श्रीलाल शुक्ल
श्रीलाल शुक्ल एक ऐसे व्यंग्य लेखक हैं जिन्होंने 'राग दरबारी' लिखकर साहित्य की दुनिया में तहलका मचा दिया। लेकिन श्रीलाल जी की अन्य रचनाएं विश्रामपुर का संत से लेकर मकान और राग विराग तक सभी ऐसी रचनाएं की हैं जो सभी हिन्दी साहित्य की बहुमूल्य निधि हैं।
श्रीलाल शुक्ल एक ऐसे व्यंग्य लेखक हैं जिन्होंने 'राग दरबारी' लिखकर साहित्य की दुनिया में तहलका मचा दिया। लेकिन श्रीलाल जी की अन्य रचनाएं विश्रामपुर का संत से लेकर मकान और राग विराग तक सभी ऐसी रचनाएं की हैं जो सभी हिन्दी साहित्य की बहुमूल्य निधि हैं।
श्रीलाल शुक्ल का जन्म लखनऊ के अटरौली गांव में 31 दिसंबर 1925 को हुआ था, उनकी प्रारंभिक शिक्षा लखनऊ में हुई, जबकि इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उन्होंने ग्रेजुएशन की डिग्री पूरी की और 1949 में वो प्रशासनिक सेवा में आ गए। परिवार में लिखने पढऩे की पुरानी परम्परा थी और श्रीलाल जी 13-14 साल की उम्र में ही संस्कृत और हिंदी में कविता- कहानी लिखने लगे थे।
श्रीलाल शुक्ल के साहित्यिक सफर की ओर देखें तो उपन्यास: सूनी घाटी का सूरज- 1957, अज्ञातवास-1962, राग दरबारी-1968, आदमी का जहर- 1972, सीमाएं टूटती हैं-1973, मकान- 1976, पहला पड़ाव-1987, विश्रामपुर का सन्त-1998, बब्बर सिंह और उसके साथी-1999, राग विराग-2001। व्यंग्य निबंध- अंगद के पांव-1958, यहां से वहां-1970, मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनायें-1979, उमरावनगर में कुछ दिन-1986, कुछ जमीन में कुछ हवा में- 1990, आओ बैठ लें कुछ देर- 1995, अगली शताब्दी के शहर- 1996, जहालत के पचास साल- 2003, खबरों की जुगाली-2005। कहानी संग्रह- ये घर में नहीं-1979, सुरक्षा तथा अन्य कहानियां- 1991, इस उमर में- 2003, दस प्रतिनिधि कहानियां-2003। संस्मरण- मेरे साक्षात्कार- 2002, कुछ साहित्य चर्चा भी- 2008। आलोचना- भगवती चरण वर्मा- 1989, अमृतलाल नागर- 1994, अज्ञेय: कुछ रंग कुछ राग- 1999। संपादन- हिन्दी हास्य व्यंग्य संकलन 2000 आदि प्रमुख हैं।
सम्मान: 1995 में यश भारती सम्मान, 1999 में व्यास सम्मान, भारत सरकार द्वारा 2008 में पद्मभूषण पुरस्कार। 2009 का भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार उन्हें अमरकांत के साथ प्राप्त हुआ।
स्वतंत्रता के बाद के भारत के ग्रामीण जीवन की मूल्यहीनता को परत दर परत उघाडऩे वाले उपन्यास 'राग दरबारी' (1968) के लिये उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। अंगे्रजी सहित 'राग दरबारी' का अनुवाद 16 अन्य भारतीय भाषाओं में हुआ। उनके इस उपन्यास पर दूरदर्शन- धारावाहिक का निर्माण भी हुआ।
'राग दरबारी' जब प्रकाशित हुई थी तब श्रीलाल शुक्ल की उम्र लगभग तैतालीस साल थी। इसे लिखने में उनको करीब पांच साल लगे। इसे लिखने के बाद उत्तर प्रदेश शासन में अधिकारी होने के नाते उनको यह ख्याल आया कि इसके प्रकाशन की अनुमति भी ले ली जाये क्योंकि 'राग दरबारी' में शासन व्यवस्था पर करारा व्यंग्य था इसलिये एहतियातन उन्होंने अनुमति लेना उचित समझा। उन्होंने शासन को चिट्ठी भी लिखी...। हालांकि इसके पहले भी उनकी कई किताबें छप चुकी थीं और उनके लिये उन्होंने कोई अनुमति नहीं ली थी। काफी दिनों तक शुक्ल साहब की चिट्ठी का कोई जवाब नहीं आया तो इस बीच उन्होंने नौकरी छोडऩे का मन बना लिया। अज्ञेय जी की जगह दिनमान साप्ताहिक में संपादक की बात भी तय हो गयी थी। यह सब होने के बाद श्रीलाल जी ने उत्तर प्रदेश शासन को एक विनम्र लेकिन व्यंग्यात्मक पत्र लिखा जिसमें इस बात का जिक्र था कि उनकी किताब पर न उनको अनुमति मिली न ही मना किया जा रहा है। इस पत्र का इतना असर हुआ कि उन्हें तुरंत 'राग दरबारी' के प्रकाशन की अनुमति मिल गयी। और आलम यह कि आज 'राग दरबारी' राजकमल प्रकाशन से छपने वाली सबसे ज्यादा बिकने वाली किताबों में से एक है।
