प्राकृतिक वैभव से परिपूर्ण छत्तीसगढ़ में श्रीराम
- प्रो. अश्विनी केशरवानी
01 नवंबर 2000 को छत्तीसगढ़ राज्य पृथक अस्तित्व में आया और
देश का 26वाँ
राज्य बना। 135194
वर्ग कि. मी. में फैला और लगभग दो करोड़ आबादी को 27 जिलों में समेटे छत्तीसगढ़ प्राकृतिक वैभव से
परिपूर्ण, वैविध्यपूर्ण
सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना तथा अपने गौरवपूर्ण अतीत को गर्भ में समाए हुआ है।
प्राचीन काल में यह दंडकारण्य, महाकान्तार, महाकोसल और दक्षिण कोसल कहलाता था। दक्षिण जाने
का मार्ग यहीं से गुजरता था इसलिए इसे दक्षिणपथ भी कहा गया और ऐसा विश्वास किया
जाता है कि अयोध्यापति दशरथ- नंदन श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ इसी पथ से
गुजरकर आर्य संस्कृति का बीज बोते हुए लंका गए। इस मार्ग में वे जहाँ-जहाँ रुके,
वे सब आज तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध स्थल हैं। उस काल के अवशेष यहाँ आज भी
दृष्टिगोचर होता हैं। सरगुजा का रामगढ़, श्रीराम की शबरी से भेंट, उनके बेर खाने का
प्रसंग का साक्षी शबरी-नारायण, खरदूषण का स्थल खरौद, कबंध राक्षस की
शरणस्थली कोरबा, बाल्मीकि
आश्रम जहाँ लव और कुश का जन्म हुआ-तुरतुरिया, राजा दशरथ के लिए पुत्रेष्ठि यज्ञ कराने वाले शृंगि
ऋषि के साथ अन्य सप्त ऋषियों का आश्रम सिहावा, मारीच खोल जहाँ मारीच के साथ मिलकर रावण ने
सीताहरण का षडयंत्र रचा, आज
ऋषभतीर्थ के नाम से जाना जाता है। धमतरी जिलान्तर्गत चंद्रखुरी जहाँ माता कौशल्या का
एकमात्र मंदिर है। सुदूर चित्रकोट (बस्तर) और चित्रकोट का वनांचल श्रीराम और
लक्ष्मण के दक्षिणपथ गमन के साक्षी हैं।
श्रीरामचंद्र
को भगवान विष्णु का पूर्ण अवतार माना गया है। अवतार के प्रयोजन और उसके महत्त्व
विशद विवेचन विभिन्न पुराणों में मिलता है लेकिन भगवद्गीता में इसका स्पष्ट उल्लेख
हुआ है। उसमें बताया गया है कि भगवान विष्णु के अवतारों में सृष्टि के विकास का
रहस्य छिपा माना गया है। भगवान विष्णु के अवतारों की तीन श्रेणियाँ क्रमश: पूर्ण
अवतार, आवेशावतार
और अंशावतार है। श्रीराम और श्रीकृष्ण को पूर्णावतार और भगवान परशुराम को
आवेशावतार माना गया है। विभिन्न ग्रंथों में उनके 24 और 10 अवतारों का उल्लेख है जिसमें मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, और कल्कि प्रमुख हैं।
भगवान विष्णु के अवतारों का सामूहिक या स्वतंत्र निरूपण कुषाण काल के पूर्व नहीं
मिलता। इस काल में वराह, कृष्ण
और बलराम की मूर्त्तियाँ बननी प्रारंभ हुई। गुप्तकाल में वैष्णव धर्मावलंबी शासकों
के संरक्षण में अवतारवाद की धारणा का विकास हुआ। गुप्तकाल के बाद 7 से 13 वीं शताब्दी के मध्य
लगभग सभी क्षेत्रों में दशावतार फलकों तथा अवतार स्वरूपों की स्वतंत्र मूर्त्तियाँ
बनीं। इसमें वराह, नृसिंह
और वामन स्वरूपों की सर्वाधिक मूर्त्तियाँ बनीं। ये मूर्त्तियाँ महाबलीपुरम्, एलोरा, बेलूर, सोमनाथपुर, ओसियाँ, भुवनेश्वर, खजुराहो तथा अन्य अनेक
स्थलों से प्राप्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त राम, बलराम और कृष्ण की मूर्त्तियाँ पर्याप्त मात्रा
में मिली हैं। भगवान विष्णु के एक अवतार के रूप में दशरथी राम की लोकमानस से जुड़े
होने के कारण ब्राह्मण देवों में विशेष प्रतिष्ठा रही है। यह सत्य है कि भारतीय
