- श्रीलाल शुक्ल
व्यंग्य के नाम पर, या सच तो यह है कि किसी भी विधा के नाम पर पत्र-पत्रिकाओं के लिए जल्दबाजी में आएँ-बायँ-शायँ लिखने का जो चलन है, उसके अंतर्गत कुछ दिन पहले मैंने एक निबंध लिखा था। वह एक पाक्षिक पत्रिका में ‘हास्य-व्यंग्य’ के स्तंभ के लिए था। हल्केपन के बावजूद उसे लिखते-लिखते मैं गंभीर हो गया था (बक़ौल फ़िराक़, ‘जब पी चुके शराब तो संजीदा हो गए’) यानी, इस निबंध से ‘शायँ’ ग़ायब हो गई थी, सिर्फ ‘आयँ-बायँ’ बची थी।
‘आयँ-बायँ’ की प्रेरणा शहर के एक बहुत बड़े दार्शनिक ने दी थी जो उतने ही बड़े कवि और कथाकार भी थे परंतु वास्तव में प्रेरणा उन्होंने नहीं, उनकी मौत ने दी थी। वे एक सड़क दुर्घटना में घायल हो गए थे। एक सप्ताह तक अस्पताल और घर की सेवा अपसेवा के बीच झूलते हुए उनकी मृत्यु हो गई। उनके बेटे को पता था कि वे ऊँचे दर्जे के विद्वान हैं, पर उनके प्रशंसकों और मित्रों के नाम का उसे पता न था। इसलिए उसने एक अखबार के दफ्तर को छोड़कर-जो उतना ही गुमनाम था-दो-चार गिने-चुने रिश्तेदारों को ही उनके न रहने की खबर दी और वहीं आठ-दस लोग मिलकर उनका दाह-संस्कार कर आए। बाद में उनके देहांत की खबर फैली और तब अखबारों में विद्वानों के प्रति समाज की उपेक्षा पर जमकर लिखा गया, यह और बात है कि उनकी मृत्यु और उसके अवसादपूर्ण कारणों पर तब भी ज़्यादा नहीं लिखा गया।
स्थिति अवसादपूर्ण थी, इसमें शक नहीं, पर मुझ जैसे लेखक को, जो अपने यथार्थ-बोध और भावुकता-विरोध के लिए विख्यात है, इससे क्या लेना-देना ? मुझे ‘आयँ-बायँ’ यानी हास्य-व्यंग्य के लिए यह बहुत वाजिब जान पड़ा और एक दिन मैंने चार बजे शाम तक छत के ऊपर बने हुए अध्ययन कक्ष में एक टिप्पणी लिख डाली।
जो मैंने लिखा, वह भविष्य में मरने वालों को संबोधित था। उसका सारांश था: ‘ऊँचे नेताओं, व्यवसायियों, उद्योगपतियों और अफसरों के मरने पर उनकी शवयात्रा में जनसंख्या की कमी नहीं रहती। उनके पीछे अनगिनत संस्थाएँ और प्रतिष्ठान भीड़ मुहैया करा देते हैं, या खुद भीड़ बन जाते हैं। पर मामूली लोगों जिनमें लेखक, कलाकार नट, विट, गायक आदि शामिल हैं-को यह सुविधा नहीं मिलती। उनकी शवयात्रा में चलने वाले गिने-चुने ही होते हैं। अत: अगर आप चाहते हैं कि आपकी शवयात्रा धूमधाम से संपन्न हो तो आपको मरने से काफी पहले एक विशेष प्रकार का जनसंपर्क चलाना पड़ेगा। वरना अखबार, टी.वी. रेडियो आदि का तो ज़िक्र ही क्या, आपका पड़ोसी तक आपका-यानी आपके मरने का नोटिस न लेगा और बाद में कहता सुना जाएगा, ‘बड़े अफसोस की बात है ! पर क्या बताएँ, मुझे पता ही नहीं चला !’
‘यह भी याद रखना चाहिए कि भरी-पूरी शवयात्रा के लिए बहुत बासी जनसंपर्क काम न देगा, लोग भूल जाते हैं या मरकर एक अजनबी पीढ़ी छोड़ जाते हैं। जनसंपर्क का अभियान अपने मरने से कोई दो साल पहले चला सकें तो अधिक गुणकारी होगा।’
जनसंपर्क के मैंने कुछ नुस्खे भी सुझाए थे: ‘दूसरों की शवयात्राओं में ज़्यादा से ज़्यादा हिस्सा लेना शुरू कर दें, किसी आध्यात्मिक, धार्मिक या सांप्रदायिक संगठन की सदस्यता ले लें, किसी शिक्षा-संस्था के प्रबंध मंडल में घुस जाए (ताकि कई अध्यापक और कुछ विद्यार्थी ऐन मौके पर उपलब्ध रहें), अपनी जाति के किन्हीं ऐसे उद्धार-कार्यक्रमों में खप जाएँ तो हर जाति में हर वक्त चलते ही रहते हैं...आदि-आदि !
