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Nov 10, 2011

राग दरबारी एक गाँव की कथा

- रवीन्द्रनाथ त्यागी
कथावस्तु और लक्ष्य वगैरहा को छोड़ भी दें तो भी राग दरबारी अपने में एक उत्कृष्ट कृति है। वह हिन्दी हास्य व्यंग्य का पहला क्लासिक है। फसानए आजाद की तरह वह हर वाक्य में एक लतीफा छिपाए है, फर्क इतना है कि फसानए आजाद में हास्य ज्यादा है और राग दरबारी में व्यंग्य ज्यादा।
मैं उन बेवकूफों में से हूं जो राग दरबारी नाम की किताब की तारीफ उन दिनों भी करते थे जब कि उसे साहित्य अकादमी का पुरस्कार नहीं प्राप्त हुआ था। सारे प्रयाग में उपेन्द्रनाथ अश्क और मैं शायद दो ऐसे व्यक्ति थे जो हर नदी नाले पर इस किताब की तारीफ के पुल बांधते थे। हमारी इन हरकतों से कुछ लोग काफी दुखी थे। दूधनाथ सिंह को इस बात का बड़ा दुख था कि इतनी अच्छी किताब एक सरकारी अफसर क्यों लिख गया? एक और गुरु थे जो अपने शिष्य को अपने से आगे बढ़ता देख शोक की अग्नि में बड़ी शराफत और संयत के साथ जले जा रहे थे। काफी हाउस में एक समयसिद्ध लेखक पूछ रहे थे कि यह राग दरबारी क्या वस्तु है? जब उन्हें सूचना दी गई कि यह एक उपन्यास है जिसे श्रीलाल शुक्ल ने लिखा है तो वे पूछने लगे कि ये श्रीलाल शुक्ल कौन है? इसके बाद श्रीपतराय ने 'कथा' में इसकी काफी परिश्रम के साथ बुराई की और इसे भयंकर ऊब का महागं्रथ घोषित किया। सरकार का निकम्मापन देखिए कि इस सबसे बावजूद इसे अकादमी पुरस्कार दे दिया गया।
राग दरबारी एक विचित्र प्रकार की पुस्तक है। यह उपन्यास भी है, कथा सरित्सागर भी है और अकबर बीरबल विनोद भी है। यह एक गांव की कथा है जिसके माध्यम से आप देश के बाकी हिस्सों का भी अंदाजा लगाते हैं। जैसा कि रुप्पन बाबू फरमाते हैं, सारे देश में यह शिवपालगंज ही तो फैला हुआ है।
एक महानगर के पास बसे इस गांव में आप रंगनाथ नाम के एक व्यक्ति के साथ प्रवेश करते हैं। रंगनाथ बुद्धिजीवी है। वह प्रत्येक पढ़े लिखे भारतीय की तरह अपने से असंबद्ध घटना को घटना ही की तरह देखता है और बाद में उसे भूल जाता है। उसकी बुद्धि उसे आत्मतोष देती है, बहस करने की तमीज सिखाती है, दूसरों को क्या करना चाहिए और क्या न करना चाहिए- इस पर भाषण कराती है और इस संदर्भ के मामले में उनकी अपनी क्या जिम्मेदारी है- इस बेहूदा विचार से उसको कोसों दूर रखती है।
गांव के नेता एक वैद्यजी हैं। वे पगड़ी बांधते हैं, मुंछें रखते हैं, भंग छानते हैं, पैसा गबन करते हैं, बोलचाल में शुद्ध शास्त्रीय हिन्दी का प्रयोग करते हैं और सारा काम करटक और दमनक की तर नीति से करते हैं। वे किसी को नाखुश नहीं करते, किसी का अपमान नहीं करते, सारा काम कायदे कानून से करते हैं मगर कुछ इत्तेफाक ऐसा है कि जो कुछ करते हैं वह हरामीपन और कमीनगी से भरा होता है। वे आधुनिक नेतागिरी के साक्षात प्रतीक हैं। इसके बाद सिर्फ यह कहना बचता है कि खुदा हर जगह अपने गधों को जलेबियां खिला रहा है और हर एक शाख पर एक- न- एक उल्लू बैठा जरूर है। वैद्यजी के कारण वह सारी राजनीति उस गांव में खेली जा रही है जिसके कारण बड़े- बड़े निगम और आयोग उठते हैं और गिरते हैं। वहीं दांवपेंच और पैंतरेबाजी जो और जगह लोगों को मंत्री बनाती है वह यहां कच्चेे माल के रूप में इफरात से फैली पड़ी है।