एक बार जब उनसे ये पूछा गया कि 'राग दरबारी' के लिये उन्हें साहित्यिक मसाला कहां से और कैसे उन्होंने इसका संकलन किया। इस पर श्री लाल शुक्ल जी ने जवाब दिया कि उन्होंने जो देखा वही राग दरबारी का मसाला है। इसमें न तो कुछ जोड़ा गया है और न इसमें कल्पना का रंग भरा गया है। राग दरबारी के प्रकाशन के पहले पांच बार इसे संवारा सुधारा गया। इसे लिखने के समय श्रीलालजी की नियुक्ति बुंदेलखंड के पिछड़े इलाकों में रही। कुछ हिस्से तो वीराने में जीप खड़ी करके लिखे गये।
श्रीलाल शुक्ल के साहित्यिक सफर की ओर देखें तो उपन्यास: सूनी घाटी का सूरज- 1957, अज्ञातवास-1962, राग दरबारी-1968, आदमी का जहर- 1972, सीमाएं टूटती हैं-1973, मकान- 1976, पहला पड़ाव-1987, विश्रामपुर का सन्त-1998, बब्बर सिंह और उसके साथी-1999, राग विराग-2001। व्यंग्य निबंध- अंगद के पांव-1958, यहां से वहां-1970, मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनायें-1979, उमरावनगर में कुछ दिन-1986, कुछ जमीन में कुछ हवा में- 1990, आओ बैठ लें कुछ देर- 1995, अगली शताब्दी के शहर- 1996, जहालत के पचास साल- 2003, खबरों की जुगाली-2005। कहानी संग्रह- ये घर में नहीं-1979, सुरक्षा तथा अन्य कहानियां- 1991, इस उमर में- 2003, दस प्रतिनिधि कहानियां-2003। संस्मरण- मेरे साक्षात्कार- 2002, कुछ साहित्य चर्चा भी- 2008। आलोचना- भगवती चरण वर्मा- 1989, अमृतलाल नागर- 1994, अज्ञेय: कुछ रंग कुछ राग- 1999। संपादन- हिन्दी हास्य व्यंग्य संकलन 2000 आदि प्रमुख हैं।
सम्मान: 1995 में यश भारती सम्मान, 1999 में व्यास सम्मान, भारत सरकार द्वारा 2008 में पद्मभूषण पुरस्कार। 2009 का भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार उन्हें अमरकांत के साथ प्राप्त हुआ।
स्वतंत्रता के बाद के भारत के ग्रामीण जीवन की मूल्यहीनता को परत दर परत उघाडऩे वाले उपन्यास 'राग दरबारी' (1968) के लिये उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। अंगे्रजी सहित 'राग दरबारी' का अनुवाद 16 अन्य भारतीय भाषाओं में हुआ। उनके इस उपन्यास पर दूरदर्शन- धारावाहिक का निर्माण भी हुआ।
'राग दरबारी' जब प्रकाशित हुई थी तब श्रीलाल शुक्ल की उम्र लगभग तैतालीस साल थी। इसे लिखने में उनको करीब पांच साल लगे। इसे लिखने के बाद उत्तर प्रदेश शासन में अधिकारी होने के नाते उनको यह ख्याल आया कि इसके प्रकाशन की अनुमति भी ले ली जाये क्योंकि 'राग दरबारी' में शासन व्यवस्था पर करारा व्यंग्य था इसलिये एहतियातन उन्होंने अनुमति लेना उचित समझा। उन्होंने शासन को चिट्ठी भी लिखी...। हालांकि इसके पहले भी उनकी कई किताबें छप चुकी थीं और उनके लिये उन्होंने कोई अनुमति नहीं ली थी। काफी दिनों तक शुक्ल साहब की चिट्ठी का कोई जवाब नहीं आया तो इस बीच उन्होंने नौकरी छोडऩे का मन बना लिया। अज्ञेय जी की जगह दिनमान साप्ताहिक में संपादक की बात भी तय हो गयी थी। यह सब होने के बाद श्रीलाल जी ने उत्तर प्रदेश शासन को एक विनम्र लेकिन व्यंग्यात्मक पत्र लिखा जिसमें इस बात का जिक्र था कि उनकी किताब पर न उनको अनुमति मिली न ही मना किया जा रहा है। इस पत्र का इतना असर हुआ कि उन्हें तुरंत 'राग दरबारी' के प्रकाशन की अनुमति मिल गयी। और आलम यह कि आज 'राग दरबारी' राजकमल प्रकाशन से छपने वाली सबसे ज्यादा बिकने वाली किताबों में से एक है।
एक बार जब उनसे ये पूछा गया कि 'राग दरबारी' के लिये उन्हें साहित्यिक मसाला कहां से और कैसे उन्होंने इसका संकलन किया। इस पर श्री लाल शुक्ल जी ने जवाब दिया कि उन्होंने जो देखा वही राग दरबारी का मसाला है। इसमें न तो कुछ जोड़ा गया है और न इसमें कल्पना का रंग भरा गया है। राग दरबारी के प्रकाशन के पहले पांच बार इसे संवारा सुधारा गया। इसे लिखने के समय श्रीलालजी की नियुक्ति बुंदेलखंड के पिछड़े इलाकों में रही। कुछ हिस्से तो वीराने में जीप खड़ी करके लिखे गये।
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