बेहतरीन अंक
अक्टूबर अंक की अनकही में 'विश्वसनीयता का अंधकार' पढ़कर यह कहना पड़ा कि सचमुच आज दुनिया से विश्वास लुप्त होता जा कहा है। विनोद साव का व्यंग्य 'गांधी, अंडा और मुर्गा' सुंदर व्यंग्य है। आज नाम के गाँधी तो बहुत हैं पर गाँधीवाद मर रहा है। 'ये चेहरा अपना सा लगता है' अच्छी सोच को दर्शाती कविता है लेकिन अफसोस अन्ना के साथी निजी कारणों के चलते अन्ना के साथ हैं न कि देश भक्ति के कारण, फिर अन्ना कोई विकल्प भी तो नहीं बता रहे, कहीं यह आंदोलन 1977 के आंदोलन जैसा न हो जाए। इसी अंक में प्रकाशित करमजीत सिंह की लघुकथाओं में पहली लघुकथा जहाँ इज्जत की रोटी खाने का संदेश देती है, वहीं दूसरी लघुकथा विदेशों में प्रवासियों की दशा का चित्रण करती है। हाइकु तो एक से बढ़कर एक हैं ही।
उदंती पठनीय और अच्छी पत्रिका है। इसके सामाजिक सरोकारों से जुड़ी रचनाएं आकर्षण का केंन्द्र होती हंै। झारखंड के सामाजिक परिवेश से जुड़ा आर्टिकल मैं भी लिखना चाहूंगा। उदाहरण के लिए अपराध जगत को लें। सभी जानते हैं छत्तीसगढ़ की तरह झारखंड भी नक्सलियों के कब्जे में है। लेकिन यहां के ग्रामीण कितने सहृदय हैं इसका अनुमान शायद ही बाहरी दुनिया के लोग लगा पाते हैं। नक्सली घटनाओं को छोड़ दें तो कई ऐसे उदाहरण हैं जहां हत्या करके हत्यारा भागता नहीं, खुद पुलिस के पास जाता है और अपराध स्वीकार कर लेता है। यह अजूबा है। पिछले एक साल में मैंने सैंकड़ों ऐसी खबरें छापी हैं।
जीवन के विविध और गहन सन्दर्भों की बात की जाए तो मानवीय प्रेम सुख- दुख की गहनता को हाइकु जैसे छोटे छन्द में गम्भीरता और मार्मिकता से चित्रण करना कठिन है। भाषा की क्षमता की परख यहीं पर होती है। डॉ. हरदीप कौर सन्धु की भाषा, हृदय की धड़कनों से प्रकट होती है। अक्टूबर अंक में प्रकाशित उनके हाइकु इसका जीवन्त प्रमाण हैं।
उमर की नदिया
बहती गई...
हार्दिक बधाई...
रश्मि प्रभा की कविता 'विजयी मंत्र' बेहतर है, आशा भाटी का 'ये चेहरा अपना सा लगता है' उत्तम विचार है पर इसमें कविता कहाँ है? नडाला जी की पहली लघुकथा पूर्व में भी कहीं पढ़ी है ऐसा लगा, फिर भी उनकी दोनों ही लघुकथाएं बार- बार पढऩे योग्य हैं। बधाई..
त्यौहार के रंगों से सजा महीना लेख में पल्लवीजी ने सच ही तो कहा है... हो सकता है कल की कोई घटना ऐसी रही हो जिसके कारण त्यौहार का उल्लास कम हो जाता हो। फिर भी त्यौहार जीवन में नई उमंग लाते हैं। बहुत ही सुंदर लेख है। उनके कुछ विचार अच्छे लगे-जैसे क्यों देवों को सुला दिया जाता रहा होगा। हम अभी भी कुछ बातों को बिना दिमाग लगाए मानते जा रहे हैं... पुराने जमाने में उन्हें करने के कारण रहे होंगे। पर अब ठोस कारण नहीं है तो भेड़ चाल चलना ठीक नहीं।
अक्टूबर अंक की अनकही में 'विश्वसनीयता का अंधकार' पढ़कर यह कहना पड़ा कि सचमुच आज दुनिया से विश्वास लुप्त होता जा कहा है। विनोद साव का व्यंग्य 'गांधी, अंडा और मुर्गा' सुंदर व्यंग्य है। आज नाम के गाँधी तो बहुत हैं पर गाँधीवाद मर रहा है। 'ये चेहरा अपना सा लगता है' अच्छी सोच को दर्शाती कविता है लेकिन अफसोस अन्ना के साथी निजी कारणों के चलते अन्ना के साथ हैं न कि देश भक्ति के कारण, फिर अन्ना कोई विकल्प भी तो नहीं बता रहे, कहीं यह आंदोलन 1977 के आंदोलन जैसा न हो जाए। इसी अंक में प्रकाशित करमजीत सिंह की लघुकथाओं में पहली लघुकथा जहाँ इज्जत की रोटी खाने का संदेश देती है, वहीं दूसरी लघुकथा विदेशों में प्रवासियों की दशा का चित्रण करती है। हाइकु तो एक से बढ़कर एक हैं ही।