गांव की इसी राजनीति का चित्रण एक इंटर कालेज के माध्यम से करना इस पुस्तक की प्रमुख कथावस्तु है। मगर जरूरी चीज कथावस्तु नहीं है- लेखक के बड़े लक्ष्य के सामने वह गौण हो जाती है। अपने पात्रों के माध्यम से वह जिस तरह सारी स्थिति का पर्दाफाश करता है वह साहित्य में एक बड़ी उपलब्धि है।
कथावस्तु और लक्ष्य वगैरहा को छोड़ भी दें तो भी राग दरबारी अपने में एक उत्कृष्ट कृति है। वह हिन्दी हास्य व्यंग्य का पहला क्लासिक है। फसानए आजाद की तरह वह हर वाक्य में एक लतीफा छिपाए है, फर्क इतना है कि फसानए आजाद में हास्य ज्यादा है और राग दरबारी में व्यंग्य ज्यादा। जहां तक शिल्प और भाषा वगैरहा का प्रश्न है, यह काफी संयमित और सुगठित गद्य का नमूना पेश करती है। हिन्दी गद्य में इतना अनुशासन बहुत कम देखने को मिलता है। कितनी काट- छांट श्रीलाल शुक्ल ने की होगी- इसका अंदाजा लगाना कठिन है।
अगर किताब में कुछ कमियां न बताई गर्इं तो आप लोग मेरी नीयत पर शक करेंगे। किताब में कुछ खामियां भी हैं। पहली बात तो यह कि पुस्तक एकदम निराशावादी है। सारे गांव में लगंड़ के अलावा कोई और ईमानदार इंसान नहीं है और लगंड़ जो है वह 'दो नगरों की कथा' में स्वेटर बुनने वाली स्त्री की तरह पाश्र्व में हमेशा रोता ही रहता है। सब कुछ होने के बावजूद गांव में या शहर में शराफत बची ही न हो- यह कम से कम मैं नहीं मान सकता क्योंकि मैं खुद अपने को भी काफी शरीफ इंसान समझता हूं। प्रकाशचंद गुप्त ने एक बार मुझसे राग दरबारी की तुलना में मिसमेयो की मदर इंडिया का नाम लिया था जिसे गांधी जी ने डे्रन इंसपेक्टर की रिपोर्ट करार किया था। दूसरी कमी है किताब में मलमूत्र का इतना ज्यादा प्रयोग। श्रीलाल शुक्ल ने इस दिशाकर्म में कुछ अति की है जिसके बारे में सुमित्रानंदन पंत भी एक दिन दबी जुबान में मुझसे कुछ कह रहे थे। किताब में हर पेज पर कहीं कोई तीतर लड़ाने की मुद्रा में बैठा है, कहीं कोई पतलून खोलकर पानी गिरा रहा है, या ठोस द्रव और गैस का उत्पादन कर रहा है। इस संदर्भ में श्रीलाल कहते हैं कि सच्चा हिन्दुस्तानी वही है जो कहीं भी पान खाने का इंतजाम कर ले और कहीं भी पेशाब करने की जगह ढूंढ ले। पुस्तक की तीसरी कमी है कि वह इन्टर कालेज के छोटे कैनवास पर जरूरत से ज्यादा घूमती है। दरबार का एक छोटा टुकड़ा ही किताब में पकड़ा गया, हालांकि उस पर ही पूरा राग बन गया। आखिरी कमी किताब की यह है कि हम लोगों के रहते श्रीलाल शुक्ल को इतनी अच्छी किताब लिखने का कोई हक नहीं था। एक बात शायद यह भी कहने लायक है कि राजनीति में दांवपेंचों की पकड़ में वे परसाई से पीछे पड़ते हैं। (व्यंग्य यात्रा: अक्टूबर- दिसंबर 2008 से साभार)

संपर्क -अशोक त्यागी, 7908 डीएलएफ, फेज-4, गुडग़ांव- 122002

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