साहित्य अकादमी पुरस्कार के अवसर पर दिया गया उनका लेखकीय वक्तव्य
मुझसे मेरे साहित्यिक कॅरियर और विचारों पर एक लेख देने को कहा गया है। विचार मांगे जाने में यह पूर्व मान्यता निहित है कि (साहित्य) अकादमी पुरस्कार विजेता लेखक कुछ वैसा करने में सक्षम है जिसे हेमिंग्वे 'थिंक पीस' कहते। एक रचनात्मक लेखक के रूप में मुझे चिंतनशील अथवा पांडित्यपूर्ण ध्वनित होने का कोई प्रयास आडंबर लगता है और वह अपनी कमियों के प्रति मेरी जानकारियों में इजाफा भी करता है। रचनात्मक लेखन का एक महान सुख अपने लेखन में दृष्टिकोण के पूर्वअभाव का कोई संदेह जगाए बिना अपने विचारों के बारे में मोहक ढंग से अस्पष्ट रहने में है। इसलिए मैंने दूरदर्शिता और सिद्धांत दोनों दृष्टियों से सदैव यह महसूस किया कि लेखक को भद्र मेमने की भूमिका निभाने और अपने को जिबह किए जाने के काम में इच्छापूर्वक सहयोग देने से यथासंभव बचना चाहिए। लेकिन, यदि पाठकों में मेरे साहित्यिक काम को लेकर कोई जिज्ञासा है तो उसका समाधान मैं अवश्य करना चाहूंगा। यदि किशोरावस्था के अनाचार शुमार न किए जाएं तो साहित्य में मेरे प्रयोग 27 साल की काफी परिपक्व अवस्था से शुरू हुए (सिविल सर्वेंट की हैसियत से मेरा कॅरियर पहले ही शुरू हो गया था)। यह 1953-54 की बात है।
उस समय मैं उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड में राठ नामक परम अविकसित क्षेत्र के एक डाकबंगले में रहता था और एक बैटरी वाला रेडियो, दो राइफलें, एक बंदूक, एक खचड़ा ऑस्टिन, मुट्ठी भर किताबें- ज्यादातर रिप्रिंट सोसायटी के प्रकाशन- एकाध पत्रिकाएं, कभी शिकवा न करने वाली बीवी और दो बहुत छोटे बच्चे, जिन्होंने स्थानीय बोली के सौंदर्य के प्रति उन्मुख होना भर शुरू किया था, यही मेरे सुख के साधन थे। एक दिन, आकाशवाणी के एक नाटक का धुआंधार (जो आकाशवाणी के नाटकों में हमेशा बलबलाता रहता है) झेलने में अपने को बेकाबू पाकर और लगभग हिंसात्मक विद्रोह करते हुए मैंने 'स्वर्णग्राम और वर्षा' नामक लेख लिखा और उसे धर्मवीर भारती को भेज दिया।
आकाशवाणी के उस वर्षा संबंधी नाटक पर मेरी प्रतिक्रिया रेडियो सेट उठाकर पटक देने के मुकाबले कम हानिकर थी। बहरहाल वह लेख छपा 'निकष' में, जो तत्कालीन हिंदी लेखन में एक विशेष स्तर की प्रतिभा के साथ उसी स्तर की स्नॉवरी से जुड़कर निकलने वाला एक नियतकालीन संकलन था। इसके बाद ही भारती से कई जगह पूछा जाने लगा कि श्रीलाल शुक्ल कौन हैं। विजयदेव नारायण साही, धर्मवीर भारती और केशवचंद्र वर्मा पुराने मित्र थे और उस समय तक लेखक के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। इन तीनों ने तय किया कि अब मुझे ऊबे हुए सिविल सर्वेंट की तरह रहना छोड़कर एक लेखक की प्रतिष्ठा के अनुरूप जीवन जीना चाहिए। दफ्तरी भाषा में, मुझे एक मौका दिया गया था, मुझे इसका लाभ उठाने में कोई कसर उठा नहीं रखनी चाहिए - अंग्रेजी की कहावत के अनुसार कोई पत्थर