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Feb 2, 2014

सिक्किम

सुन्दरतम अनुभूतियों की यात्रा
- पद्मा मिश्रा

बारिश थी कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी, सड़कों पर, गलियों में, पानी उफन-उफन कर बह रहा था। होटल के कमरे में बैठे-बैठे मन उब रहा था। बारिश रुके तो गंगटोक तक जाने की कोई व्यवस्था हो पाएगी। वह भी जब रास्ता खुला हो, कल सिक्किम के बार्डर तक जाकर लौट आना पड़ा था। रास्ते में पहाड़ का एक बड़ा टुकड़ा टूट कर गिर पड़ा था। रास्ता जाम हो गया तो सेना के जवानो ने उसे बन्द कर सबको वापस लौट जाने का निर्देश दिया। निराश, मायूस बारिश में भींगते हुए सिलीगुड़ी के इस होटल में शरण मिली थी। किसी तरह रात कटी, पर आज गंगटोक पहुँचना बहुत जरूरी था। वहाँ बुक किये गए टाटा गेस्ट हॉउस में पैसे कट रहे थे, और हम यहाँ बुरी तरह फँसे हुए थे। सुदूर जमशेदपुर से चल कर हावड़ा, सियालदह, जलपाईगुड़ी होते हुए सिलीगुड़ी में रुकना पड़ा था. ..निरुद्देश्य मेरे साथ आये मेरे गाँव के देवर और उनका बेटा राजा भी निराश हो चुके थे। बरदंग पहुँचना मुश्किल लग रहा था। वहाँ ए.टी.टी, सी, अडवांस टेक्निकल सेंटर में उसका नामांकन कराना जरूरी था; पर यहाँ तो होटल के कमरे में बैठे हुए काम पूरा न हो पाने की निराशा व हताशा के पल काटने मुश्किल हो रहे थे। तभी मैनेजर ने आकर सूचना दी कि एक नेपाली दम्पती भी गंगटोक जा रहे हैं, यदि आप चाहें तो उनके साथ जा सकते हैं, हमारी खुशी का ठिकाना नहीं था, वे बड़े भले लोग थे। उन्होंनेकहा कि यदि रास्ता बन्द भी रहा; तो मै जरूर कुछ करूँगा। अभी अभी खबर मिली है कि बन्द रास्ता खुल गया है, और एक कोशिश करने में कोई हर्ज़ नहीं है। हम लोग फिर एक कठिन यात्रा पर चले। बारिश और भी तेज हो गई थी, पर वे पति- पत्नी बिलकुल निश्चिन्त थे, वे बड़ी कुशलता से अपनी सुमो ड्राइव करते हुए बढ़ रहे थे, सिलीगुड़ी की सीमा पार करते ही जैसे हम सीकिम की सीमा पर पहुँचे एक बार फिर नियति ने अपना खेल दिखाया, रास्ता अभी भी जाम था और पहले से भी बड़ा एक भूखंड किनारों को तोड़ता, नष्ट- भ्रष्ट करता आ गिरा था, जिसे हटाने का कार्य चल रहा था, जिसमें लगभग चार घंटे लगते। हम हतप्रभ और निरुपाय थे। फिर उन सज्जन ने ही एक उपाय सुझाया कि -देखिये, मै गंगटोक होते हुए दार्जिलिंग जाता पर अब सीधे दार्जिलिंग होते हुए गंगटोक पहुँचा दूँगा; क्योंकि वहाँ मेरा घर है, मुझे वहाँ जाना ही है, पर किराया चार हजार लगेगा। मजबूरन हमें उनकी बात माननी पड़ी।पर सिलीगुड़ी वापस  पहुँचने के बाद जब हमारी गाड़ी दार्जिलिंग की और मुड़ी तो धीरे-धीरे जैसे प्रकृति की किताब के रहस्यमयी पृष्ठ खुलते जा रहे थे। प्रकृति अपने कई रूपों में, कई रंगों में, बाहें फैलाए हमारा स्वागत कर रही थी। हमारे मन से दुविधा, निराशा, और हताशा के बादल छँट गए थे, और नीले आकाश में उमड़ते-घुमड़ते ,बरसते बादल मानों हमारे आस-पास मँडराकर कह रहे हों- स्वागतम् हरी-भरी वादियाँ दूर -दूर तक बिछे चाय के बागान