- कृष्ण कुमार मिश्र
टाइगर हैवन के बरामदे में पड़ी अठारहवीं सदी की विक्टोरियन कुर्सी पर बैठे बिली अर्जन सिंह मुझे हमेशा पढ़ते हुए मिले, आस- पास तमाम मेजों पर ढोरों देशी- विदेशी किताबें व पत्रिकाएं। जंगल के मध्य एक बेहद जीवन्त व खूबसूरत बसेरा बाघों एवं मनुष्य दोनों का। यह आदमी और जानवर के मध्य सहजीविता का अद्भुत नमूना था, पर अब न ही वहां विक्टोरियन फर्नीचर है और न किताबें, यदि कुछ बचा हुआ दिखाई देता है तो टाइगर हैवन की दीवारों पर लगी 'काई' जिसे इस बार की आई भीषण बाढ़ अपने साथ वापस ले जाना भूल गयी, या यूं कह लेंं कि सुहेली नदी व जंगल को यह मालूम हो चुका था कि अब उनका रखवाला उनसे अलविदा कहने वाला है! हमेशा के लिए। इसीलिए उस रोज टाइगर हैवन खण्डहर सा बस धराशाही होने को तैयार दिखाई दे रहा था, और सुहेली ठहरी हुई नजर आ रही थी।
बिली जवानी के दिनों में यह जगह कभी नहीं छोड़ते थे, चाहे जितनी बारिश हो, फिर उस वक्त सुहेली में गाद (सिल्ट) भी नहीं थी। पर उम्र बढऩे की साथ- साथ सुहेली में सिल्ट बढ़ती गयी, हर बारिश में दुधवा व टाइगर हैवन दोनों जल-मग्न होने लगे, नतीजतन बिली बरसात के चार महीने जसवीन नगर फार्म पर बिताने लगे और टाइगर हैवन से पानी निकल जाने पर फिर अपने प्रिय स्थान पर वापस लौट आते अपनी किताबों के साथ।
लेकिन इस बार बाढ़ के चले जाने के बाद भी अब बिली कभी नही लौटेगें, यही नियति है इस स्थान की। बिली की उम्र के साथ ही टाइगर हैवन ने भी अपनी जिन्दगी पूरी कर ली। जहां इस इमारत में आजकल आतिश- दान में आग जलती थी, बिली के प्रिय तेन्दुओं व बाघिन तारा और कपूरथला के राज-परिवार की तस्वीरें लगी थीं, कमरों में पुस्तकें समाती नहीं थी, वहां अब सब कुछ वीरान हैं। अगर कुछ है तो बाढ़ के द्वारा छोड़े गये वीभत्स निशान।
गत वर्ष बिली की तबियत खराब होने के बावजूद वो बाढ़ गुजर जाने के बाद दो बार यहां आये, और कहा कि लगता है, मेरे साथ ही टाइगर हैवन भी नष्ट हो जायेगा! ... नियति की मर्जी वह इस वर्ष यहां नहीं लौट पाये... अब यह जगह की अपनी कोई तकदीर नहीं है जिसके हवाले से इसके वजूद को स्वीकारा जा सके।
मेरी कुछ स्मृतियां हैं उस महात्मा के सानिध्य की जिनका जिक्र जरूरी किन्तु भावुक कर देने वाला है। वो हमेशा नींबू पानी पिलाते। दुधवा और उसके बाघों को कैसे सुरक्षित रखा जाय बस यही एक मात्र उनकी चिन्ता होती। दुधवा के वनों की जीवन रेखा सुहेली नदी की बढ़ती सिल्ट को लेकर एक विचार था उनका कि सुहेली कतरनिया घाट वाइल्ड लाइफ सैक्चुरी में बह रही गिरवा नदी से जोड़ दिया जाय। इससे दो फायदे थे, एक कि दुधवा में आती बाढ़ पर नियन्त्रण और दूसरा दुधवा में गैन्जेटिक डाल्फिन एवं घडिय़ाल की आमद हो जाना।
चूंकि अभी तक दुधवा टाइगर रिजर्व में ये दोनों प्रजातियां नहीं हैं जबकि कतरनियां घाट डाल्फिन और घडिय़ाल की वजह से आकर्षण का केन्द्र है। साथ ही इन प्रजातियों के आवास को भी विस्तार मिल सके, यही ख्वाहिश थी बिली की।