शिल्प में दशरथनंदन राम की मूर्त्तियाँ अन्य देवों की तुलना में गुप्तकाल में
लोकप्रिय हुई; किन्तु
विष्णु के एक अवतार के रूप में इनकी कल्पना नि:संदेह प्राचीन है और ब्राह्मण देवों
में इनकी विशेष प्रतिष्ठा रही है। यह सत्य है कि भारतीय शिल्प में दशरथनंदन राम की
मूर्त्तियाँ अन्य देवों की तुलना में बाद में लोकप्रिय हुई। प्रतिमा लक्षण ग्रंथों
में आभूषणों और किरीट(मुकुट) से सुशोभित द्विभुज श्रीराम के मनोहारी और युवराज के
रूप का निरूपण मिलता है। द्विभुज राम के हाथों में धनुष और बाण प्रदर्शित होते हैं, जैसा कि शिवरीनारायण
के श्रीराम जानकी मन्दिर और खरौद के शबरी मन्दिर में मिलता है। कहीं-कहीं श्रीराम
लक्ष्मण जानकी के साथ भरत और शत्रुघन की मूर्त्तियाँ श्रीराम पंचायत के रूप में
मिलती है। श्रीराम पंचायत की मूर्त्तियाँ रायपुर के दूधाधारी मठ में स्थित हैं।
श्रीराम
की प्रारंभिक मूर्त्तियाँ देवगढ़ के दशावतार मन्दिर में उत्कीर्ण हैं। इसमें
श्रीराम धनुष और बाण से युक्त हैं। देवगढ़ में श्रीराम कथा के कई दृश्यों का
शिल्पांकन हुआ है। एलोरा के कैलास मन्दिर और खजुराहो के मन्दिरों से श्रीराम की मूर्त्तियाँ
मिली हैं। खजुराहो के पार्श्वनाथमन्दिरकी भित्ति में सीताराम की एक नयनाभिराममूर्त्तिउत्कीर्ण
है और पास में हनुमान की मूर्त्ति भी है जिनके मस्तक पर श्रीराम का एक हाथ पालित
मुद्रा में अनुग्रह के भाव में है। यह मूर्त्ति भक्त और आराध्य के अंतर्संबंधों का
सुखद शिल्पांकन है। श्रीराम की स्वतंत्र मूर्त्तियाँ तुलनात्मक दृष्टि से दक्षिण
भारत में अधिक लोकप्रिय रही हैं। उत्तर भारत में राम की मूर्ति मुख्यत: विष्णु के
अवतार के रूप में उत्कीर्ण है। कर्नाटक में राम का एक प्राचीनतम मंदिर 867 ई. का हीरे मैगलूर
में है। श्रीराम के दोनों ओर लक्ष्मण और सीता स्थित हैं। चोलकालीन कांस्य
मूर्तियों में भी श्रीराम का मनोहारी अंकन उपलब्ध है। स्वतंत्र मूर्तियों के
अतिरिक्त रामकथा के विविध प्रसंगों के उदाहरण खजुराहो, भुवनेश्वर, एलोरा, बरम्बा, सोमनाथपुर, खरौद, जांजगीर और सेतगंगा
जैसे पुरास्थल में दृष्टिगोचर होता है। इन उदाहरणों में भारतीय जीवन मूल्यों को
उद्घाटित करने वाले प्रसंगों जैसे-सीता हरण, जटायु वध, बालि-सुग्रीव युद्ध की सर्वाधिक मूर्त्तियाँ
हैं। कदाचित् इसी कारण छत्तीसगढ़ गौरव में पंडित शुकलाल पांडेय ने भी गाया है-
रतनपुर
में बसे रामजी सारंगपाणी
हैहयवंशी
नराधिपों की थी राजधानी
प्रियतमपुर
है शंकर प्रियतम का अति प्रियतम
है
खरौद में बसे लक्ष्मणेश्वर सुर सत्तम
शिवरीनारायण
में प्रकटे शौरिराम युत हैं लसे
जो
इन सबका दर्शन करे वह सब दुख में नहीं फंसे।
श्री
शिवरीनारायण माहात्म्य में श्रीराम जन्म के संबंध में उल्लेख है जिसमें विष्णु
भगवान रामावतार के पूर्व देवताओं को कहते हैं-
मैं
निज अंशहि अवध में, रघुकुल
हो तनु चार
राम
लक्ष्मण भरत अरू शत्रूहन सुकुमार।
कौशल्या
के गर्भ में जन्महु निस्संदेह
महात्मा
दशरथ नृपति मो पर करत सनेह। 02/128-129
हे
देवों! मैं अयोध्यापति दशरथ के घर जन्म लेने जा रहा हूँ। आप लोग भी वहाँ जन्म लेकर
अपना जीवन सार्थक बनाएँ। मैं वहाँ माता कौशल्या के गर्भ से जन्म लूँगा; क्योंकि
राजा दशरथ का मेरे ऊपर बहुत स्नेह है। लोमश ऋषि आगे कहते हैं कि श्रीरामचंद्र जी