अनपलटा न छोड़ा जाए। जो पहले पत्थर मैंने पलटे वे थे कहानियां। लेकिन जल्दी ही मैं समझ गया कि यह विधा मेरे लिए बड़ी कठिन और श्रमसाध्य है। उस समय के फैशन, जो कुछ हद तक अब भी चलन में हैं, के आधार पर देखा जाए तो कहानी लेखक के काम के लिए जो अहर्ताएं जरूरी थीं, वह थीं- लेखन के साथ- साथ यह दावा करने की अत्यंत मुखर इच्छा कि वह नई जमीन तोड़ रहा है, अपने लेखन के विपणन, समीक्षा और प्रति समीक्षा के बारे में विपुल पत्राचार की क्षमता तथा किसी साहित्यिक आंदोलन का नेतृत्व करने अथवा किसी भी तरह उसमें शामिल होने या उसका विरोध करने की अथवा उससे इस ढंग से दूर रहने की प्रवृत्ति जो अंतत: उसमें शामिल होने या उसका विरोध करने के समान ही हो। संक्षेप में, हिंदी में कहानी लिखने के लिए उस समय जरूरी था ऊर्जा और एक लड़ाकू भावना का सतत प्रदर्शन। मेरे पास ये दोनों पर्याप्त मात्रा में थीं, लेकिन मेरे पेशे में मुझे इनका कम से कम इस्तेमाल करने का प्रशिक्षण दिया गया था।
इसलिए मैंने कहानी के बजाय उपन्यास लिखने शुरू किए और कुछ विनोदपूर्ण लघु रचनाएं भी जो अब लगातार अधिकाधिक अग्रसर होने का खतरा दिखा रही हैं। क्यों? इस सवाल का जवाब तो समीक्षक ही ढूंढ़ सकते हैं। मुझे डींग हांके जा सकने लायक संघर्ष का सामना नहीं करना पड़ा। इसके विपरीत, साहित्य जगत ने प्रोत्साहन, सहृदयता और मुझे लगता है, स्नेह से मुझे स्वीकार किया। अब तक मैंने तीन उपन्यास लिखे हैं- इन सभी को उन्होंने प्रकाशित किया है जो यह जानने के लिए जाने जाते हैं कि प्रकाशन क्या है और सौ से अधिक लेख, कहानियां और रेखाचित्र लिखे हैं जिन्हें प्राय: एक 'व्यंग्यात्मक लेखन' का एक सुविधाजनक नाम दे दिया गया है। इनमें से अधिकांश 1958 तथा 1969 में प्रकाशित मेरे दो संकलनों में आ चुके हैं। मुझे आशा है कि प्रत्यक्षत: मेरी लगभग एक सुव्यवस्थित लेखक की हैसियत है और सभी लेखकों की तरह मैं अनतिदूर भविष्य में एक सचमुच अच्छी किताब लिखने की अपेक्षा करता हूं। किसी दिन मैं कहानी लिखने का दुष्कर काम दोबारा कर सकता हूं या कौन जाने नाटक भी।
उस समय मैं उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड में राठ नामक परम अविकसित क्षेत्र के एक डाकबंगले में रहता था और एक बैटरी वाला रेडियो, दो राइफलें, एक बंदूक, एक खचड़ा ऑस्टिन, मुट्ठी भर किताबें- ज्यादातर रिप्रिंट सोसायटी के प्रकाशन- एकाध पत्रिकाएं, कभी शिकवा न करने वाली बीवी और दो बहुत छोटे बच्चे, जिन्होंने स्थानीय बोली के सौंदर्य के प्रति उन्मुख होना भर शुरू किया था, यही मेरे सुख के साधन थे। एक दिन, आकाशवाणी के एक नाटक का धुआंधार (जो आकाशवाणी के नाटकों में हमेशा बलबलाता रहता है) झेलने में अपने को बेकाबू पाकर और लगभग हिंसात्मक विद्रोह करते हुए मैंने 'स्वर्णग्राम और वर्षा' नामक लेख लिखा और उसे धर्मवीर भारती को भेज दिया।