बिली अर्जन सिंह से मेरी पहली मुलाकात 1999 में हुई, इसी वक्त मंैने जन्तुविज्ञान में एम.एस.सी करने की बाद वन्य जीवों पर पी.एचडी. करने का निर्णय किया। बिली से मैं अपने परिचय का श्रेय दुधवा के प्रथम निदेशक रामलखन सिंह को दूंगा, क्योंकि इन्हीं की एक आलोचनात्मक पुस्तक 'दुधवा के बाघों में आनुवंशिक प्रदूषण' पढऩे के बाद हुई। पहली मुलाकात में बिली से जब इस पुस्तक की चर्चा की तो उन्होंने कहा क्या तुमने मेरी किताबें नहीं पढ़ी। बाद में स्वयं बरामदे से लाइब्रेरी तक जाते और तमाम पुस्तके लाते और फिर कहते देखो यह पढ़ो। फिर ये सिलसिला अनवरत जारी रहा। मैंने बिली साहब की किताबों से दुधवा के अतीत को देखा सुना, और यहीं से मैंने बिली को अपना आदर्श मान लिया, नतीजा ये हुआ कि मैं एक शोधार्थी से एक्टीविस्ट बन गया, अब वन्य- जीवों के लिए लड़ाई लड़ता हूं।
92 वर्ष की आयु में इस महात्मा ने नववर्ष 2010 के प्रथम दिवस को अपने प्राण त्याग दिये। मगर आज इनके जीवों व जंगलों के प्रति किये गये महान कार्य समाज को सुन्दर संदेश देते रहेंगे एक दिगन्तर की तरह।
बिली के पिता जसवीर सिंह, दादा राजा हरनाम सिंह, परदादा महाराजा रणधीर सिंह थे जिन्होंने 1830 से लेकर 1870 ई. तक कपूरथला पर स्वतंत्र राज्य किया। महाराजा रणधीर सिंह को गदर के दौरान अंग्रेजों की मदद करने के कारण खीरी और बहराइच में तकरीबन 700 मील की जमीन रिवार्ड में मिली थी।
15 अगस्त 1917 को गोरखपुर में जन्में बिली कपूरथला रियासत के राजकुमार थे। इनका बिली नाम इनकी बुआ राजकुमारी अमृत कौर ने रखा था जो महात्मा गांधी की सचिव व नेहरू सरकार में प्रथम महिला स्वास्थ्य मंत्री रहीं, आप की शिक्षा- दीक्षा ब्रिटिश- राज में हुई, राज-परिवार व एक बड़े अफसर के पुत्र होने के कारण आप ने ऊंचे दर्जे का इल्म हासिल किया और ब्रिटिश- भारतीय सेना में भर्ती हो गये, द्वितीय विश्व- युद्ध के बाद इन्होंने खीरी के जंगलों को अपना बसेरा बनाना सुनिश्चित कर लिया। पूर्व में इनकी रियासत की तमाम संपत्तियां खीरी व बहराइच में थी जिन्हें अंग्रेजों ने इनके पुरखों को रिवार्ड के तौर पर दी थी। चूंकि बलरामपुर रियासत में इनके पिता को बरतानिया हुकूमत ने कोर्ट- आफ- वार्ड नियुक्त किया था, सो इनका बचपन बलरामपुर की रियासत में गुजरा। बलरामपुर के जंगलों में इनके शिकार के किस्से मशहूर रहे और 12 वर्ष की आयु में ही इन्होंने बाघ का शिकार किया।
1960 में बिली की जीप के सामने एक तेन्दुआ गुजरा अंधेंरी रात में जीप- लाइट में उसकी सुन्दरता ने बिली का मन मोह लिया, ये प्रकृति की सुन्दरता थी जिसे अर्जन सिंह ने महसूस किया। इसी वक्त उन्होंने शिकार को तिलांजलि दे दी।
1969 में यह जंगल बिली ने खरीद लिया, जिसके दक्षिण- उत्तर में सरिताएं और पश्चिम- पूर्व में घने वन। इसी स्थान पर रह कर इन्होंने दुधवा के जंगलों की अवैतनिक वन्य-जीव प्रतिपालक की तरह सेवा की।
बिली हमेशा कहते रहे कि जो जंगल अंग्रेज हमें दे गये कम से कम उन्हें तो बचा ही लेना चाहिए। क्योंकि आजादी के बाद वनों के और खासतौर से साखू के वनों का रीजनरेशन कराने में हम फिसड्डी रहे हैं। वे कहते रहे की फारेस्ट डिपार्टमेन्ट से वाइल्ड- लाइफ को अलग कर अलग विभाग बनाया जाय, वाइल्ड- लाइफ डिपार्टमेन्ट।
बाघों के लिए अधिक संरक्षित क्षेत्रों की उनकी ख्वाहिश के कारण ही किशनपुर वन्य-जीव विहार का वजूद में आना हुआ उनके निरन्तर प्रयासों से 1977 में दुधवा नेशनल पार्क बना और फिर टाइगर प्रोजेक्ट की शुरुआत हुई, और इस प्रोजेक्ट के तहत 1988 में दुधवा नेशनल पार्क और किशनपुर वन्य जीव विहार मिलाकर दुधवा टाइगर रिजर्व की स्थापना कर दी गयी। टाइगर हैवन से सटे सठियाना रेन्ज के जंगलों में बारहसिंहा के आवास हैं जिसे संरक्षित करवाने में बिली का योगदान विस्मरणीय है। जो अब दुधवा टाइगर रिजर्व का एक हिस्सा है।