‘सारांश यह कि मुर्दा हालत में अगर आपको भीड़ की दरकार है तो जिंदा हालत में भी आपको भीड़ से रब्तोज़ब्त रखनी पड़ेगी।’
ऐसा लिख चुकने पर, एक बडे लेखक के साथ जैसा कि होना चाहिए मैं अपने से कुछ असंतुष्ट और साथ ही, कुछ हद तक आत्ममुग्ध होकर छत पर टहलता रहा। बाद में एक मुँडेर के पास आकर खड़ा हो गया और अपने मकान के सामने से निकलने वाली अतिव्यस्त और काफ़ी अस्त-व्यस्त सड़क को देखता रहा। तभी सड़क के किसी गड्ढे में किसी गाड़ी के गिरने और उभरने की ‘भड़-भड़ भड़ाम’ सुनाई दी और गाड़ी के ब्रेक की चिहुँक भी। इसी के साथ हल्की धूप में एक साया-सा उतराया और ग़ायब हो गया। फाटक पर मेरा नौकर खड़ा था, उसने ज़ोर से आवाज़ लगाई और सड़क की ओर दौड़ा। एक दुर्घटना हो गई थी।
एक बूढा आदमी किसी तेज़ रफ़्तार टैपों की चपेट में आ गया था। सात सवारियों वाली इस तिपहिया गाड़ी ने उसे बगली धक्का मारकर उछाला और वह पक्की सड़क से विस्थापित होकर, हवा में तैरता-सा मेरे घर की चहारदीवारी के पास आ गिरा। तत्काल वे सभी दृश्य-श्रव्य जो सड़क दुर्घटनाओं से जुड़े होते हैं एक साथ दिखाई-सुनाई देने लगे। बूढ़े के आसपास भीड़ जमा हो गई। टैंपों का ड्राइवर जो दो-चार सेकेंड के लिए रुका था, पहले ही गाड़ी भगाता हुआ आँख-ओझल हो गया था।
‘‘क्या हुआ ?’’ क्या हुआ ?’’ मैं छत से पुकार रहा था पर दौड़कर नीचे नहीं आ पाया। एक तो भागदौड़ का तरीका मुझे धीरोदात्त आचरण के विपरीत जान पड़ता है दूसरे सच तो यह है-मुझे दुर्घटनाओं से घबराहट होती है, घायल आदमी को मैं देख नहीं सकता। ख़ून देखते ही मेरा सिर चकराने लगता है। जो ऐसे दृश्यों को आसानी से झेल लेता है वह एक तरह से मानव की आदिम संस्कृति में वापस लौटता है। यह प्रवृत्ति उन उदात्त संस्कारों के विरुद्ध है जो शताब्दियों की सभ्यता ने हम जैसों में परिपुष्ट किए हैं। पर तभी एक विचित्र घटना हुई जिसने मुझे तेज़ी से नीचे आने के लिए मजबूर कर दिया।
मैंने देखा कि कुछ लोगों ने इसी बीच बहुत सँभालकर बूढ़े को अपने हाथों में ले लिया है और जब मैं उम्मीद कर रहा था कि वे किसी गाड़ी में लिटा कर अस्पताल ले जाएँगे, वे उसे उठाकर मेरे फाटक के सामने लाए, उसके बाद उन्होंने बड़ी कोमलता से फाटक के ठीक आगे लिटा दिया। यह देखकर नीचे से मेरे नौकर ने और छत से मैंने विरोध की आवाज़ उठाई और मैं तेज़ी से फाटक के पास पहुँच गया। तब तक वे लोग बूढ़े को फाटक के पास छोड़कर ग़ायब हो गए थे। आसपास दस-ग्यारह छोकरे, कुछ औरतें और बूढ़े भर रह गए थे। मुझसे हमदर्दी जताई जाने लगी, कोई अपने आप से कह रहा था, ‘ऐसा नहीं करना चाहिए था।’ यह एक चालू और निरर्थक वक्तव्य है जिसे सुनने के लिए कहीं भी आपको लंबी यात्रा करने की ज़रूरत नहीं है।
बूढ़े के जिस्म में कोई हरकत नहीं हो रही थी, पता नहीं कि बेहोश था या मुर्दा। पर भयानक होते हुए भी यह दृश्य मुझे उतना भयानक नहीं दीखा क्योंकि उसकी देह पर कोई घाव नहीं था, न कहीं ख़ून ही दिखाई दे रहा था। इतना ज़रूर है कि उसकी पतलून के सामने का हिस्सा गीला था, पर घबराहट मुझे ख़ून से होती है, पानी से नहीं।
‘‘आप लोग यहीं रुकें, मैं पुलिस को फोन करके आता हूँ,’’ मैंने कहा और कई कदमों को एक में समेटता हुआ मैं अपने सुपरिचित बैठकखाने में आ गया। कुछ सुकून मिला और जाने-बूझे माहौल में पुलिस को फ़ोन करते वक़्त मुझे ज़्यादा उलझन नहीं हुई।
कौन कहता है कि पुलिस का कोई भरोसा नहीं ? मैंने पुलिस कंट्रोल रूम को फोन किया और पाँच मिनट के भीतर ही पुलिस का एक सचल दस्ता मेरे दरवाज़े पर हाज़िर था। यह और बात है कि जब तक वे आ नहीं गए और नौकर ने मुझे उनके आने की ख़बर नहीं दे दी, मैं घर के अंदर ही बना रहा-बाहर निकलता भी तो क्या कर लेता ?
पुलिस के आने से मुझे दोहरी खुशी हुई एक तो यह कि बूढ़े के बारे में मेरी जिम्मेदारी ख़त्म हुई, दूसरे इसलिए कि बची-खुची भीड़ और मुहल्लेवालों की नज़र में निश्चय ही मेरी साख बढ़ी। उन्होंने देख लिया कि मेरे टेलीफ़ोन घुमाते ही कैसे पूरा पुलिस दस्ता-एक नायब दारोग़ा, एक हेडकांस्टेबुल और तीन सिपाही-मेरे दरवाज़े पर है बूढ़ा अब भी किसी जिस्मानी हरकत के बिना फाटक के सामने पड़ा था। पुलिस की मौजूदगी का असर देखिए कि जो उसे मेरे फाटक के पास छोड़ गए थे, उनके ख़िलाफ़ मेरे मन में अब पहले जैसी कड़ुवाहट नहीं बची थी। बूढ़े के लिए चिंता ज़रूर थी पर यह चिंता भी शायद इस एहसास की उपज थी कि पूरे घटना-चक्र में मुझे अब एक महत्व की भूमिका निभानी है। तभी मैंने हेडकांस्टेबुल से कहा, ‘‘कृपया पूछताछ में वक़्त न बरबाद करें। पूछताछ तो बाद में भी हो सकती है, पहले इसे अस्पताल ले जाएँ। क्या पता, बच ही जाए।
वास्तव में पुलिस ने आते ही बूढ़े की ओर तो बाद में देखा, एकदम से पूछताछ शुरू कर दी थी। कोई जानता है कि यह कौन है ? इसका क्या नाम है ? दुर्घटना कैसे हुई ? तुममें से कोई मौक़े पर था ? टैपों का नंबर ? किसी एक को भी नंबर याद नहीं ? तब तुम साले यहाँ क्या कर रहे थे ? टैपों ने फाटक पर आकर कैसे टक्कर मारी ? उधर मारी ? उस जगह ? तो लाश फाटक पर कैसे आ गई ? वे कौन हरामी के पिल्ले थे जो इसे फाटक पर खींच लाए ?
प्रश्नोत्तर-काल में घटना की बेहूदगियाँ जैसे-जैसे खुलती जातीं, उसी अनुपात से पुलिसवालों की गालियाँ भी तीखी होती जा रही थीं। हैरत की बात कि उन पर मेरी बात से ठंडे पानी का छींटा पड़ा। पता नहीं क्यों, वे मुझसे पुलिस की तरह नहीं, सभ्य पुरुषों की तरह बात कर रहे थे। इसका कारण मैं बाद में सोच पाया: शायद इसलिए कि मैं साफ-सुथरा कुर्ता और पायजामा पहने था ! उनकी निगाह में मेरा अपरिचय इज़्ज़त का हकदार था : क्या पता कोई अज्ञात नायक हो ? या कोई प्रभामंडित महान् खलनायक ?