और ऊपर से रसधार गिराती मेघमालाएँ तन-मन और आँखों को अनोखा सुख प्रदान कर रही थीं। बादल हमारे आगे-पीछे ऊपर-नीचे, आ जा रहे थे। कभी गाड़ी के आगे आकार अँधेरा कर जाते, तो कभी खिड़की के रास्ते मेरे गालों, बालों, और चेहरे को भिगोकर तुरन्त उडऩ छू हो जाते। मेरे पति  की यह पहली पर्वतीय यात्रा थी, वे रोमांचित थे, हर्षित भी इन अनूठे दृश्यों को देख कर, परन्तु इन सँकरे, घुमावदार सर्पीले मोड़ वाले रास्तों को देख कर हम सभी भयभीत भी हो रहे थे। रास्ते भी कहीं कटे हुए थे तो कहीं उबड़ -खाबड़ पथरीले जहाँ दो गाडिय़ाँ सामने आतीं तो एक को रुक जाना पड़ता था। रास्ते में भू-स्खलन से दुर्घटना ग्रस्त हुई गाडिय़ों की क्षति ग्रस्त कतारें देख, हम डर गए थे। हमारे साथी ड्राइवर ने बताया कि वे आते-जाते इनकी संख्याओं को देखकर अनुमान लगाते हैं कि आज कौन सी दुर्घटना हुई? मूसलाधार बरसते बारिश के बीच गाड़ी चलाना कितना मुश्किल होता होगा उनके लिए, यह समझा जा सकता था।
पर प्रकृति का सौन्दर्य उसके उग्र रूप पर भारी पड़ रहा था। वह सुन्दरता चारो और बिखरी हुई थी। आँखें तृप्त नहीं हो पा रही थीं। हम इन्हीं खूबसूरत दृश्यों को आत्मसात् करते, और फिर नीचे उतर कर कैमरे में उन पलों को कैद करते जा रहे थे। कर्सियांग में रुककर हमने चाय पी बारिश में भींगे  मन और शरीर को बहुत राहत मिली । यहीं पर हमने प्रसिद्ध टाय ट्रेन भी देखी, जो दार्जिलिंग की पहचान है। इसे अंग्रेजों ने 1869, में प्रारंभ किया था अपने चाय बागानों की देखभाल के लिए चाय पीकर हमारा कारवाँ फिर आगे बढ़ा। इस बार केवल चाय बागान से होकर गुजरना था, बारिश रुक रही थी, हम जैसे ही एक दो दृश्य कैमरे में लेते अचानक कही से बादलों का एक समूह आकर हमें भिगो जाता, जैसे आँख- मिचौनी खेलते बच्चे चाय के हरे-भरे खेत अत्यंत लुभावने लग रहे थे। यहाँ चारो तरफ पाइन के वृक्ष बहुतायत में नजर आ रहे थे और अन्य औषधीय पौधे भी। हमने खूब तस्वीरें खींची । हम सब बच्चों की तरह उल्लसित थे। उन दृश्यों में मुझे नैनीताल में बिताया अपना बचपन दिख रहा था, आज सचमुच मै बहुत पीछे लौट गई थी। दार्जिलिंग का सौन्दर्य हमारे मन -प्राणों पर छा गया था। मोहित कर गया था। मै यहाँ पर स्थानीयता, वेशभूषा, परम्पराओं की तलाश कर रही थी, पर आधुनिकता का रंग इन पर भी चढ़ चुका है। पर्वतीय बालाओं की मोहक पोषक और खूबसूरत परिधानों ने जींस, पैंट और टॉप धारण कर लिया है। चाय बागान में काम करने वाली रेजाओं को मैंने धूप का चश्मा लगाए, हाथ में मोबाइल थामे काम करते देखा है। पर मेरी नज़रों की अधूरी तलाश खिलखिलाकर कुछ ग्रामीण-श्रमिक युवतियों के गाने की आवाज से ही तृप्त हो गई।