जंगल को अपनी संपत्ति की तरह स्नेह करने वाले इस व्यक्ति ने अविवाहित रहकर अपना पूरा जीवन इन जंगलों और उनमें रहने वाले जानवरों के लिए समर्पित कर दिया।
टाइगर हैवन की अपनी एक विशेषता थी कि यहां तेन्दुए, कुत्ते और बाघ एक साथ खेलते थे। बिली की एक कुतिया जिसे वह इली के नाम से बुलाते थे, यह कुतिया कुछ मजदूरों के साथ भटक कर टाइगर हैवन की तरफ आ गयी थी, बीमार और विस्मित! बिली ने इसे अपने पास रख लिया, यह कुतिया बिली के तेन्दुओं जूलिएट और हैरियट पर अपना हुक्म चलाती थी और यह जानवर जिसका प्राकृतिक शिकार है कुत्ता इस कुतिया की संरक्षता स्वीकारते थे। और इससे भी अद्भुत बात है, तारा का यहां होना जो बाघिन थी, बाघ जो अपने क्षेत्र में किसी दूसरे बाघ की उपस्थित को बर्दाश्त नहीं कर सकता, तेन्दुए की तो मजाल ही क्या। किन्तु बिली के इस घर में ये तीनों परस्पर विरोधी प्रजातियां जिस समन्वय व प्रेम के साथ रहती थी, उससे प्रकृति के नियम बदलते नजर आ रहे थे।
विश्व प्रकृति निधि की संस्थापक ट्रस्टी व वन्य- जीव विशेषज्ञ श्रीमती एन राइट ने बिली को पहला तेन्दुआ शावक दिया, ये शावक अपनी मां को किसी शिकारी की वजह से खो चुका था, लेकिन श्रीमती राइट ने इसके अनाथ होने की नियति को बदल दिया, बिली को सौंप कर।
भारत सरकार ने उन्हें 1975 में पद्म श्री, 2006 में पद्म भूषण से सम्मानित किया। वैश्विक संस्था विश्व प्रकृति निधि ने उन्हें गोल्ड मैडल से सम्मानित किया। 2003 में सेंचुरी लाइफ- टाइम अवार्ड से नवाजा गया। 2005 में नोबल पुरूस्कार की प्रतिष्ठा वाला पाल गेटी अवार्ड दिया गया जिसकी पुरस्कार राशि एक करोड़ रुपये है। यह पुरस्कार 2005 में दो लोगों को संयुक्त रूप में दिया गया था। उत्तर प्रदेश सरकार ने भी इसी वर्ष 2007 में बिली अर्जन सिंह को यश भारती से सम्मानित किया। इतने पुरस्कारों के मिलने पर जब भी मंैने उन्हें शुभकामनायें दी, तो एक ही जवाब मिला के पुरस्कारों से क्या मेरी उम्र बढ़ जायेगी, कुछ करना है तो दुधवा और उनके बाघों के लिए करें ये लोग।
प्रिन्स, जूलिएट, हैरिएट तीन तेन्दुए थे जिन्हें बिली ने टाइगर हैवन में प्रशिक्षित किया और दुधवा के जंगलों में पुनर्वासित किया। बाघ व तेन्दुओं के शावकों को ट्रेंड कर उन्हें उनके प्राकृतिक आवास यानी जंगल में सफलता पूर्वक पुनर्वासित करने का जो कार्य बिली अर्जन सिंह ने किया वह अद्वितीय है पूरे संसार में। बाद में इंग्लैड के चिडिय़ाघर से लाई गयी बाघिन तारा भी दुधवा के वनों को अपना बसेरा बनाने में सफल हुई। इसका नतीजा हैं तारा की पीढिय़ां जो दुधवा के वनों में फल- फूल रही हैं। बिली की तेन्दुओं व बाघों के साथ तमाम फिल्में बनाई गयी जिनका प्रसारण डिस्कवरी आदि पर होता रहता है।
कुछ लोगों ने बिली पर तारा के साइबेरियन या अन्य नस्लों का मिला- जुला होना बताकर बदनाम करने की कोशिश की और इसे नाम दिया 'आनुवंशिक प्रदूषण' जबकि आनुवांशिक विज्ञान के मुताबिक भौगोलिक सीमाओं व विभिन्न वातावरणीय क्षेत्रों में रहने वाली जातियों का आपस में संबंध हानिकारक नहीं होता है बल्कि बेहतर होता हैं।
बिली अपने मकसदों में हमेशा कामयाब रहे एक बहादुर योद्धा की तरह और उसी का नतीजा है भारत का दुधवा टाइगर रिजर्व। बाघों और तेन्दुओं के साथ खेलने वाला यह लौह पुरूष अब हमारे बीच नहीं है। पर उनकी यादें है जो हमें प्रेरणा देती रहेंगी।