नायब दारोग़ा ने पहली बार मुँह खोला, ‘‘फ़िक्र न करें, बच जाएगा।’’
बूढ़े के मुँह पर पहले ही पानी के छींटे मारे जा चुके थे। कोई नतीजा नहीं निकला था। अब नायब दारोग़ा से शह जैसी पाकर हेडकास्टेबुल बूढ़े के निश्चल शरीर के पास आया। उसने बूट की नोक उसकी पसलियों में गड़ाई और कहा, ‘‘क्या नाम है तुम्हारा ?’’
कोई जवाब नहीं। तब पैर छोड़कर उसने हाथ का सहारा लिया बूढ़े की नाड़ी पकड़ी, कहा, ‘‘मरा नहीं है।’’ सिपाहियों से उसने कहा, ‘ले चलो....रामनगर अस्पताल।’
सिपाहियों ने अभ्यस्त मुद्रा से भीड़ में खड़े हुए दो रिक्शावालों को चुना, उनसे कहा, ‘इसे उठाकर जीप पर रखो..सीट पर नहीं, नीचे..अबे नीचे, फ़र्श पर..।’’
जैसे वे अपने गाँव का घर, बटाई पर लिया खेत, खलिहान, नीम का पेड़ छोड़कर शहर यही सुनने, यही करने आए थे, उन्होंने यह सुना यही किया।
अभी कुछ आशाप्रद भी होना बाकी था। हेडकांस्टेबुल ने फर्श पर पड़े हुए बूढ़े को झिड़ककर कहा, ‘‘बैठ जा।’’ इसका भी कोई असर नहीं हुआ। तब उसने बूढ़े को गर्दन का सहारा देकर बैठाया कहा, ‘‘बैठ, बैठा रह !’’ इस बार उसकी पलकों में कुछ हरकत हुई, मुँह से हल्की-सी कराह निकली। पर वह हेडकांस्टेबुल के हुक्म की तामील नहीं कर पाया; ढीले जिस्म से फ़र्श पर पसर गया।
‘‘रामनगर के अस्पताल मत ले जाइए, वहाँ की आपात सेवाओं का भरोसा नहीं। मेडिकल कॉलेज के अस्पताल में ले जाएँ। वहाँ...।’’
नायब दारोग़ा का धीरज जवाब देने लगा। उसने मेरी बात बीच में ही काट दी, कहा, ‘‘आप अपना काम कर चुके, अब हमें अपना काम करने दें।’’
दूसरे दिन सूर्योदय से पहले ‘जीर्णाजीर्ण’ पर विचार करते हुए शय्या-त्याग, उष:पान, चाय-पान, मल-मूत्र विसर्जन, दंतधावन, आसन-प्राणायाम-व्यायाम, समाचार-मंथन, प्रातराश उर्फ़ सूक्ष्माहार। इन क्रियाओं के बाद मेरे असली कर्म की शुरुआत होनी थी : मरणहीन गद्य की रचना, साहित्य-साधना।
पर मन में कुछ कुरेद रहा था, लग रहा था कि आज कुछ और करना है। क्या अस्पताल जाकर उस बूढ़े की हालत का पता लगाना ही इस अनमनेपन का अभीष्ट है ? हो सकता है। तब फिर क्या मेरा अस्पताल जाना ज़रूरी नहीं है ? है भी और नहीं भी। है इसलिए कि अगर वह ज़िंदा हो और उसकी कुछ ज़रूरतें हों तो अपने साधन और सामर्थ्य को नज़रअंदाज़ किए बिना उनकी पूर्ति की जा सके। उधर ‘नहीं भी’ के पीछे भी कई तर्क थे। एक घटना थी, ख़त्म हुई। अब मुझे हिलगे रहने की क्या ज़रूरत ? फिर, बिलावजह एक अजनबी आदमी का हालचाल लेने के लिए अस्पतालों के वैरपूर्ण वातावरण में चक्कर काटना क्या नाटकीय न लगेगा ?
पर ‘नाटकीय’ ने ही फ़ैसला कर दिया। मैं नाटकीयता के ख़िलाफ़ हूँ, पर कोई मेरे किसी कार्य को नाटकीय समझे या अख़बारों में उसे नाटकीय बनाकर प्रस्तुत करे, तो क्या नाटकीयता के आरोप से भयभीत होकर मुझे उससे विरत हो जाना चाहिए-ख़ास तौर से तब जब कि मैं शुद्ध मानवीय भावना से प्रेरित होकर कुछ करने जा रहा हूँ ?
मैं जानता था कि पुलिस बूढ़े को मेडिकल कॉलेज नहीं ले जाएगी। इसलिए मैं रामनगर अस्पताल गया। वहाँ काफ़ी देर मेरे मरीज़ का पता नहीं चला। जिसका कोई नाम नहीं, उसका पता कैसा ? फिर, कल सारे डॉक्टर हड़ताल पर थे। (किसी दूसरे अस्पताल में किसी मरीज़ ने किसी डॉक्टर को झापड़ मार दिया था। किसी ने उसकी मदद नहीं की थी, न जवाबी तौर पर कोई मरीज़ को पीटने के लिए आगे बढ़ा था। प्रशासन तटस्थ रहा था-‘क़ानून तोड़ा गया है तो क़ानून ख़ुद अपना रास्ता तय करेगा’ के सिद्धांत के अंतर्गत। यह हड़ताल उसी गतिरोध के ख़िलाफ़ सिर्फ़ प्रतीकात्मक रूप में एक दिन के लिए थी।) आज डॉक्टरों की हड़ताल नहीं थी, फिर भी रामनगर अस्पताल में हड़ताल का ख़ुमार बाक़ी था, अधिकांश डॉक्टर ड्यूटी पर नहीं आए थे।
मैं पूछता रहा: एक बूढ़ा इमरजेंसी में लाया गया था-दुर्घटना का मामला था। उसे पुलिस लाई थी। अब कैसा है ? कहां है ? किसी वार्ड में ? या शवगृह में ?