- दिलबाग विर्क, dilbagvirk23@gmail.com
सामाजिक सरोकार उदंती पठनीय और अच्छी पत्रिका है। इसके सामाजिक सरोकारों से जुड़ी रचनाएं आकर्षण का केंन्द्र होती हंै। झारखंड के सामाजिक परिवेश से जुड़ा आर्टिकल मैं भी लिखना चाहूंगा। उदाहरण के लिए अपराध जगत को लें। सभी जानते हैं छत्तीसगढ़ की तरह झारखंड भी नक्सलियों के कब्जे में है। लेकिन यहां के ग्रामीण कितने सहृदय हैं इसका अनुमान शायद ही बाहरी दुनिया के लोग लगा पाते हैं। नक्सली घटनाओं को छोड़ दें तो कई ऐसे उदाहरण हैं जहां हत्या करके हत्यारा भागता नहीं, खुद पुलिस के पास जाता है और अपराध स्वीकार कर लेता है। यह अजूबा है। पिछले एक साल में मैंने सैंकड़ों ऐसी खबरें छापी हैं।
- संजय कुमार, sanjayjournalist@gmail.com
हाइकु: सर्दी की धूप जैसी जिंदगी जीवन के विविध और गहन सन्दर्भों की बात की जाए तो मानवीय प्रेम सुख- दुख की गहनता को हाइकु जैसे छोटे छन्द में गम्भीरता और मार्मिकता से चित्रण करना कठिन है। भाषा की क्षमता की परख यहीं पर होती है। डॉ. हरदीप कौर सन्धु की भाषा, हृदय की धड़कनों से प्रकट होती है। अक्टूबर अंक में प्रकाशित उनके हाइकु इसका जीवन्त प्रमाण हैं।
- रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु', rdkamboj@gmail.com
डॉ. हरदीप के हाइकु 'सर्दी की धूप जैसी जिंदगी' के बारे में कुछ लिखना सूरज को दिया दिखाना है। किस- किस के बारे में लिखूं शब्दों के बारे में या भावों के बारे में दोनों ही उत्तम हैं।
- रचना पाण्डेय, लखनऊ (यूपी)
सभी हाइकु एक से बढ़ कर एक हैं ....हरदीप हाइकु का नियमित और बहुत संतुलित लेखन करती हैं।
- डा.रमा द्विवेदी
हाइकु में प्यार, प्रकृति बहुत निखर कर आया है, उनके हाइकु की ये पंक्तियां पसंद आई - चप्पु न कोईउमर की नदिया
बहती गई...
हार्दिक बधाई...
- डॉ. भावना कुंवर
bhawnak2002@gmail.com
यह जानकर प्रसन्नता हुई कि मेरे हाइकु आपको पसन्द आए और आपने प्रकाशित किया। आपके आत्मीय विचारों ने मेरा उत्साह बढ़ाया। कोई भी कलम कुछ लिखने में तब सफल होती है जब उसकी बात पाठक के हृदय में प्रवेश करती है। मेरा प्रयास इसी दिशा में चलने का रहता है, जिसको समय- समय पर आप सभी के शब्दों से हुलारा मिलता रहता है। हार्दिक धन्यवाद एवं आभार।bhawnak2002@gmail.com
- डॉ. हरदीप कौर सन्धु
shabdonkaujala@gmail.com
बार- बार पढऩे योग्य रश्मि प्रभा की कविता 'विजयी मंत्र' बेहतर है, आशा भाटी का 'ये चेहरा अपना सा लगता है' उत्तम विचार है पर इसमें कविता कहाँ है? नडाला जी की पहली लघुकथा पूर्व में भी कहीं पढ़ी है ऐसा लगा, फिर भी उनकी दोनों ही लघुकथाएं बार- बार पढऩे योग्य हैं। बधाई..
- दीपक 'मशाल', mashal.com@gmail.com
विजयी मंत्र बहुत ही प्रेरक रचना है। काश हम सबको भी याद रहता है कि हम देश हैं, पार्टी या कोई जाति नहीं...।
- पूजा आर शर्मा, मध्यप्रदेश
नई उमंग त्यौहार के रंगों से सजा महीना लेख में पल्लवीजी ने सच ही तो कहा है... हो सकता है कल की कोई घटना ऐसी रही हो जिसके कारण त्यौहार का उल्लास कम हो जाता हो। फिर भी त्यौहार जीवन में नई उमंग लाते हैं। बहुत ही सुंदर लेख है। उनके कुछ विचार अच्छे लगे-जैसे क्यों देवों को सुला दिया जाता रहा होगा। हम अभी भी कुछ बातों को बिना दिमाग लगाए मानते जा रहे हैं... पुराने जमाने में उन्हें करने के कारण रहे होंगे। पर अब ठोस कारण नहीं है तो भेड़ चाल चलना ठीक नहीं।
- कनुप्रिया गुप्ता, भोपाल kanubpl@gmail।com
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