के अनेक अवतार हुए हैं। उनके विस्तार, जन्म-कर्म का लेखा लगाना बड़ा कठिन है। इसमें
तिल मात्र भी संदेह नहीं कि हरि माया बलवती है। उससे ज्ञानी, अज्ञानी और गुणवान् भी
मोहित हो जाते हैं-
परमात्मा
श्रीराम के भये विविध अवतार
जन्म
कर्म के भेद अति हैं विविध विस्तार
यामे
नहिं संदेह कछु हरि माया बलवान
अज्ञानी
गुनवान हूँ मोहि रही जग जान।। 04/5-6
परमात्मा
श्रीराम के जब जब भये अवतार
किये
राज्य नगरी अवध बल बंधि नीति विचार
तब
तब मैं तोहि कुंड में डारे शालिगराम
रत्नमयी
उज्ज्वल तहाँ है अनन्त छबिधाम।। 04/7-8
शृंगि
ऋषि के पुत्रेष्ठि यज्ञ कराने पर जो चारू प्राप्त हुआ था उसे महाराजा दशरथ अपनी
तीनों रानियों को खिला दिया। कालान्तर में माता कौशल्या के गर्भ से श्रीराम, माता कैकेयी के गर्भ
से भरत और माता सुमित्रा के गर्भ से लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म हुआ। चारों
राजकुमारों के जन्म से मानों अयोध्या नगरी को आनन्द से भर दिया। सभी अयोध्यावासी
आनंद से नाचने गाने लगे जैसे उनकी मुराद पूरी हो गई हो। देवलोक में भी सभी
देवता नाचने-गाने लगे और पुष्प-वर्षा करने लगे।
प्राकृतिक
वैभव से परिपूर्ण छत्तीसगढ़ का वैविध्यपूर्ण सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना और अपने
गौरवमयी अतीत को गर्भ में समाया हुआ है। दक्षिण जाने का मार्ग छत्तीसगढ़ से गुजरने
के कारण इसे दक्षिणापथ भी कहा जाता है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि अयोध्यापति
दशरथ नंदन श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ इसी पथ से होकर आर्य संस्कृति का बीज
बोते हुए लंका गए थे। इस मार्ग में वे जहाँ-जहाँ रुके वे सब आज तीर्थ के रूप में
प्रसिद्ध स्थल हैं।
सहस्राब्दियों
पूर्व घटित त्रेतायुग का प्रमाण मिलना दुर्लभ ही नहीं असंभव भी है। नदियों ने अपने
मार्ग बदले, पर्वतों
ने अपने स्वरूप और अरण्यों ने दिशाएँ बदलीं, नहीं बदली तो केवल मनुष्यों की आस्था और उनका
विश्वास। रामायण के विविध प्रसंग, उस काल की घटनाएँ और पात्रों के उपाख्यान तब से
लेकर आज तक जनमानस में वाचिक परंपरा के रूप में आज भी विद्यमान हैं। मनुष्य अपनी
अनुभूतियों के साथ जनश्रुतियों को जोड़कर इतिहास की रचना करता है। लोककथा, लोकगीत, लोककला, कहावतें और मुहावरें
एक दिन लोकवाणी बनकर इतिहास बन जाती है। इनमें जन मान्यताओं और आस्थाओं को स्थापित
करने के लिए मन्दिरों, गुफाओं
आदि का निर्माण करके धन्य होता है। ऐसा ही प्रयास छत्तीसगढ़ में सदियों से होता आ
रहा है। आज भी उस काल की अनेक स्मृतियाँ यहाँ देखने- सुनने को मिलती है। बस्तर के
लोकगीत, लोकनाट्य, शिल्पकला आदि में
श्रीराम की झलक मिलती है। समूचा छत्तीसगढ़ रामनवमी बड़ी श्रद्धा के साथ मनाते हैं।
इस दिन शुभ लग्न मानकर सभी शुभकार्य करते हैं। शादियाँ और गृह -प्रवेश आदि शुभ
कार्य सम्पन्न होते हैं। छत्तीसगढ़ के राम रमिहा लोग अपने पूरे शरीर में राम नाम
गुदवाकर श्रीराम नाम की पूजा-अर्चना करते हैं। वे निर्गुण राम को मानते हैं। उनका
कहना है के राम से बड़ा राम का नाम है।
सम्पर्क:'राघव ' डागा कालोनी, चाम्पा-495671 (छत्तीसगढ़) Email-ashwinikesharwani@gmail.com
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