बड़ी दौड़-धूप और पूछताछ के बाद एक नर्स ने बताया : न वह किसी वार्ड में है, न शवगृह में।
नर्स ने कहा, ‘वे उसे कल यहाँ इमरजेंसी में लाए थे। मैंने कहा कि सारे डॉक्टर हड़ताल पर हैं, मरीज़ को भर्ती नहीं किया जा सकता। पुलिसवाले बोले, ‘ठीक है।’ इसके बाद वे ख़ुद मरीज़ को स्ट्रेचर पर लादकर अंदर लाए, इमरजेंसी वार्ड में एक बेड पर डाल दिया। दारोगा ने मुझसे कहा, ‘सॉरी सिस्टर, हम कुछ नहीं कर सकते, जो करना है तुम ख़ुद करो। एक मोटर ने इसे उछालकर सड़क के किनारे फेंक दिया था। पता नहीं कितनी चोट आई है। पर इतना तय है कि अभी उसकी साँस चल रही है। मैं कुछ बोलती, इसके पहले ही वे गाड़ी स्टार्ट करके चल दिए। मैं उनसे मरीज़ का नाम और पता भी नहीं पूछ सकी।’’
मैंने नर्स को समझाया कि वह पूछ लेती तब भी कोई नतीजा न निकलता।
‘‘मैंने मरीज़ को अपने हिसाब से जाँचा-परखा। लगा कि कोई खास चोट नहीं है। सदमा भर है। पर बिना डॉक्टरी जाँच-पड़ताल के ऐसी राय बना लेना भी खतरे का काम है। हो सकता है कि उसके दिमाग़ में अंदरूनी चोट आई हो, भीतर ही भीतर ख़ून बहा हो ! वैसे डॉक्टर होते, तब भी यह जानने में दिक़्क़त आती। यहाँ न कोई न्यूरोलॉजिस्ट है, न न्यूरोसर्जन, कैट्स स्कैन की मशीन भी नहीं..।
‘‘धीरे-धीरे उसने कराहना शुरू किया। आधी रात होते-होते वह पूरी तौर से होश में था। उसने चाय माँगी, मैं खुद चाय पी रही थी। कहीं और से चाय मिलनी मुश्किल थी। मैंने अपने प्याले से ही कुछ घूँट निकालकर उसे दिए। उसने पिया, कहा, ‘थैंक्यू’ और सो गया।
‘‘मैं भी सो गई।
‘‘बहुत सवेरे देखा, उसकी चारपाई ख़ाली थी वह जा चुका था।’’
नर्स ने आँखें फैलाकर कहा, ‘‘उसने बड़े जोख़िम का काम किया है।’’
श्रेष्ठता की कसौटी को लेकर हमारे साहित्य में रचनाकारों और आलोचकों के दो-तीन बड़े मज़बूत और सुपरिचित खेमे हैं, इनकी मान्यताएँ और दृष्टियाँ अत्यंत सुपरिभाषित हैं और अपने को एक-दूसरे से भिन्न मानने में ही उनकी सैद्धांतिक सार्थकता समझी जाती है, पर एक मामले में दोनों खेमों के सदस्य एक जैसे हैं। वे एक ओर भावुकता-विरोध को एक स्वत: सिद्ध मूल्य मानते हैं और दूसरी ओर अकेले में वे सभी भावुक होने की अपार क्षमता दिखा सकते हैं-सब नहीं तो अधिकांश। उन्हीं अधिकांश में एक मैं भी हूँ।
तभी उस बूढ़े के प्रसंग को बहुत कोशिश करके भी दिमाग़ से ख़ारिज नहीं कर पा रहा था। फाटक पर करवट के बल पड़ा हुआ उसका निश्चेष्ट शरीर, जिसे बुढ़ापे ने सब तरफ़ से बरबाद कर रखा था, दूर-दूर पड़ी रबर की दो घिसी चप्पलें, सामने से गीली मटमैली पतलून-सब कुछ दयनीय होते हुए भी मेरी कल्पना में ये किसी प्रेतछाया के से आतंक के साथ मौजूद थीं। मैं यह भी सोचा करता था कि वह अस्पताल से घिसटकर बाहर आ गया है और सड़क के किनारे किसी झाड़ी में पड़ा हुआ दम तोड़ चुका है या तोड़ रहा है।
मेरा मन व्याकुल था, दो दिन व्याकुल रहा। तीसरे दिन भावुकता चुकने लगी, चौथे दिन चुक गई, आहार-निद्रा भय आदि में ज़िंदगी की सहजता लौटने लगी। तभी पाँचवें दिन, जब मैं अपने फाटक पर खड़ा हुआ सामने सवारियों और पैदल राहगीरों के निरंकुश आवागमन को देख रहा था, मैंने सड़क पर उस बूढ़े को ऐंड़े-बैंड़े चलते हुए पाया। वह मेरे सामने से निकला जा रहा था।
वह पिए हुए हो सकता था, पर मुझे न जाने क्यों यक़ीन था कि था नहीं। पर बदहाल तो था ही। फिर भी मैंने राहत की साँस ली : वह ज़िंदा था.
अपनी कहानियों के बारे में श्रीलाल शुक्लकहानियाँ मैंने बहुत कम लिखी हैं। 1945-47 की चार कहानियों को छोड़कर 1955 से 2000 तक मैंने तीस से ज्यादा नहीं लिखी होंगी। इसका कारण मेरी रचनात्मक प्रवृत्ति तो थी ही, शायद यह तथ्य भी था कि अपने लेखन के पूर्वार्ध में मेरी अधिसंख्य कहानियाँ व्यंग्यपरक थीं, जिनको मुख्य धारा की कहानियों में सामान्यत: नहीं गिना जाता।
