्यक्ति दाल उपलब्धता
|
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वर्ष
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मात्रा
(ग्राम में)
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1951
|
60.7
|
1961
|
69.0
|
1971
|
51.2
|
1981
|
37.5
|
1991
|
41.6
|
2001
|
30.0
|
2003
|
29.1
|
2007
|
35.5
|
2011
|
43.0
|
2016
|
43.6
|
स्रोत: आर्थिक सर्वेक्षण
2017-18
|
इसके बाद आयात से
दलहन उपलब्धता बढ़ाने के प्रयास हुए। आयात की गई बहुत सी दालों पर खतरनाक रसायनों, विशेषकर ग्लायफोसेट
का छिड़काव होता रहा है।
दलहन की फसलों को
अधिक उगाने से मिट्टी का प्राकृतिक उपजाऊपन बनाए रखने में मदद मिलती है ; क्योंकि इनकी जड़ें
वायुमंडल से स्वयं नाइट्रोजन ग्रहण कर धरती को दे सकती हैं।
अत: देश
में दलहन का उत्पादन बढ़ाने पर व इसकी मिश्रित खेती बढ़ाने पर विशेष ध्यान देना
चाहिए। हमारे देश की धरती अनेक तरह की दालों के लिए उपयुक्त है व हमारे किसानों के
पास दलहन के उत्पादन का समृद्ध परंपरागत ज्ञान है। उन्हें सरकार की ओर से अधिक
प्रोत्साहन मिलना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
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