आज मैं इतना जरूर कहूंगा कि दुधवा टाइगर रिजर्व जो कर्मस्थली थी बिली की उसका नाम बिली अर्जन सिंह टाइगर रिजर्व कर दिया जाय यही हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी बिली साहब को। क्योंकि जब एक अंग्रेज यानी जिम कार्बेट के नाम पर आजाद भारत में हेली नेशनल पार्क तब्दील होकर जिम कार्बेट नेशनल पार्क हो सकता है तो बिली अर्जन सिंह के नाम से क्यों नहीं। भारत में वन्य जीव संरक्षण में और खासतौर से बाघ संरक्षण के क्षेत्र में बिली अर्जन सिंह के कद का कोई व्यक्ति न तो कभी हुआ और न ही मौजूदा समय में है।
दो वर्षों से आ रही भयानक बाढ़ ने दुधवा के वनों व टाइगर हैवन को क्षतिग्रस्त करना शुरू कर दिया है यदि जल्दी कोई हल न निकाला गया तो बिली का यह घर जो अब स्मारक है के साथ- साथ हमारी अमूल्य प्राकृतिक संपदा भी नष्ट हो जायेगी। बिली अर्जन सिंह के संघर्षों का नतीजा है दुधवा टाइगर रिजर्व और टाइगर हैवन, और इन दोनों को सहेजना अब हमारी जिम्मेदारी।का मिला- जुला होना बताकर बदनाम करने की कोशिश की और इसे नाम दिया 'आनुवंशिक प्रदूषण' जबकि आनुवांशिक विज्ञान के मुताबिक भौगोलिक सीमाओं व विभिन्न वातावरणीय क्षेत्रों में रहने वाली जातियों का आपस में संबंध हानिकारक नहीं होता है बल्कि बेहतर होता हैं।
बिली अपने मकसदों में हमेशा कामयाब रहे एक बहादुर योद्धा की तरह और उसी का नतीजा है भारत का दुधवा टाइगर रिजर्व। बाघों और तेन्दुओं के साथ खेलने वाला यह लौह पुरूष अब हमारे बीच नहीं है। पर उनकी यादें है जो हमें प्रेरणा देती रहेंगी।
आज मैं इतना जरूर कहूंगा कि दुधवा टाइगर रिजर्व जो कर्मस्थली थी बिली की उसका नाम बिली अर्जन सिंह टाइगर रिजर्व कर दिया जाय यही हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी बिली साहब को। क्योंकि जब एक अंग्रेज यानी जिम कार्बेट के नाम पर आजाद भारत में हेली नेशनल पार्क तब्दील होकर जिम कार्बेट नेशनल पार्क हो सकता है तो बिली अर्जन सिंह के नाम से क्यों नहीं। भारत में वन्य जीव संरक्षण में और खासतौर से बाघ संरक्षण के क्षेत्र में बिली अर्जन सिंह के कद का कोई व्यक्ति न तो कभी हुआ और न ही मौजूदा समय में है।
दो वर्षों से आ रही भयानक बाढ़ ने दुधवा के वनों व टाइगर हैवन को क्षतिग्रस्त करना शुरू कर दिया है यदि जल्दी कोई हल न निकाला गया तो बिली का यह घर जो अब स्मारक है के साथ- साथ हमारी अमूल्य प्राकृतिक संपदा भी नष्ट हो जायेगी। बिली अर्जन सिंह के संघर्षों का नतीजा है दुधवा टाइगर रिजर्व और टाइगर हैवन, और इन दोनों को सहेजना अब हमारी जिम्मेदारी।
उनकी किताबें
जिम कार्बेट और एफ. डब्ल्यू. चैम्पियन से प्रभावित बिली अर्जन सिंह ने आठ पुस्तकें लिखी जो उत्तर भारत की इस वन-श्रृंखला का बेहतरीन लेखा- जोखा है।
इन जंगलों और इनमें रहने वाली प्रकृति की सुन्दर कृतियों को देखने और जानने का बेहतर तरीका है उनकी किताबें जिनके शब्द उनके अद्भुत व साहसिक कर्मों का प्रतिफल है।
1-तारा- ए टाइग्रेस
2-टाइगर हैवन
3-प्रिन्स आफ कैट्स
4-द लीजेन्ड आफ द मैन-ईटर
5-इली एन्ड बिग कैट्स
6-ए टाइगर स्टोरी
7-वाचिंग इंडियाज वाइल्ड लाइफ
8-टाइगर! टाइगर।
पता: 77, कैनाल रोड, शिव कालोनी, लखीमपुर खीरी- 262701 (उ.प्र.)