'यह घर मेरा नहीं' 1961 की है। उसके बाद 1963 में एकाध अपवादों को छोड़कर मैंने अगली कहानी 'छुट्टियाँ' 1978 में लिखी। 1983 के बाद का समय कहानी की दृष्टि से मेरे लिए काफी उर्वर रहा है। 1956-57 से लगभग बीस वर्ष का समय हिंदी में अनेक रूपों वाले कहानी- आंदोलनों का रहा है। निस्संदेह इस अवधि में विभिन्न साहित्यिक संप्रदायों के और कुछ संप्रदायहीन लेखकों ने हिंदी कहानी को विशिष्टता दी। इतना ही नहीं, उन्होंने कहानी संबंधी 'पालेमिक्स' को भी •ाोरदार उछाल दिया। कभी- कभी मैं सोचता हूँ कि उन दिनों कहानी विधा के प्रति मेरी उदासीनता का कहीं यही कारण तो न था कि मैं उस साहित्यिक घमासान में कूदने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। यह तो निश्चित है कि गत शताब्दी के आठवें दशक के आते- जाते हिंदी में कहानी- लेखन कहानी के आंदोलनों को भुलाकर अपना सहज कर्म, यानी कहानी- लेखन करने लगे थे। अगर उसके बाद मैं भी, अपनी सीमाओं के बावजदू, नए सिरे से कहानी के प्रति उन्मुख हुआ तो शायद इसीलिए कि अब कहानी के मैदान में 'नई- समांतर- सचेतन- सहज' का मोटा लबादा उतारकर मुक्त रूप से साँस ली जा सकती थी। इस अवधि में यदि हिंदी में सशक्त कहानी- लेखकों की एक पूरी पीढ़ी उभरकर आई तो शायद इस बदले वातावरण का भी इसमें कुछ योग रहा है।
व्यंग्य के नाम पर, या सच तो यह है कि किसी भी विधा के नाम पर पत्र-पत्रिकाओं के लिए जल्दबाजी में आएँ-बायँ-शायँ लिखने का जो चलन है, उसके अंतर्गत कुछ दिन पहले मैंने एक निबंध लिखा था। वह एक पाक्षिक पत्रिका में ‘हास्य-व्यंग्य’ के स्तंभ के लिए था। हल्केपन के बावजूद उसे लिखते-लिखते मैं गंभीर हो गया था (बक़ौल फ़िराक़, ‘जब पी चुके शराब तो संजीदा हो गए’) यानी, इस निबंध से ‘शायँ’ ग़ायब हो गई थी, सिर्फ ‘आयँ-बायँ’ बची थी।
‘आयँ-बायँ’ की प्रेरणा शहर के एक बहुत बड़े दार्शनिक ने दी थी जो उतने ही बड़े कवि और कथाकार भी थे परंतु वास्तव में प्रेरणा उन्होंने नहीं, उनकी मौत ने दी थी। वे एक सड़क दुर्घटना में घायल हो गए थे। एक सप्ताह तक अस्पताल और घर की सेवा अपसेवा के बीच झूलते हुए उनकी मृत्यु हो गई। उनके बेटे को पता था कि वे ऊँचे दर्जे के विद्वान हैं, पर उनके प्रशंसकों और मित्रों के नाम का उसे पता न था। इसलिए उसने एक अखबार के दफ्तर को छोड़कर-जो उतना ही गुमनाम था-दो-चार गिने-चुने रिश्तेदारों को ही उनके न रहने की खबर दी और वहीं आठ-दस लोग मिलकर उनका दाह-संस्कार कर आए। बाद में उनके देहांत की खबर फैली और तब अखबारों में विद्वानों के प्रति समाज की उपेक्षा पर जमकर लिखा गया, यह और बात है कि उनकी मृत्यु और उसके अवसादपूर्ण कारणों पर तब भी ज़्यादा नहीं लिखा गया।
स्थिति अवसादपूर्ण थी, इसमें शक नहीं, पर मुझ जैसे लेखक को, जो अपने यथार्थ-बोध और भावुकता-विरोध के लिए विख्यात है, इससे क्या लेना-देना ? मुझे ‘आयँ-बायँ’ यानी हास्य-व्यंग्य के लिए यह बहुत वाजिब जान पड़ा और एक दिन मैंने चार बजे शाम तक छत के ऊपर बने हुए अध्ययन कक्ष में एक टिप्पणी लिख डाली।
जो मैंने लिखा, वह भविष्य में मरने वालों को संबोधित था। उसका सारांश था: ‘ऊँचे नेताओं, व्यवसायियों, उद्योगपतियों और अफसरों के मरने पर उनकी शवयात्रा में जनसंख्या की कमी नहीं रहती। उनके पीछे अनगिनत संस्थाएँ और प्रतिष्ठान भीड़ मुहैया करा देते हैं, या खुद भीड़ बन जाते हैं। पर मामूली लोगों जिनमें लेखक, कलाकार नट, विट, गायक आदि शामिल हैं-को यह सुविधा नहीं मिलती। उनकी शवयात्रा में चलने वाले गिने-चुने ही होते हैं। अत: अगर आप चाहते हैं कि आपकी शवयात्रा धूमधाम से संपन्न हो तो आपको मरने से काफी पहले एक विशेष प्रकार का जनसंपर्क चलाना पड़ेगा। वरना अखबार, टी.वी. रेडियो आदि का तो ज़िक्र ही क्या, आपका पड़ोसी तक आपका-यानी आपके मरने का नोटिस न लेगा और बाद में कहता सुना जाएगा, ‘बड़े अफसोस की बात है ! पर क्या बताएँ, मुझे पता ही नहीं चला !’
‘यह भी याद रखना चाहिए कि भरी-पूरी शवयात्रा के लिए बहुत बासी जनसंपर्क काम न देगा, लोग भूल जाते हैं या मरकर एक अजनबी पीढ़ी छोड़ जाते हैं। जनसंपर्क का अभियान अपने मरने से कोई दो साल पहले चला सकें तो अधिक गुणकारी होगा।’
जनसंपर्क के मैंने कुछ नुस्खे भी सुझाए थे: ‘दूसरों की शवयात्राओं में ज़्यादा से ज़्यादा हिस्सा लेना शुरू कर दें, किसी आध्यात्मिक, धार्मिक या सांप्रदायिक संगठन की सदस्यता ले लें, किसी शिक्षा-संस्था के प्रबंध मंडल में घुस जाए (ताकि कई अध्यापक और कुछ विद्यार्थी ऐन मौके पर उपलब्ध रहें), अपनी जाति के किन्हीं ऐसे उद्धार-कार्यक्रमों में खप जाएँ तो हर जाति में हर वक्त चलते ही रहते हैं...आदि-आदि !