हमारी गाड़ी में गाना बज रहा था- ये कहाँ आ गए हम, यूँ ही साथ-साथ चलते... अपनी यात्रा तय करते हुए हम गंगटोक आ पहुँचे थे, यहाँ का नजारा तो कुछ और ही था, ऊँची-ऊँची पहाडिय़ाँ, उन पर मँडराते बादल, हरी-भरी गहरी घाटियाँ सभी आकर्षित कर रहे थे। चाइना- सिक्किम की सीमा युमथांग से निकल कर पूरे सिक्किम प्रदेश के बीचो-बीच बहती हुई, सिक्किम की जीवन रेखा, पवित्र तीस्ता नदी, हमारे साथ लगातार चल रही थी। इसकी लहरों में तीव्र करेंट था, लहरें कभी उछाल मारती, कभी शान्त होतीं, कभी चट्टानों के बीच से सर्पिल आकार लेती बराबर हमसे बातें करती जा रही थी। एक और ऊँचे पहाड़ तो दूसरी तरफ घाटी में बहती तीस्ता नदी दोनों ही कभी मन मोहते तो कभी भय उत्पन्न कर रहे थ। तीस्ता जैसे मानव की जिजीविषा की प्रतीक है, जो हर बाधाओं, मुश्किलों, तूफानों से टकराकर आगे बढ़ते जाने का सन्देश देती है, मैंने तीस्ता को मन ही मन प्रणाम किया।
अब शाम हो गयी थी, पहाड़ों में अँधेरा भी आकर्षक लगता है, दूर तक जुगनुओं सी जलती बुझती रोशनियाँ बहुत प्यारी लग रही थीं, सच कहूँ तो आज इस सुहानी शामने  मेरे जीवन के मधुरतम रिश्ते को भी असीम स्नेह-प्रेम से भर एक नई ताजगी दे दी थी। इन रास्तों की तरह ही जीवन के दुर्गम रास्तों पर भी जब हमसफ़र
का साथ हो तो हर मुश्किल आसान हो जाती है। हम रांगपो आ पहुँचे, अब हमारे सहयात्रियों को भी हमसे विदा लेनी थी। हमने दूसरी गाड़ी लेकर अपने दोस्तों का धन्यवाद  कर उन्हें विदा किया और फिर सफ़र पर चल पड़े। इस बार हमारी राहों से गुजरने वाले  हर एक पेड़, पत्ता, फूल, पहाड़, सबसे एक लगाव-सा महसूस हो रहा था। एक ऐसा आकर्षण जो हमें बाँध रहा था प्रकृति के अटूट बंधन में ।यहाँ बने लकडिय़ों के, और पक्के घरों की सुन्दरता मोहक थी। वे लोग घरों को रंगने में पक्के चटक रंगों का प्रयोग करते हैं। विशेष रूप से नीले, लाल, हरे और पीले रंग। जहाँ तहाँ बौद्ध मठों और गुम्पाओं की उपस्थिति, आस्था भी उत्पन्न कर रही थी। बुद्ध के उपदेशों को प्रसारित करती धार्मिक पताकाएँ ऊँचे तारो पर, वृक्षों पर लहरा रही थीं। बौद्ध मठों के अतिरिक्त कहीं-कहीं शिव, हनुमान के मन्दिर भी सुखद आश्चर्य उत्पन्न कर रहे थे। सिक्किम में मात्र सत्तात्मक परिवार की परंपरा  होने के कारण वहाँ व्यापार से लेकर दुकान तक और शिक्षा, व्यवस्था तक सब महिलाएँ ही सँभाल रही थीं। वहाँ। उन्मुक्त घूमती महिलाएँ अपने सशक्त होने का प्रमाण थीं। हँसती, खिलखिलाती, साथियों  से हास -परिहास करती वे प्रबुद्ध, कर्मठ, परिश्रमी, एवं शालीन लगीं गंगटोक के सौन्दर्य का यह दूसरा पहलू भी कम आकर्षक नहीं था। हमारी टैक्सी आगे बढ़ रही थी, तीस्ता अभी भी हमारे साथ थी। हमारी मंजिल टाटा स्टील का गेस्ट हॉउस होलीडे होम पास आ रहा था। जो तमांग गुम्पा के नजदीक था। इतनी लम्बी यात्रा के बाद मिला आश्रय आह्लादकारी था। रूम न. 108 में हमारा बसेरा था। आज रात भर के लिए सामान रख मुँह हाथ धोकर  वहाँ से मिली गर्म चाय ने थकान मिटा दी। गर्म गर्म खाना भी तुरंत आ गया था-दाल, चावल, दो सब्जियाँ, सलाद और अचार अत्यंत स्वादिष्ट लगे अमृतोपम घर छोडऩे के बाद पहली बार भरपेट खाना तृप्त कर गया था। हम तो यात्रा में अल्पाहार चिप्स, काफी, चाय, और कोल्ड ड्रिंक्स लेकर चल रहे थे, एक निश्चिन्त, खुशनुमा, उम्मीदों भरी रात बीती। सुबह होते ही सामने जो दृश्य दिखाई दिया, वह अकल्पनीय था। ठीक सामने कंचनजंघा की चोटी दिखाई दे रही थी, मैंने जल्दी से कैमरे में उसे कैद करना चाहा पर बादलों ने उसे ढक लिया। बस पल भर की एक झलक ही मिल सकी, लेकिन मौसम साफ़ होने से गंगटोक का सौन्दर्य निखर आया था। यह सुन्दरता अभिभूत कर रही थी। हमें बरदंग अपने भतीजे राजा के नामांकन के लिए निकलना था। ए .