Email: dudhwalive@live.com, www.dudhwalive.com
बिली जवानी के दिनों में यह जगह कभी नहीं छोड़ते थे, चाहे जितनी बारिश हो, फिर उस वक्त सुहेली में गाद (सिल्ट) भी नहीं थी। पर उम्र बढऩे की साथ- साथ सुहेली में सिल्ट बढ़ती गयी, हर बारिश में दुधवा व टाइगर हैवन दोनों जल-मग्न होने लगे, नतीजतन बिली बरसात के चार महीने जसवीन नगर फार्म पर बिताने लगे और टाइगर हैवन से पानी निकल जाने पर फिर अपने प्रिय स्थान पर वापस लौट आते अपनी किताबों के साथ।
लेकिन इस बार बाढ़ के चले जाने के बाद भी अब बिली कभी नही लौटेगें, यही नियति है इस स्थान की। बिली की उम्र के साथ ही टाइगर हैवन ने भी अपनी जिन्दगी पूरी कर ली। जहां इस इमारत में आजकल आतिश- दान में आग जलती थी, बिली के प्रिय तेन्दुओं व बाघिन तारा और कपूरथला के राज-परिवार की तस्वीरें लगी थीं, कमरों में पुस्तकें समाती नहीं थी, वहां अब सब कुछ वीरान हैं। अगर कुछ है तो बाढ़ के द्वारा छोड़े गये वीभत्स निशान।
गत वर्ष बिली की तबियत खराब होने के बावजूद वो बाढ़ गुजर जाने के बाद दो बार यहां आये, और कहा कि लगता है, मेरे साथ ही टाइगर हैवन भी नष्ट हो जायेगा! ... नियति की मर्जी वह इस वर्ष यहां नहीं लौट पाये... अब यह जगह की अपनी कोई तकदीर नहीं है जिसके हवाले से इसके वजूद को स्वीकारा जा सके।
मेरी कुछ स्मृतियां हैं उस महात्मा के सानिध्य की जिनका जिक्र जरूरी किन्तु भावुक कर देने वाला है। वो हमेशा नींबू पानी पिलाते। दुधवा और उसके बाघों को कैसे सुरक्षित रखा जाय बस यही एक मात्र उनकी चिन्ता होती। दुधवा के वनों की जीवन रेखा सुहेली नदी की बढ़ती सिल्ट को लेकर एक विचार था उनका कि सुहेली कतरनिया घाट वाइल्ड लाइफ सैक्चुरी में बह रही गिरवा नदी से जोड़ दिया जाय। इससे दो फायदे थे, एक कि दुधवा में आती बाढ़ पर नियन्त्रण और दूसरा दुधवा में गैन्जेटिक डाल्फिन एवं घडिय़ाल की आमद हो जाना।
चूंकि अभी तक दुधवा टाइगर रिजर्व में ये दोनों प्रजातियां नहीं हैं जबकि कतरनियां घाट डाल्फिन और घडिय़ाल की वजह से आकर्षण का केन्द्र है। साथ ही इन प्रजातियों के आवास को भी विस्तार मिल सके, यही ख्वाहिश थी बिली की।
बिली अर्जन सिंह से मेरी पहली मुलाकात 1999 में हुई, इसी वक्त मंैने जन्तुविज्ञान में एम.एस.सी करने की बाद वन्य जीवों पर पी.एचडी. करने का निर्णय किया। बिली से मैं अपने परिचय का श्रेय दुधवा के प्रथम निदेशक रामलखन सिंह को दूंगा, क्योंकि इन्हीं की एक आलोचनात्मक पुस्तक 'दुधवा के बाघों में आनुवंशिक प्रदूषण' पढऩे के बाद हुई। पहली मुलाकात में बिली से जब इस पुस्तक की चर्चा की तो उन्होंने कहा क्या तुमने मेरी किताबें नहीं पढ़ी। बाद में स्वयं बरामदे से लाइब्रेरी तक जाते और तमाम पुस्तके लाते और फिर कहते देखो यह पढ़ो। फिर ये सिलसिला अनवरत जारी रहा। मैंने बिली साहब की किताबों से दुधवा के अतीत को देखा सुना, और यहीं से मैंने बिली को अपना आदर्श मान लिया, नतीजा ये हुआ कि मैं एक शोधार्थी से एक्टीविस्ट बन गया, अब वन्य- जीवों के लिए लड़ाई लड़ता हूं।
92 वर्ष की आयु में इस महात्मा ने नववर्ष 2010 के प्रथम दिवस को अपने प्राण त्याग दिये। मगर आज इनके जीवों व जंगलों के प्रति किये गये महान कार्य समाज को सुन्दर संदेश देते रहेंगे एक दिगन्तर की तरह।