‘सारांश यह कि मुर्दा हालत में अगर आपको भीड़ की दरकार है तो जिंदा हालत में भी आपको भीड़ से रब्तोज़ब्त रखनी पड़ेगी।’
ऐसा लिख चुकने पर, एक बडे लेखक के साथ जैसा कि होना चाहिए मैं अपने से कुछ असंतुष्ट और साथ ही, कुछ हद तक आत्ममुग्ध होकर छत पर टहलता रहा। बाद में एक मुँडेर के पास आकर खड़ा हो गया और अपने मकान के सामने से निकलने वाली अतिव्यस्त और काफ़ी अस्त-व्यस्त सड़क को देखता रहा। तभी सड़क के किसी गड्ढे में किसी गाड़ी के गिरने और उभरने की ‘भड़-भड़ भड़ाम’ सुनाई दी और गाड़ी के ब्रेक की चिहुँक भी। इसी के साथ हल्की धूप में एक साया-सा उतराया और ग़ायब हो गया। फाटक पर मेरा नौकर खड़ा था, उसने ज़ोर से आवाज़ लगाई और सड़क की ओर दौड़ा। एक दुर्घटना हो गई थी।
एक बूढा आदमी किसी तेज़ रफ़्तार टैपों की चपेट में आ गया था। सात सवारियों वाली इस तिपहिया गाड़ी ने उसे बगली धक्का मारकर उछाला और वह पक्की सड़क से विस्थापित होकर, हवा में तैरता-सा मेरे घर की चहारदीवारी के पास आ गिरा। तत्काल वे सभी दृश्य-श्रव्य जो सड़क दुर्घटनाओं से जुड़े होते हैं एक साथ दिखाई-सुनाई देने लगे। बूढ़े के आसपास भीड़ जमा हो गई। टैंपों का ड्राइवर जो दो-चार सेकेंड के लिए रुका था, पहले ही गाड़ी भगाता हुआ आँख-ओझल हो गया था।
‘‘क्या हुआ ?’’ क्या हुआ ?’’ मैं छत से पुकार रहा था पर दौड़कर नीचे नहीं आ पाया। एक तो भागदौड़ का तरीका मुझे धीरोदात्त आचरण के विपरीत जान पड़ता है दूसरे सच तो यह है-मुझे दुर्घटनाओं से घबराहट होती है, घायल आदमी को मैं देख नहीं सकता। ख़ून देखते ही मेरा सिर चकराने लगता है। जो ऐसे दृश्यों को आसानी से झेल लेता है वह एक तरह से मानव की आदिम संस्कृति में वापस लौटता है। यह प्रवृत्ति उन उदात्त संस्कारों के विरुद्ध है जो शताब्दियों की सभ्यता ने हम जैसों में परिपुष्ट किए हैं। पर तभी एक विचित्र घटना हुई जिसने मुझे तेज़ी से नीचे आने के लिए मजबूर कर दिया।
मैंने देखा कि कुछ लोगों ने इसी बीच बहुत सँभालकर बूढ़े को अपने हाथों में ले लिया है और जब मैं उम्मीद कर रहा था कि वे किसी गाड़ी में लिटा कर अस्पताल ले जाएँगे, वे उसे उठाकर मेरे फाटक के सामने लाए, उसके बाद उन्होंने बड़ी कोमलता से फाटक के ठीक आगे लिटा दिया। यह देखकर नीचे से मेरे नौकर ने और छत से मैंने विरोध की आवाज़ उठाई और मैं तेज़ी से फाटक के पास पहुँच गया। तब तक वे लोग बूढ़े को फाटक के पास छोड़कर ग़ायब हो गए थे। आसपास दस-ग्यारह छोकरे, कुछ औरतें और बूढ़े भर रह गए थे। मुझसे हमदर्दी जताई जाने लगी, कोई अपने आप से कह रहा था, ‘ऐसा नहीं करना चाहिए था।’ यह एक चालू और निरर्थक वक्तव्य है जिसे सुनने के लिए कहीं भी आपको लंबी यात्रा करने की ज़रूरत नहीं है।
बूढ़े के जिस्म में कोई हरकत नहीं हो रही थी, पता नहीं कि बेहोश था या मुर्दा। पर भयानक होते हुए भी यह दृश्य मुझे उतना भयानक नहीं दीखा क्योंकि उसकी देह पर कोई घाव नहीं था, न कहीं ख़ून ही दिखाई दे रहा था। इतना ज़रूर है कि उसकी पतलून के सामने का हिस्सा गीला था, पर घबराहट मुझे ख़ून से होती है, पानी से नहीं।
‘‘आप लोग यहीं रुकें, मैं पुलिस को फोन करके आता हूँ,’’ मैंने कहा और कई कदमों को एक में समेटता हुआ मैं अपने सुपरिचित बैठकखाने में आ गया। कुछ सुकून मिला और जाने-बूझे माहौल में पुलिस को फ़ोन करते वक़्त मुझे ज़्यादा उलझन नहीं हुई।
कौन कहता है कि पुलिस का कोई भरोसा नहीं ? मैंने पुलिस कंट्रोल रूम को फोन किया और पाँच मिनट के भीतर ही पुलिस का एक सचल दस्ता मेरे दरवाज़े पर हाज़िर था। यह और बात है कि जब तक वे आ नहीं गए और नौकर ने मुझे उनके आने की ख़बर नहीं दे दी, मैं घर के अंदर ही बना रहा-बाहर निकलता भी तो क्या कर लेता ?
पुलिस के आने से मुझे दोहरी खुशी हुई एक तो यह कि बूढ़े के बारे में मेरी जिम्मेदारी ख़त्म हुई, दूसरे इसलिए कि बची-खुची भीड़ और मुहल्लेवालों की नज़र में निश्चय ही मेरी साख बढ़ी। उन्होंने देख लिया कि मेरे टेलीफ़ोन घुमाते ही कैसे पूरा पुलिस दस्ता-एक नायब दारोग़ा, एक हेडकांस्टेबुल और तीन सिपाही-मेरे दरवाज़े पर है बूढ़ा अब भी किसी जिस्मानी हरकत के बिना फाटक के सामने पड़ा था। पुलिस की मौजूदगी का असर देखिए कि जो उसे मेरे फाटक के पास छोड़ गए थे, उनके ख़िलाफ़ मेरे मन में अब पहले जैसी कड़ुवाहट नहीं बची थी। बूढ़े के लिए चिंता ज़रूर थी पर यह चिंता भी शायद इस एहसास की उपज थी कि पूरे घटना-चक्र में मुझे अब एक महत्व की भूमिका निभानी है। तभी मैंने हेडकांस्टेबुल से कहा, ‘‘कृपया पूछताछ में वक़्त न बरबाद करें। पूछताछ तो बाद में भी हो सकती है, पहले इसे अस्पताल ले जाएँ। क्या पता, बच ही जाए।
वास्तव में पुलिस ने आते ही बूढ़े की ओर तो बाद में देखा, एकदम से पूछताछ शुरू कर दी थी। कोई जानता है कि यह कौन है ? इसका क्या नाम है ? दुर्घटना कैसे हुई ? तुममें से कोई मौक़े पर था ? टैपों का नंबर ? किसी एक को भी नंबर याद नहीं ? तब तुम साले यहाँ क्या कर रहे थे ? टैपों ने फाटक पर आकर कैसे टक्कर मारी ? उधर मारी ? उस जगह ? तो लाश फाटक पर कैसे आ गई ? वे कौन हरामी के पिल्ले थे जो इसे फाटक पर खींच लाए ?
प्रश्नोत्तर-काल में घटना की बेहूदगियाँ जैसे-जैसे खुलती जातीं, उसी अनुपात से पुलिसवालों की गालियाँ भी तीखी होती जा रही थीं। हैरत की बात कि उन पर मेरी बात से ठंडे पानी का छींटा पड़ा। पता नहीं क्यों, वे मुझसे पुलिस की तरह नहीं, सभ्य पुरुषों की तरह बात कर रहे थे। इसका कारण मैं बाद में सोच पाया: शायद इसलिए कि मैं साफ-सुथरा कुर्ता और पायजामा पहने था ! उनकी निगाह में मेरा अपरिचय इज़्ज़त का हकदार था : क्या पता कोई अज्ञात नायक हो ? या कोई प्रभामंडित महान् खलनायक ?
