जीवन के रंग....
- डॉ. रत्ना वर्मा
भारतीय संस्कृति
में साल भर चलने वाले पर्व और त्योहार मनुष्य को एक दूसरे से जोड़े रखने का उत्सव
होते हैं। रंगों का पर्व होली भी मेल-मिलाप और भाईचारे का त्योहार है। इस दिन हम
सब आपसी गिले-शिकवे भुलाकर गुलाल का टीका लगाकर
एक रंगभरी नई शुरूआत करते हैं... पर यह सब पढ़ते हुए आपको ऐसा अहसास नहीं हो रहा
कि ये सब किताबी बाते हैं, जो हम बच्चों के निबंध में लिखवाते हैं। तो क्यों न
किताबी बातें न करके वास्तविक धरातल की बात करें, जो आपके हमारे जीवन से जुड़ी हुई
हो...
इस रंग-पर्व
पर मुझे अपना बचपन याद आ रहा है- जब होली में हम अपने गाँव जाया करते थे। नई उमंग
नया उत्साह और नया रंग। दीपावली में जिस तरह नए कपड़े पहनने और खूब सारे पटाखे फोड़ने
का उत्साह होता था, उसी तरह होली में नई पिचकारी और बड़ी- बड़ी हाँडियों में
गुनगुना पानी भरके रंग घोलने का अपना ही आनंद होता था।
तब फिल्मी
होली की तरह सफेद कपड़े पहनकर होली खेलने का रिवाज़ नहीं था, हाँ हमारे बाबूजी जरूर तब भी खादी का झक
सफेद धोती कुर्ता ही पहने होते थे; क्योंकि वे रंगीन कपड़े पहनते ही नहीं थे। बचपन
से उनकी यही एक छवि हमारी आँखों में बसी हुई है। होली के दिन जब गाँव वाले उनसे
मिलने आते, बड़ी
शालीनता से उनके माथे पर टीका लगाकर उनके पैर छूते थे। रंग डालने की हिम्मत वे
नहीं कर पाते थे; लेकिन जब वे फाग गाने वाली मंडली के बीच गाँव की गुड़ी (गाँव का
प्रमुख चौराहा ,जहाँ सभी प्रमुख समारोह होते थे) पँहुचते तो उनके कपड़ों पर भी रंग और गुलाल के
छींटे पड़ते थे, जो उनके सफेद कपड़ों पर बहुत उभर कर आते थे और उन्हें देखकर मन को
बहुत अच्छा लगता था। हम सब बच्चे तो कोई पुराना रंग उतरा कपड़ा ही पहन कर होली
खेलते थे।
सुबह से ही गाँव के प्रमुख चौराहे में पूरा
गाँव इकट्ठा होने लगता था। ढोल- नगाड़ों की धमक के बीच फाग गीतों की गूँज चारो ओर
गूँजने लगती थी। फाग गाने वाली मंडली के बीच न जात- पात का भेद होता न अमीर- गरीब
का, सब उस मंडली में शामिल होते। रंग- गुलाल से पुते चेहरे सारे भेद-भाव को मिटाकर
सबको एक रंग में रँग देते थे। फगुआरों की टोली हो-हल्ला करते परिचित-अपरिचित सबको
रँगते हुए मस्ती में डूबी होती और हम बच्चे अपनी- अपनी पिचकारी में रंग भरकर हर
आने- जाने वालों पर रंग डालकर खुशी से झूम उठते थे।
घर में होली मिलन के लिए आने वालों का रेला लगा
होता था। सब गुलाल का टीका लगा कर बड़ों से आशीर्वाद लेते, गले मिलते और मुँह मीठा करके ही जाते।
तरह-तरह के पकवानों की खुशबू भूख बढ़ा देती। रंग- गुलाल खेलते हम दिन भर गुजिया-
मठरी खाते थकते ही नहीं थे। शाम होने को आती पर हमारी पिचकारी के रंग खतम ही नहीं
होते। तब तक घर के भीतर से माँ की पुकार कई बार हो चुकी होती थी, कि अब रंग खेलना
बंद करो, रात में नहाओगे तो
ठंड लग जाएगी। मन मारकर हम रंग खेलना बंद करते। तब चूड़ी रँग से रँग घोला जाता था, जो चमड़ी पर ऐसा रँगता था कि उतरता ही
