…और हर साल गाँव पहुँच जाता हूँ...
- संजीव तिवारी
छत्तीसगढ़ सहित भारत के सभी गाँवों में होली का
पहले जैसा माहौल अब नहीं रहा, विकास की बयार गाँवों तक पहुँच गई है किन्तु उसने समाज में
स्वाभाविक ग्रामीण भाईचारा को भी उड़ा कर गाँवों से दूर फेंक दिया। इसके बावजूद
रंगों के इस त्यौहार का अपना अलग मजा है और गाँव में तो इस पर्व का उल्लास देखने
लायक रहता है। गाँव मेरे रग-रग में बसा हैं इसलिए मेरे 13 वर्षीय पुत्र के
ना-नुकुर के बावजूद हम छत्तीसगढ़ के शिवनाथ नदी के तीर बसे अपने छोटे से गाँव में
चले गये होली मनाने ।
मुझे अपने बीते दिनों की होली याद आती है जब हम
सभी मिलजुल कर गाँव के चौपाल में होली के दिन संध्या नगाड़े व मांदर के थापों के
साथ फाग गाते हुए होली मनाते थे। समूचा गाँव उड़ते रंग-अबीर के साथ नाचता था। तब न
ही हमारे गाँव में बिजली के तारों नें प्रवेश किया था और न ही ध्वनिविस्तारक
यंत्रों का प्रयोग होता था। गाँव में प्रधान मंत्री पक्की सडक के स्थान पर ‘गाडा रावन’ व एकपंइया (पगडंडी) रास्ता ही गाँव पहुचने का एकमात्र
विकल्प होता था फिर भी इलाहाबाद, आसाम, जम्मू, कानपूर, लखनऊ और पता नहीं कहाँ कहाँ से कमाने खाने गए गाँव के मजदूर
होली के दिन गाँव में एकत्रित हो जाते थे। अद्भुत भाईचारे व प्रेम के साथ एक दूसरे
के साथ मिलते थे और ‘फाग’ गाते हुए रंग खेलते थे। नशा के नाम पर भंग के गिलास बँटते
थे और अनुशासित उमंग व मस्ती छाये लोगों का हूजूम मिलजुलकर होली खेलता था।
अब गाँव में वो बात नहीं रही, आधुनिकता नें परंपराओं को पछाड़ दिया, बडे बुजुर्ग अपने गिर चुके दाँतों और ढ़ीली पड़
गई लगाम का रोना रोते हुए इसे त्यौहार के रूप में स्थापित करने पर तुले हुए हैं पर
गाँवों में गली-गली खुले शराब के अवैध दुकान के प्रभाव से गाँव के लोगों को अब यह
लगने लगा है कि होली, शराब के बिना अधूरी है। शराब से मदमस्त गाँव में होली का
मतलब सिर्फ हुडदंग रह गया है। रंग में सराबोर गिरते-पड़ते, उल्टियाँ करते, लड़ते-झगड़ते लोगों का अमर्यादित नाट्य प्रदर्शन ।
इन सब का दंश झेलते होली के दिन संध्या तीन बजे
मेरे चौपाल पहुँचने से अंधेरे घिर आने तक तीन जोड़ी सार्वजनिक नगाड़े फूट चुके थे।
शराब में धुत्त लोग ‘फाग’ के नाम पर नगाड़ों पर, अपनी शक्ति आजमाइश कर रहे थे। शिकायतों व लड़ाईयों में समय
सरकता जा रहा था। सार्वजनिक चौपाल में ‘फाग’ सुनने को उद्धत मन को तब सुकून मिला जब मित्रों नें मौखिक
शक्ति प्रदर्शन किया और ईश्वर नें भी शराबियों को पस्त किया। और सभी रंजों को
भुलाकर धुर ग्रामीण 'फाग’ का मजा हमने लिया ।
उडि़ उडि़ चलथे खंधेला अब गोरि के
उडि़ उडि़ चलथे खंधेला रे लाल...
पवन चले अलबेला अब गोरि के
उडि़ उडि़ चलथे खंधेला रे लाल...
(बसंत में गोरी के बाल कंधों से उड़-उड़ रहे
हैं क्योंकि अलबेला पवन चल रहा है)
पिछले कुछ वर्षों से हर वर्ष बहुत इंतजार व
उदासी के बाद प्राप्त इन्हीं क्षणों से बार-बार साक्षातकार के बाद सोचता हूँ कि अब
अगले साल गाँव नहीं आउँगा। पर जड़ों को पकड़े रहना पता नहीं क्यूँ अच्छा लगता है
और हर साल गाँव पहुँच जाता हूँ।
Email- tiwari.sanjeeva@gmail.com
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