ले जाने की यात्रा
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साधना मदान
मंदिर में ज़ोर से बजती घंटियाँ और प्रभु समक्ष
दंडवत प्रणाम ये सब जैसे भक्त को भावनाओं की नाव में बैठाकर एक दूसरे ही लोक में
ले जाने की यात्रा है।
मंदिर, भजन, करताल, ढोलक
और मूरत का सुमिरन ये सब भक्त और भगवान का अलौकिक मिलन है। हृदय का तार जब निरंतर
नाम स्मरण में जुड़ जाता है तो चेहरा रोशन हो जाता है। मंत्र का वरदान तो अटूट
विश्वास के सागर का मंगल स्नान जैसा होता है।
सोचती हूँ भक्ति बचपन में संतों का परिचय या
भावमयी कथा सुनने का नाम है। युवाकाल में भक्ति भगवान से सरूर का नाम है और बुढ़ापे
में भक्ति नियम,सहारे और सकून का बल है। भक्ति कीर्तन की शहनाई
है,भक्ति कर्ण रस का माधुर्य है,भक्ति मगन हो लगन की शक्ति है। केसरिया रंग और
माथे पर तिलक प्रभु संग रहने का संदेश है। भक्ति छप्पन व्यंजन का भोग है। भंडारे
में भजन गाते- गाते प्रभु प्रसाद की चाहना है।
साथियों! भक्ति का यह राग नया नहीं है। हवन, कथा प्रवचन, प्रभात
फ़ेरी और जलूस सब देखते देखते हम सब बड़े हुए हैं। पर फिर भी अंतर्मन क्यों निराशा, उदासी, अलबेलेपन
के कटघरे में उलझा हुआ है? क्यों मन और बुद्धि एक नूर से दूर है। चिंता का
चिंतन कठिन परिस्थितियों में हमें खोखला कर देता है। चाहिए-चाहिए की ललक भगवान को
चंद रूपयों का प्रलोभन देने की किस प्रवृत्ति का नाम है? कहते हैं भगवान भक्ति का भूखा है। चावल के दाने
लेकर महल देता है।गोपियों की ललक और तड़प देख सबके साथ रास रचाने की रीति को पूर्ण
करता है। पर मेरा यह बोझिल मन और तर्कमयी बुद्धि क्यों कोई परिवर्तन को महसूस नहीं
कर पाती। एक विचार उठती गिरती लहरों की तरह मुझसे पूछता है भक्ति का रंग और संग
तेरे चेहरे और चलन से दूर क्यों है।
अकसर लोग कहते हैं हमें भक्ति का दिखावा पसंद
नहीं। हमें ढोंगी गुरु नहीं भाते। कोई नियम नहीं,कोई
रीति नहीं, कोई पौराणिक प्रसंगों से सरोकार नहीं। ऐसी जीवन
शैली में भक्ति से पल्ला झाड़ते हैं। फिर प्रश्न उठता है कि चित्त की खाली स्लेट पर
कौन से रंग भरूँ। कौन सी ऐसी मिट्टी से चित्त के चौके को लीपूँ। ऐसे कौन से सुर
सजाऊँ कि मन की वीणा लयबद्ध हो जाए। ऐसी कौन सी समझ आवे कि वक्ता नहीं वक्तव्य समझ
में आ जाए। ऐसा कौन सा अभ्यास करुँ कि बुढ़ापे मे अपने किए कार्यो का गाना मैं न
गाऊँ तब कोई अपने चंद प्रियजन संगी सहयोगी बन मेरे अकेलेपन को भर दें।
ये सब प्रश्न मानस पटल पर हिलोरे ले ही रहे थे
कि कबीर साहब की यह साखी मुझसे मिलने आ गई…..
हम घर जाल्या आपणा लिया मुराड़ा हाथि ।
अब घर जाल्यां तास का जो चले हमारे साथि ।
ऐसे ही कबीर और नानक से जब जब मिलती हूँ तो मन
के इकतारे से भक्ति के सुर ज्ञान की हुंकार में बदल जाते हैं। भक्ति भावना का
प्रवाह है और ज्ञान इस प्रवाह को संतुलन और सामर्थ्य प्रदान करता है। कहा जाता है
भक्ति का फल ज्ञान और ज्ञान का फल भगवान है।
भावना, संवेदना, करुणा, सहानुभूति
और समर्पण की रसधारा तभी बहेगी जब आत्मशक्ति का दीपक साथ साथ जलेगा। आत्मत्राण के
लिए ज्योति-पुञ्ज से सान्त्वना,सहायता या तसल्ली
नहीं बल-पौरुष,आत्मिक शक्ति का ज्वाला कण लेने का अधिकार
रखेंगे। जिस दिन आस्था में सत्यता झलकेगी उस दिन प्रभु प्रेम में सिक्त मन कह उठेगा….मनुष्य मात्र बंधु है...यही बड़ा विवेक है। कई बार सोचती हूँ जब भक्ति में उमंग उत्साह के
पंख लग जाते हैं तो उड़ान मेरे कर्म को दिव्यलोक तक ले जाती है।तब एक झंकार सुनाई
देती है ,एक चेतना का आभास होता है कि अपने ऊपर आप ही
कृपा करनी है। शुभ भावना का चँवर जब डुलेगा तो मनसा, वाचा
कर्मणा का सौरभ आत्मशक्ति के शंख के साथ साथ प्रभु सुमिरन का भजन बन जाएगा।
एक प्रयास का अभ्यास कर रही हूँ कि अकेले भक्ति
का रास्ता नहीं पूरा चल पाऊँगी जब तक ज्ञान की पगडंडी पर स्नेह,सहयोग और सामर्थ्य की पौध नहीं लगाऊँगी। सिर्फ़
भक्ति से स्वपरिवर्तन संभव नहीं और सिर्फ़ ज्ञान से प्रेम पूर्ण नहीं होता। यदि सूर
का सखा भाव वात्सल्य का ओस कण है तो कबीर की साखी आत्म चिंतन का ज्वाला कण है।
भक्ति अश्रु है तो ज्ञान शक्ति है। भक्ति कर्ण रस है तो ज्ञान आत्मबल है।
भक्ति गुहार है तो
ज्ञान हुंकार है।भक्ति आस्था है तो ज्ञान अंतरैक्य-मिलन है। भक्ति स्वाद है और
ज्ञान प्रसाद है। भक्ति स्वमान है तो ज्ञान कल्याण है। भक्ति जय-जयकार है और ज्ञान
स्वयं का उद्घोष है। अतः इस कर्म क्षेत्र में स्वयं सितारा बन अपनी ऊर्जा से प्रेम
की रश्मि का प्रसार करें। अतः यह तो स्पष्ट हो ही रहा है कि सिर्फ़ भजन, कीर्तन या कथा श्रवण से संपूर्ण प्राप्ति संभव
नहीं जब तक अपने आप से मुख़ातिब न हों। अपने आप को टटोलना और बदलना यही ज्ञान की
गूँज है तब कोई तो अवश्य कहेगा……
तेरे चेहरे से उसकी रोशनी का पता चल गया…
प्रवक्ता
हिन्दी, कुलाची
हंसराज मॉडल स्कूल, अशोक
विहार दिल्ली -1100052
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