बिली के पिता जसवीर सिंह, दादा राजा हरनाम सिंह, परदादा महाराजा रणधीर सिंह थे जिन्होंने 1830 से लेकर 1870 ई. तक कपूरथला पर स्वतंत्र राज्य किया। महाराजा रणधीर सिंह को गदर के दौरान अंग्रेजों की मदद करने के कारण खीरी और बहराइच में तकरीबन 700 मील की जमीन रिवार्ड में मिली थी।
15 अगस्त 1917 को गोरखपुर में जन्में बिली कपूरथला रियासत के राजकुमार थे। इनका बिली नाम इनकी बुआ राजकुमारी अमृत कौर ने रखा था जो महात्मा गांधी की सचिव व नेहरू सरकार में प्रथम महिला स्वास्थ्य मंत्री रहीं, आप की शिक्षा- दीक्षा ब्रिटिश- राज में हुई, राज-परिवार व एक बड़े अफसर के पुत्र होने के कारण आप ने ऊंचे दर्जे का इल्म हासिल किया और ब्रिटिश- भारतीय सेना में भर्ती हो गये, द्वितीय विश्व- युद्ध के बाद इन्होंने खीरी के जंगलों को अपना बसेरा बनाना सुनिश्चित कर लिया। पूर्व में इनकी रियासत की तमाम संपत्तियां खीरी व बहराइच में थी जिन्हें अंग्रेजों ने इनके पुरखों को रिवार्ड के तौर पर दी थी। चूंकि बलरामपुर रियासत में इनके पिता को बरतानिया हुकूमत ने कोर्ट- आफ- वार्ड नियुक्त किया था, सो इनका बचपन बलरामपुर की रियासत में गुजरा। बलरामपुर के जंगलों में इनके शिकार के किस्से मशहूर रहे और 12 वर्ष की आयु में ही इन्होंने बाघ का शिकार किया।
1960 में बिली की जीप के सामने एक तेन्दुआ गुजरा अंधेंरी रात में जीप- लाइट में उसकी सुन्दरता ने बिली का मन मोह लिया, ये प्रकृति की सुन्दरता थी जिसे अर्जन सिंह ने महसूस किया। इसी वक्त उन्होंने शिकार को तिलांजलि दे दी।
1969 में यह जंगल बिली ने खरीद लिया, जिसके दक्षिण- उत्तर में सरिताएं और पश्चिम- पूर्व में घने वन। इसी स्थान पर रह कर इन्होंने दुधवा के जंगलों की अवैतनिक वन्य-जीव प्रतिपालक की तरह सेवा की।
बिली हमेशा कहते रहे कि जो जंगल अंग्रेज हमें दे गये कम से कम उन्हें तो बचा ही लेना चाहिए। क्योंकि आजादी के बाद वनों के और खासतौर से साखू के वनों का रीजनरेशन कराने में हम फिसड्डी रहे हैं। वे कहते रहे की फारेस्ट डिपार्टमेन्ट से वाइल्ड- लाइफ को अलग कर अलग विभाग बनाया जाय, वाइल्ड- लाइफ डिपार्टमेन्ट।
बाघों के लिए अधिक संरक्षित क्षेत्रों की उनकी ख्वाहिश के कारण ही किशनपुर वन्य-जीव विहार का वजूद में आना हुआ उनके निरन्तर प्रयासों से 1977 में दुधवा नेशनल पार्क बना और फिर टाइगर प्रोजेक्ट की शुरुआत हुई, और इस प्रोजेक्ट के तहत 1988 में दुधवा नेशनल पार्क और किशनपुर वन्य जीव विहार मिलाकर दुधवा टाइगर रिजर्व की स्थापना कर दी गयी। टाइगर हैवन से सटे सठियाना रेन्ज के जंगलों में बारहसिंहा के आवास हैं जिसे संरक्षित करवाने में बिली का योगदान विस्मरणीय है। जो अब दुधवा टाइगर रिजर्व का एक हिस्सा है।
जंगल को अपनी संपत्ति की तरह स्नेह करने वाले इस व्यक्ति ने अविवाहित रहकर अपना पूरा जीवन इन जंगलों और उनमें रहने वाले जानवरों के लिए समर्पित कर दिया।
