- मनोज अबोध
उसपे मर मिटने का हर भाव लिए बैठा हूँ
उम्र भर के लिए भटकाव लिए बैठा हूँ
याद है, मुझको कहा था कभी अपनी धड़कन
आपकी सोच का दुहराव लिए बैठा हूँ
तुम मिले थे जहाँ इक बार मसीहा की तरह
फिर उसी मोड़ पे ठहराव लिए बैठा हूँ
लाख तूफान हों, जाना तो है उस पार मुझे
लाख टूटी हुई इक नाव लिए बैठा हूँ
आपके फूल से हाथों से मिला था जो कभी
आज तक दिल पे वही घाव लिए बैठा हूँ
मिलके चलना
मिलके चलना बहुत जरूरी है
अब सँभलना बहुत जरूरी है
गुत्थियाँ हो गईं जटिल कितनी
हल निकलना बहुत जरूरी है
आग बरसा रहा है सूरज अब
दिन का ढलना बहुत जरूरी है
जड़ न हो जाएँ चाहतें अपनी
हिम पिघलना बहुत जरूरी है
हम निशाने पे आ गए उसके
रुख बदलना बहुत जरूरी है
है अँधेरा तो प्यार का दीपक
मन में जलना बहुत जरूरी है
अपने आप से लड़ता मैं
अपने आप से लड़ता मैं
यानी, ख़ुद पर पहरा मैं
वो बोला - नादानी थी
फिर उसको क्या कहता मैं
जाने कैसा जज़्बा था
माँ देखी तो मचला मैं
साथ उगा था सूरज के
साँझ ढली तो लौटा मैं
वो भी कुछ अनजाना-सा
कुछ था बदला-बदला मैं
झूठ का खोल उतारा तो
निकला सीधा सच्चा मैं
क्या होगा अंजाम, न पूछ
क्या होगा अंजाम, न पूछ
सुबह से मेरी शाम, न पूछ
आगंतुक का स्वागत कर
क्यों आया है काम न पूछ
मेरे भीतर झाँक के देख
मुझसे मेरा नाम न पूछ
पहुँच से तेरी बाहर हैं
इन चीजों के दाम न पूछ
रीझ रहा है शोहरत पर
कितना हूँ बदनाम न पूछ
संपर्क- एफ-1/107 ग्राउण्ड फ्लोर,सैक्टर-11, रोहिणी, नईदिल्ली-110085, मो. 09910889554,
Email- manojabodh@gmail.com, Blog: http://manojabodh.blogspot.com
उसपे मर मिटने का हर भाव लिए बैठा हूँ
उम्र भर के लिए भटकाव लिए बैठा हूँ
याद है, मुझको कहा था कभी अपनी धड़कन
आपकी सोच का दुहराव लिए बैठा हूँ
तुम मिले थे जहाँ इक बार मसीहा की तरह
फिर उसी मोड़ पे ठहराव लिए बैठा हूँ
लाख तूफान हों, जाना तो है उस पार मुझे
लाख टूटी हुई इक नाव लिए बैठा हूँ
आपके फूल से हाथों से मिला था जो कभी
आज तक दिल पे वही घाव लिए बैठा हूँ
मिलके चलना
मिलके चलना बहुत जरूरी है
अब सँभलना बहुत जरूरी है
गुत्थियाँ हो गईं जटिल कितनी
हल निकलना बहुत जरूरी है
आग बरसा रहा है सूरज अब
दिन का ढलना बहुत जरूरी है
जड़ न हो जाएँ चाहतें अपनी
हिम पिघलना बहुत जरूरी है
हम निशाने पे आ गए उसके
रुख बदलना बहुत जरूरी है
है अँधेरा तो प्यार का दीपक
मन में जलना बहुत जरूरी है
अपने आप से लड़ता मैं
अपने आप से लड़ता मैं
यानी, ख़ुद पर पहरा मैं
वो बोला - नादानी थी
फिर उसको क्या कहता मैं
जाने कैसा जज़्बा था
माँ देखी तो मचला मैं
साथ उगा था सूरज के
साँझ ढली तो लौटा मैं
वो भी कुछ अनजाना-सा
कुछ था बदला-बदला मैं
झूठ का खोल उतारा तो
निकला सीधा सच्चा मैं
क्या होगा अंजाम, न पूछ
क्या होगा अंजाम, न पूछ
सुबह से मेरी शाम, न पूछ
आगंतुक का स्वागत कर
क्यों आया है काम न पूछ
मेरे भीतर झाँक के देख
मुझसे मेरा नाम न पूछ
पहुँच से तेरी बाहर हैं
इन चीजों के दाम न पूछ
रीझ रहा है शोहरत पर
कितना हूँ बदनाम न पूछ
संपर्क- एफ-1/107 ग्राउण्ड फ्लोर,सैक्टर-11, रोहिणी, नईदिल्ली-110085, मो. 09910889554,
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1 comment:
बेहतरीन गजलें
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