प्रेमदीप बन जाना
-डॉ.कविता भट्ट
मन
में तम के हैं स्पंदन
घृणा-द्वेष के हैं सहवास
भीतर
तो जड़ता के बंधन
नित
अहंकार के मोहपाश
अहं
जलाना, मधुरता भरकर,
प्रेमदीप
बन जाना।
गहन
अँधेरे उस आँगन में
बाहर
ही दीपक हैं जलते
मद
के उस प्रकम्पन में
द्वेष-भाव भीतर हैं पलते
विषकन्या
की बाँहे तजकर,
मेरे
स्वप्न सजाना।
प्रत्येक
दीपावली में तुमने
दीपक
बहुत जलाये होंगे
काली
अमावस में तुमने
ज्योतिकलश
छलकाये होंगे
इस
बार मुझे आलिंगन में ले,
विरह-व्यथा हर जाना।
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Srinagar, Garhwal
Uttarakhand 246174
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