नहीं था। कई-कई दिन लग जाते थे रंग उतारने में।
ये तो हो गई बचपन की बातें। अब थोड़ी आज की
बातें भी हो जाए... आज क्या है जो याद करने लायक है, जिसे आप सबसे साझा किया जा
सके... रंग अब भी खेलते हैं, पकवान अब भी बनते हैं, पर न अब फगुआरों की टोली आती, न ढोल- मंजीरे बजते, न फाग गीत गाए जाते और न ही गाँव वाले
एक जगह इकट्ठा होते और न ही बड़ों से आशीर्वाद लेने आते। दो-चार बहुत करीबी टीका
लगाने आ गए तो बड़ी बात है, अन्यथा सब अपने अपने
घरों में कैद.... बड़े- बुजुर्ग कहते हैं ना कि गाँव की हवा खराब हो गई है। शायद
इसी सन्नाटे को हवा खराब होना कहते हैं।
सच कहा जाए तो जीवन के रंग फीके पडऩे लगे हैं।
हमारी संस्कृति में रचे बसे ये त्योहार हमारे जीवन में उत्साह, उमंग और विविध रंगों से जीवंत बनाए रखते
थे। अब तो गाँव की क्या होली और क्या दीवाली। तरह-तरह के नशे ने युवाओं को अपनी
गिरफ्त में ले लिया है। बगैर नशा किए उनका कोई त्योहार नहीं मनता। ऐसे माहौल में
गाँव जाना ही स्थगित होते चले जा रहा है।
शहरों में तो होली यानी छुट्टी का माहौल। लोग
चादर तान कर घर में सोते हैं और मानों उन्हें थकान उतारने का मौका मिल गया हो। हाँ
सुबह सवेरे रंग-गुलाल के कुछ छींटे अवश्य पड़ जाते हैं। सोसायटी परम्परा के चलते
अपनी-अपनी सोसायटी और परिवारों के बीच मिलन समारोह का आयोजन करके सब एक दूसरे पर रंग
लागा लेते हैं और मुँह मीठा कर लेते हैं। कुछ लोग मिलजुल कर पार्टी आयोजित करके
खुशियाँ मना लेते हैं। रही बात फाग गीतों और ढोल-नगाड़ों की तो ये सब अब रेडियो और
टीवी में ही सुन कर खुश हो लेते हैं। और जो टीवी प्रेमी हैं वे घर बैठे हर चैनल में
हर धारावाहिक में कलाकारों को नकली होली खेलते देखकर खुश हो लेते हैं।
इधर कुछ सालों से एक और नई संस्कृति पनपते दिख
रही है। पर्यटन की संस्कृति। कई बार होली के समय शनिवार -रविवार आ जाने से तीन-
चार दिन की छुट्टी एक साथ मिल जाती है तो बहुत से परिवार इसका फायदा उठाते हुए किसी
पयर्टन स्थल पर या जंगल की संस्कृति को करीब से देखने के लिए घूमने जाना पसंद करने
लगे हैं। ठीक भी है गाँव के नशे वाले माहौल से तो प्रकृति के बीच कहीं छुट्टी पर
चले जाना ही अच्छा है। ग़ालिब की तर्ज पर-
हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन
दिल को बहलाने
को ‘गालिब' ये ख्याल
अच्छा है।
ख्याल
कितना भी अच्छा हो पर हमारी संस्कृति ,हमारी तहज़ीब और हमारे त्योहारों के
वास्तविक स्वरूप का विलुप्त होते चले जाना हमारे लिए बिल्कुल भी अच्छा नहीं है। तो
क्यों नहीं इस माहौल को बदलने का प्रयास किया जाए। नोटबंदी की तरह शराबबंदी का
हल्ला भी अब शुरू हो ही चुका है, जिसका सबको समर्थन करना चाहिए। नशे को लोगों के
जीवन से समाप्त करके भाईचारे और प्यार का रंग भरने का समय आ गया है। आइए हम सब
मिलकर सोचें और जीवन में खुशियों के रँग भरने का प्रयास करें।
होली
की रंग भरी शुभकामनाओं के साथ-
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