नायब दारोग़ा ने पहली बार मुँह खोला, ‘‘फ़िक्र न करें, बच जाएगा।’’
बूढ़े के मुँह पर पहले ही पानी के छींटे मारे जा चुके थे। कोई नतीजा नहीं निकला था। अब नायब दारोग़ा से शह जैसी पाकर हेडकास्टेबुल बूढ़े के निश्चल शरीर के पास आया। उसने बूट की नोक उसकी पसलियों में गड़ाई और कहा, ‘‘क्या नाम है तुम्हारा ?’’
कोई जवाब नहीं। तब पैर छोड़कर उसने हाथ का सहारा लिया बूढ़े की नाड़ी पकड़ी, कहा, ‘‘मरा नहीं है।’’ सिपाहियों से उसने कहा, ‘ले चलो....रामनगर अस्पताल।’
सिपाहियों ने अभ्यस्त मुद्रा से भीड़ में खड़े हुए दो रिक्शावालों को चुना, उनसे कहा, ‘इसे उठाकर जीप पर रखो..सीट पर नहीं, नीचे..अबे नीचे, फ़र्श पर..।’’
जैसे वे अपने गाँव का घर, बटाई पर लिया खेत, खलिहान, नीम का पेड़ छोड़कर शहर यही सुनने, यही करने आए थे, उन्होंने यह सुना यही किया।
अभी कुछ आशाप्रद भी होना बाकी था। हेडकांस्टेबुल ने फर्श पर पड़े हुए बूढ़े को झिड़ककर कहा, ‘‘बैठ जा।’’ इसका भी कोई असर नहीं हुआ। तब उसने बूढ़े को गर्दन का सहारा देकर बैठाया कहा, ‘‘बैठ, बैठा रह !’’ इस बार उसकी पलकों में कुछ हरकत हुई, मुँह से हल्की-सी कराह निकली। पर वह हेडकांस्टेबुल के हुक्म की तामील नहीं कर पाया; ढीले जिस्म से फ़र्श पर पसर गया।
‘‘रामनगर के अस्पताल मत ले जाइए, वहाँ की आपात सेवाओं का भरोसा नहीं। मेडिकल कॉलेज के अस्पताल में ले जाएँ। वहाँ...।’’
नायब दारोग़ा का धीरज जवाब देने लगा। उसने मेरी बात बीच में ही काट दी, कहा, ‘‘आप अपना काम कर चुके, अब हमें अपना काम करने दें।’’
दूसरे दिन सूर्योदय से पहले ‘जीर्णाजीर्ण’ पर विचार करते हुए शय्या-त्याग, उष:पान, चाय-पान, मल-मूत्र विसर्जन, दंतधावन, आसन-प्राणायाम-व्यायाम, समाचार-मंथन, प्रातराश उर्फ़ सूक्ष्माहार। इन क्रियाओं के बाद मेरे असली कर्म की शुरुआत होनी थी : मरणहीन गद्य की रचना, साहित्य-साधना।
पर मन में कुछ कुरेद रहा था, लग रहा था कि आज कुछ और करना है। क्या अस्पताल जाकर उस बूढ़े की हालत का पता लगाना ही इस अनमनेपन का अभीष्ट है ? हो सकता है। तब फिर क्या मेरा अस्पताल जाना ज़रूरी नहीं है ? है भी और नहीं भी। है इसलिए कि अगर वह ज़िंदा हो और उसकी कुछ ज़रूरतें हों तो अपने साधन और सामर्थ्य को नज़रअंदाज़ किए बिना उनकी पूर्ति की जा सके। उधर ‘नहीं भी’ के पीछे भी कई तर्क थे। एक घटना थी, ख़त्म हुई। अब मुझे हिलगे रहने की क्या ज़रूरत ? फिर, बिलावजह एक अजनबी आदमी का हालचाल लेने के लिए अस्पतालों के वैरपूर्ण वातावरण में चक्कर काटना क्या नाटकीय न लगेगा ?
पर ‘नाटकीय’ ने ही फ़ैसला कर दिया। मैं नाटकीयता के ख़िलाफ़ हूँ, पर कोई मेरे किसी कार्य को नाटकीय समझे या अख़बारों में उसे नाटकीय बनाकर प्रस्तुत करे, तो क्या नाटकीयता के आरोप से भयभीत होकर मुझे उससे विरत हो जाना चाहिए-ख़ास तौर से तब जब कि मैं शुद्ध मानवीय भावना से प्रेरित होकर कुछ करने जा रहा हूँ ?
मैं जानता था कि पुलिस बूढ़े को मेडिकल कॉलेज नहीं ले जाएगी। इसलिए मैं रामनगर अस्पताल गया। वहाँ काफ़ी देर मेरे मरीज़ का पता नहीं चला। जिसका कोई नाम नहीं, उसका पता कैसा ? फिर, कल सारे डॉक्टर हड़ताल पर थे। (किसी दूसरे अस्पताल में किसी मरीज़ ने किसी डॉक्टर को झापड़ मार दिया था। किसी ने उसकी मदद नहीं की थी, न जवाबी तौर पर कोई मरीज़ को पीटने के लिए आगे बढ़ा था। प्रशासन तटस्थ रहा था-‘क़ानून तोड़ा गया है तो क़ानून ख़ुद अपना रास्ता तय करेगा’ के सिद्धांत के अंतर्गत। यह हड़ताल उसी गतिरोध के ख़िलाफ़ सिर्फ़ प्रतीकात्मक रूप में एक दिन के लिए थी।) आज डॉक्टरों की हड़ताल नहीं थी, फिर भी रामनगर अस्पताल में हड़ताल का ख़ुमार बाक़ी था, अधिकांश डॉक्टर ड्यूटी पर नहीं आए थे।
मैं पूछता रहा: एक बूढ़ा इमरजेंसी में लाया गया था-दुर्घटना का मामला था। उसे पुलिस लाई थी। अब कैसा है ? कहां है ? किसी वार्ड में ? या शवगृह में ?