आकाशवाणी के उस वर्षा संबंधी नाटक पर मेरी प्रतिक्रिया रेडियो सेट उठाकर पटक देने के मुकाबले कम हानिकर थी। बहरहाल वह लेख छपा 'निकष' में, जो तत्कालीन हिंदी लेखन में एक विशेष स्तर की प्रतिभा के साथ उसी स्तर की स्नॉवरी से जुड़कर निकलने वाला एक नियतकालीन संकलन था। इसके बाद ही भारती से कई जगह पूछा जाने लगा कि श्रीलाल शुक्ल कौन हैं। विजयदेव नारायण साही, धर्मवीर भारती और केशवचंद्र वर्मा पुराने मित्र थे और उस समय तक लेखक के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। इन तीनों ने तय किया कि अब मुझे ऊबे हुए सिविल सर्वेंट की तरह रहना छोड़कर एक लेखक की प्रतिष्ठा के अनुरूप जीवन जीना चाहिए। दफ्तरी भाषा में, मुझे एक मौका दिया गया था, मुझे इसका लाभ उठाने में कोई कसर उठा नहीं रखनी चाहिए - अंग्रेजी की कहावत के अनुसार कोई पत्थर अनपलटा न छोड़ा जाए। जो पहले पत्थर मैंने पलटे वे थे कहानियां। लेकिन जल्दी ही मैं समझ गया कि यह विधा मेरे लिए बड़ी कठिन और श्रमसाध्य है। उस समय के फैशन, जो कुछ हद तक अब भी चलन में हैं, के आधार पर देखा जाए तो कहानी लेखक के काम के लिए जो अहर्ताएं जरूरी थीं, वह थीं- लेखन के साथ- साथ यह दावा करने की अत्यंत मुखर इच्छा कि वह नई जमीन तोड़ रहा है, अपने लेखन के विपणन, समीक्षा और प्रति समीक्षा के बारे में विपुल पत्राचार की क्षमता तथा किसी साहित्यिक आंदोलन का नेतृत्व करने अथवा किसी भी तरह उसमें शामिल होने या उसका विरोध करने की अथवा उससे इस ढंग से दूर रहने की प्रवृत्ति जो अंतत: उसमें शामिल होने या उसका विरोध करने के समान ही हो। संक्षेप में, हिंदी में कहानी लिखने के लिए उस समय जरूरी था ऊर्जा और एक लड़ाकू भावना का सतत प्रदर्शन। मेरे पास ये दोनों पर्याप्त मात्रा में थीं, लेकिन मेरे पेशे में मुझे इनका कम से कम इस्तेमाल करने का प्रशिक्षण दिया गया था।
इसलिए मैंने कहानी के बजाय उपन्यास लिखने शुरू किए और कुछ विनोदपूर्ण लघु रचनाएं भी जो अब लगातार अधिकाधिक अग्रसर होने का खतरा दिखा रही हैं। क्यों? इस सवाल का जवाब तो समीक्षक ही ढूंढ़ सकते हैं। मुझे डींग हांके जा सकने लायक संघर्ष का सामना नहीं करना पड़ा। इसके विपरीत, साहित्य जगत ने प्रोत्साहन, सहृदयता और मुझे लगता है, स्नेह से मुझे स्वीकार किया। अब तक मैंने तीन उपन्यास लिखे हैं- इन सभी को उन्होंने प्रकाशित किया है जो यह जानने के लिए जाने जाते हैं कि प्रकाशन क्या है और सौ से अधिक लेख, कहानियां और रेखाचित्र लिखे हैं जिन्हें प्राय: एक 'व्यंग्यात्मक लेखन' का एक सुविधाजनक नाम दे दिया गया है। इनमें से अधिकांश 1958 तथा 1969 में प्रकाशित मेरे दो संकलनों में आ चुके हैं। मुझे आशा है कि प्रत्यक्षत: मेरी लगभग एक सुव्यवस्थित लेखक की हैसियत है और सभी लेखकों की तरह मैं अनतिदूर भविष्य में एक सचमुच अच्छी किताब लिखने की अपेक्षा करता हूं। किसी दिन मैं कहानी लिखने का दुष्कर काम दोबारा कर सकता हूं या कौन जाने नाटक भी।
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