टाइगर हैवन की अपनी एक विशेषता थी कि यहां तेन्दुए, कुत्ते और बाघ एक साथ खेलते थे। बिली की एक कुतिया जिसे वह इली के नाम से बुलाते थे, यह कुतिया कुछ मजदूरों के साथ भटक कर टाइगर हैवन की तरफ आ गयी थी, बीमार और विस्मित! बिली ने इसे अपने पास रख लिया, यह कुतिया बिली के तेन्दुओं जूलिएट और हैरियट पर अपना हुक्म चलाती थी और यह जानवर जिसका प्राकृतिक शिकार है कुत्ता इस कुतिया की संरक्षता स्वीकारते थे। और इससे भी अद्भुत बात है, तारा का यहां होना जो बाघिन थी, बाघ जो अपने क्षेत्र में किसी दूसरे बाघ की उपस्थित को बर्दाश्त नहीं कर सकता, तेन्दुए की तो मजाल ही क्या। किन्तु बिली के इस घर में ये तीनों परस्पर विरोधी प्रजातियां जिस समन्वय व प्रेम के साथ रहती थी, उससे प्रकृति के नियम बदलते नजर आ रहे थे।
विश्व प्रकृति निधि की संस्थापक ट्रस्टी व वन्य- जीव विशेषज्ञ श्रीमती एन राइट ने बिली को पहला तेन्दुआ शावक दिया, ये शावक अपनी मां को किसी शिकारी की वजह से खो चुका था, लेकिन श्रीमती राइट ने इसके अनाथ होने की नियति को बदल दिया, बिली को सौंप कर।
भारत सरकार ने उन्हें 1975 में पद्म श्री, 2006 में पद्म भूषण से सम्मानित किया। वैश्विक संस्था विश्व प्रकृति निधि ने उन्हें गोल्ड मैडल से सम्मानित किया। 2003 में सेंचुरी लाइफ- टाइम अवार्ड से नवाजा गया। 2005 में नोबल पुरूस्कार की प्रतिष्ठा वाला पाल गेटी अवार्ड दिया गया जिसकी पुरस्कार राशि एक करोड़ रुपये है। यह पुरस्कार 2005 में दो लोगों को संयुक्त रूप में दिया गया था। उत्तर प्रदेश सरकार ने भी इसी वर्ष 2007 में बिली अर्जन सिंह को यश भारती से सम्मानित किया। इतने पुरस्कारों के मिलने पर जब भी मंैने उन्हें शुभकामनायें दी, तो एक ही जवाब मिला के पुरस्कारों से क्या मेरी उम्र बढ़ जायेगी, कुछ करना है तो दुधवा और उनके बाघों के लिए करें ये लोग।
प्रिन्स, जूलिएट, हैरिएट तीन तेन्दुए थे जिन्हें बिली ने टाइगर हैवन में प्रशिक्षित किया और दुधवा के जंगलों में पुनर्वासित किया। बाघ व तेन्दुओं के शावकों को ट्रेंड कर उन्हें उनके प्राकृतिक आवास यानी जंगल में सफलता पूर्वक पुनर्वासित करने का जो कार्य बिली अर्जन सिंह ने किया वह अद्वितीय है पूरे संसार में। बाद में इंग्लैड के चिडिय़ाघर से लाई गयी बाघिन तारा भी दुधवा के वनों को अपना बसेरा बनाने में सफल हुई। इसका नतीजा हैं तारा की पीढिय़ां जो दुधवा के वनों में फल- फूल रही हैं। बिली की तेन्दुओं व बाघों के साथ तमाम फिल्में बनाई गयी जिनका प्रसारण डिस्कवरी आदि पर होता रहता है।
कुछ लोगों ने बिली पर तारा के साइबेरियन या अन्य नस्लों का मिला- जुला होना बताकर बदनाम करने की कोशिश की और इसे नाम दिया 'आनुवंशिक प्रदूषण' जबकि आनुवांशिक विज्ञान के मुताबिक भौगोलिक सीमाओं व विभिन्न वातावरणीय क्षेत्रों में रहने वाली जातियों का आपस में संबंध हानिकारक नहीं होता है बल्कि बेहतर होता हैं।
बिली अपने मकसदों में हमेशा कामयाब रहे एक बहादुर योद्धा की तरह और उसी का नतीजा है भारत का दुधवा टाइगर रिजर्व। बाघों और तेन्दुओं के साथ खेलने वाला यह लौह पुरूष अब हमारे बीच नहीं है। पर उनकी यादें है जो हमें प्रेरणा देती रहेंगी।
आज मैं इतना जरूर कहूंगा कि दुधवा टाइगर रिजर्व जो कर्मस्थली थी बिली की उसका नाम बिली अर्जन सिंह टाइगर रिजर्व कर दिया जाय यही हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी बिली साहब को। क्योंकि जब एक अंग्रेज यानी जिम कार्बेट के नाम पर आजाद भारत में हेली नेशनल पार्क तब्दील होकर जिम कार्बेट नेशनल पार्क हो सकता है तो बिली अर्जन सिंह के नाम से क्यों नहीं। भारत में वन्य जीव संरक्षण में और खासतौर से बाघ संरक्षण के क्षेत्र में बिली अर्जन सिंह के कद का कोई व्यक्ति न तो कभी हुआ और न ही मौजूदा समय में है।