बड़ी दौड़-धूप और पूछताछ के बाद एक नर्स ने बताया : न वह किसी वार्ड में है, न शवगृह में।
नर्स ने कहा, ‘वे उसे कल यहाँ इमरजेंसी में लाए थे। मैंने कहा कि सारे डॉक्टर हड़ताल पर हैं, मरीज़ को भर्ती नहीं किया जा सकता। पुलिसवाले बोले, ‘ठीक है।’ इसके बाद वे ख़ुद मरीज़ को स्ट्रेचर पर लादकर अंदर लाए, इमरजेंसी वार्ड में एक बेड पर डाल दिया। दारोगा ने मुझसे कहा, ‘सॉरी सिस्टर, हम कुछ नहीं कर सकते, जो करना है तुम ख़ुद करो। एक मोटर ने इसे उछालकर सड़क के किनारे फेंक दिया था। पता नहीं कितनी चोट आई है। पर इतना तय है कि अभी उसकी साँस चल रही है। मैं कुछ बोलती, इसके पहले ही वे गाड़ी स्टार्ट करके चल दिए। मैं उनसे मरीज़ का नाम और पता भी नहीं पूछ सकी।’’
मैंने नर्स को समझाया कि वह पूछ लेती तब भी कोई नतीजा न निकलता।
‘‘मैंने मरीज़ को अपने हिसाब से जाँचा-परखा। लगा कि कोई खास चोट नहीं है। सदमा भर है। पर बिना डॉक्टरी जाँच-पड़ताल के ऐसी राय बना लेना भी खतरे का काम है। हो सकता है कि उसके दिमाग़ में अंदरूनी चोट आई हो, भीतर ही भीतर ख़ून बहा हो ! वैसे डॉक्टर होते, तब भी यह जानने में दिक़्क़त आती। यहाँ न कोई न्यूरोलॉजिस्ट है, न न्यूरोसर्जन, कैट्स स्कैन की मशीन भी नहीं..।
‘‘धीरे-धीरे उसने कराहना शुरू किया। आधी रात होते-होते वह पूरी तौर से होश में था। उसने चाय माँगी, मैं खुद चाय पी रही थी। कहीं और से चाय मिलनी मुश्किल थी। मैंने अपने प्याले से ही कुछ घूँट निकालकर उसे दिए। उसने पिया, कहा, ‘थैंक्यू’ और सो गया।
‘‘मैं भी सो गई।
‘‘बहुत सवेरे देखा, उसकी चारपाई ख़ाली थी वह जा चुका था।’’
नर्स ने आँखें फैलाकर कहा, ‘‘उसने बड़े जोख़िम का काम किया है।’’
श्रेष्ठता की कसौटी को लेकर हमारे साहित्य में रचनाकारों और आलोचकों के दो-तीन बड़े मज़बूत और सुपरिचित खेमे हैं, इनकी मान्यताएँ और दृष्टियाँ अत्यंत सुपरिभाषित हैं और अपने को एक-दूसरे से भिन्न मानने में ही उनकी सैद्धांतिक सार्थकता समझी जाती है, पर एक मामले में दोनों खेमों के सदस्य एक जैसे हैं। वे एक ओर भावुकता-विरोध को एक स्वत: सिद्ध मूल्य मानते हैं और दूसरी ओर अकेले में वे सभी भावुक होने की अपार क्षमता दिखा सकते हैं-सब नहीं तो अधिकांश। उन्हीं अधिकांश में एक मैं भी हूँ।
तभी उस बूढ़े के प्रसंग को बहुत कोशिश करके भी दिमाग़ से ख़ारिज नहीं कर पा रहा था। फाटक पर करवट के बल पड़ा हुआ उसका निश्चेष्ट शरीर, जिसे बुढ़ापे ने सब तरफ़ से बरबाद कर रखा था, दूर-दूर पड़ी रबर की दो घिसी चप्पलें, सामने से गीली मटमैली पतलून-सब कुछ दयनीय होते हुए भी मेरी कल्पना में ये किसी प्रेतछाया के से आतंक के साथ मौजूद थीं। मैं यह भी सोचा करता था कि वह अस्पताल से घिसटकर बाहर आ गया है और सड़क के किनारे किसी झाड़ी में पड़ा हुआ दम तोड़ चुका है या तोड़ रहा है।
मेरा मन व्याकुल था, दो दिन व्याकुल रहा। तीसरे दिन भावुकता चुकने लगी, चौथे दिन चुक गई, आहार-निद्रा भय आदि में ज़िंदगी की सहजता लौटने लगी। तभी पाँचवें दिन, जब मैं अपने फाटक पर खड़ा हुआ सामने सवारियों और पैदल राहगीरों के निरंकुश आवागमन को देख रहा था, मैंने सड़क पर उस बूढ़े को ऐंड़े-बैंड़े चलते हुए पाया। वह मेरे सामने से निकला जा रहा था।
वह पिए हुए हो सकता था, पर मुझे न जाने क्यों यक़ीन था कि था नहीं। पर बदहाल तो था ही। फिर भी मैंने राहत की साँस ली : वह ज़िंदा था.
अपनी कहानियों के बारे में श्रीलाल शुक्लकहानियाँ मैंने बहुत कम लिखी हैं। 1945-47 की चार कहानियों को छोड़कर 1955 से 2000 तक मैंने तीस से ज्यादा नहीं लिखी होंगी। इसका कारण मेरी रचनात्मक प्रवृत्ति तो थी ही, शायद यह तथ्य भी था कि अपने लेखन के पूर्वार्ध में मेरी अधिसंख्य कहानियाँ व्यंग्यपरक थीं, जिनको मुख्य धारा की कहानियों में सामान्यत: नहीं गिना जाता।
'यह घर मेरा नहीं' 1961 की है। उसके बाद 1963 में एकाध अपवादों को छोड़कर मैंने अगली कहानी 'छुट्टियाँ' 1978 में लिखी। 1983 के बाद का समय कहानी की दृष्टि से मेरे लिए काफी उर्वर रहा है। 1956-57 से लगभग बीस वर्ष का समय हिंदी में अनेक रूपों वाले कहानी- आंदोलनों का रहा है। निस्संदेह इस अवधि में विभिन्न साहित्यिक संप्रदायों के और कुछ संप्रदायहीन लेखकों ने हिंदी कहानी को विशिष्टता दी। इतना ही नहीं, उन्होंने कहानी संबंधी 'पालेमिक्स' को भी •ाोरदार उछाल दिया। कभी- कभी मैं सोचता हूँ कि उन दिनों कहानी विधा के प्रति मेरी उदासीनता का कहीं यही कारण तो न था कि मैं उस साहित्यिक घमासान में कूदने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। यह तो निश्चित है कि गत शताब्दी के आठवें दशक के आते- जाते हिंदी में कहानी- लेखन कहानी के आंदोलनों को भुलाकर अपना सहज कर्म, यानी कहानी- लेखन करने लगे थे। अगर उसके बाद मैं भी, अपनी सीमाओं के बावजदू, नए सिरे से कहानी के प्रति उन्मुख हुआ तो शायद इसीलिए कि अब कहानी के मैदान में 'नई- समांतर- सचेतन- सहज' का मोटा लबादा उतारकर मुक्त रूप से साँस ली जा सकती थी। इस अवधि में यदि हिंदी में सशक्त कहानी- लेखकों की एक पूरी पीढ़ी उभरकर आई तो शायद इस बदले वातावरण का भी इसमें कुछ योग रहा है।
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