टी.टी.सी. एडवांस ट्रेनिंग सेंटर सिंगतम के पास ही था। नामांकन की प्रक्रिया पूरी होते होते दोपहर हो आई थी। हमें सिलिगुड़ी  पहुँच कर सियालदह के लिए ट्रेन पकडऩी थी, अत; हम एक बार फिर से वापसी की यात्रा पर निकल पड़े लौटते हुए वही सारे दृश्य फिर आँखों के सामने साकार थे, पीछे शोर करती तीस्ता का पानी छोटी बड़ी चट्टानों से टकराता अनोखे  संगीत की सृष्टि कर रहा था, तो किनारे-किनारे ऊँचाई पर स्थित एकमात्र सड़क पर गाडिय़ों की आवाजाही जारी थी। ऊँचे पहाड़ थे, दूर तक बिछी असीमित हरियाली और चहचहाते पंछी बहुत ही सुहावना दृश्य था, आँखे उन्हें निहारती थक नहीं रही थी, कालिदास की शकुंतला -सा क्षण-क्षण परिवर्तित प्रकृति का रूप मनोहारी था। क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैती... तदैव रूपं रमणीयातायाएक बात गंगटोक में मुझे बहुत अच्छी लगी कि वहाँ म्यांमार, दामन, लक्षद्वीप, नेपाल सभी जगहों से लोग आए थे, वहाँ के सौन्दर्य को आत्मसात् करने पर वे सभी हिन्दी बोल रहे थे, यद्यपि उच्चारण में विभिन्नता थी, पर वे सब केवल भारतीय थे, मुझे अपनी राष्ट्रभाषा और अपने देश पर गर्व हो रहा था। चाइना की संस्कृति से प्रभावित प्रदेश में अंग्रेजी या अन्य भाषा की जगह हिन्दी। बहुत ही सुखद अहसास था। आज उन बहुमूल्य पलों, वहाँ फैली हरीतिमा को छोड़ते बहुत दु:ख हो रहा था। मेरी सखी के रूप में तीस्ता फिर मेरे साथ थी, बातें करती गुनगुनाती खिलखिलाती, और कभी शोर मचाकर प्रतिवाद करती, समय बीतता जा रहा है, उन यादों को कैमरे में कैद कर रही हूँ, साथ ही नेत्रों की प्यास और अंतरतम के एक एक बिंदु पर उन्हें आत्मसात करती हुई। यह यात्रा जीवन की सबसे सुन्दरतम अनुभूतियों की यात्रा बन गयी है, दो पंक्तियाँ कहना चाहती हूँ।                               
अक्षरों में गूँथती हूँ,
प्रकृति की सौंदर्य माला,
प्यार बरसाता रहा नभ,
भीगती  यह काव्य-बाला।

लेखिका के बारे में- शिक्षा- एम.ए.हिंदी, प्रकाशन- कादम्बिनी, परिकथा, वर्तमान साहित्य, जटायु, स्वर मंजरी हिंदुस्तान, दैनिक जागरण,प्रभात खबर, दैनिक भास्कर आदि अनेक राष्ट्रीय व स्थानीयपत्र- पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। प्रथम कहानी संग्रह- साँझ का सूरज, काव्य संग्रह- सपनों के वातायन। पठार की खुशबू (झारखण्ड की पच्चीस महिला साहित्यकारों की कहानियों का संकलन), जो दिल में है- (झारखण्ड की पच्चीस महिला कवयित्रियों की कविताएँ)। बहुभाषीय साहित्यिक संस्था-सहयोग एवं अक्षर कुम्भ से सम्बद्ध।
सम्पर्क: जमशेदपुर-झारखण्ड Email- padmasahyog@gmail.com

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