दो वर्षों से आ रही भयानक बाढ़ ने दुधवा के वनों व टाइगर हैवन को क्षतिग्रस्त करना शुरू कर दिया है यदि जल्दी कोई हल न निकाला गया तो बिली का यह घर जो अब स्मारक है के साथ- साथ हमारी अमूल्य प्राकृतिक संपदा भी नष्ट हो जायेगी। बिली अर्जन सिंह के संघर्षों का नतीजा है दुधवा टाइगर रिजर्व और टाइगर हैवन, और इन दोनों को सहेजना अब हमारी जिम्मेदारी।का मिला- जुला होना बताकर बदनाम करने की कोशिश की और इसे नाम दिया 'आनुवंशिक प्रदूषण' जबकि आनुवांशिक विज्ञान के मुताबिक भौगोलिक सीमाओं व विभिन्न वातावरणीय क्षेत्रों में रहने वाली जातियों का आपस में संबंध हानिकारक नहीं होता है बल्कि बेहतर होता हैं।
बिली अपने मकसदों में हमेशा कामयाब रहे एक बहादुर योद्धा की तरह और उसी का नतीजा है भारत का दुधवा टाइगर रिजर्व। बाघों और तेन्दुओं के साथ खेलने वाला यह लौह पुरूष अब हमारे बीच नहीं है। पर उनकी यादें है जो हमें प्रेरणा देती रहेंगी।
आज मैं इतना जरूर कहूंगा कि दुधवा टाइगर रिजर्व जो कर्मस्थली थी बिली की उसका नाम बिली अर्जन सिंह टाइगर रिजर्व कर दिया जाय यही हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी बिली साहब को। क्योंकि जब एक अंग्रेज यानी जिम कार्बेट के नाम पर आजाद भारत में हेली नेशनल पार्क तब्दील होकर जिम कार्बेट नेशनल पार्क हो सकता है तो बिली अर्जन सिंह के नाम से क्यों नहीं। भारत में वन्य जीव संरक्षण में और खासतौर से बाघ संरक्षण के क्षेत्र में बिली अर्जन सिंह के कद का कोई व्यक्ति न तो कभी हुआ और न ही मौजूदा समय में है।
दो वर्षों से आ रही भयानक बाढ़ ने दुधवा के वनों व टाइगर हैवन को क्षतिग्रस्त करना शुरू कर दिया है यदि जल्दी कोई हल न निकाला गया तो बिली का यह घर जो अब स्मारक है के साथ- साथ हमारी अमूल्य प्राकृतिक संपदा भी नष्ट हो जायेगी। बिली अर्जन सिंह के संघर्षों का नतीजा है दुधवा टाइगर रिजर्व और टाइगर हैवन, और इन दोनों को सहेजना अब हमारी जिम्मेदारी।
उनकी किताबें
जिम कार्बेट और एफ. डब्ल्यू. चैम्पियन से प्रभावित बिली अर्जन सिंह ने आठ पुस्तकें लिखी जो उत्तर भारत की इस वन-श्रृंखला का बेहतरीन लेखा- जोखा है।
इन जंगलों और इनमें रहने वाली प्रकृति की सुन्दर कृतियों को देखने और जानने का बेहतर तरीका है उनकी किताबें जिनके शब्द उनके अद्भुत व साहसिक कर्मों का प्रतिफल है।
1-तारा- ए टाइग्रेस
2-टाइगर हैवन
3-प्रिन्स आफ कैट्स
4-द लीजेन्ड आफ द मैन-ईटर
5-इली एन्ड बिग कैट्स
6-ए टाइगर स्टोरी
7-वाचिंग इंडियाज वाइल्ड लाइफ
8-टाइगर! टाइगर।
पता: 77, कैनाल रोड, शिव कालोनी, लखीमपुर खीरी- 262701 (उ.प्र.)
Email: dudhwalive@live.com, www.dudhwalive.com
1 comment:
bahut pahle ek bar maine bili arjan singh aur tara k bare me sarvottam reader's digest me padha tha , tab se bili arjan singh ka naam kabhi bhool nahi paya. main ek bar unse mile ki khwahish rakhta tha lekin kabhi mil nahi paya. Krishna kumar mishra ji aap lucky hain,jinhe bili arjan sihng jaise mahan logon k sath rahkar kuchh seekhne ka awsar mila. shubhkamnayen.
Post a Comment