विमर्श
जिम्मेदार मीडिया का गढ़ छत्तीसगढ़
- जयराम दास
खारून में भले ही काफी पानी न बहा हो लेकिन रायपुर तो मैट्रो जनित रफ्तार से चल पड़ा है । साथ ही शहर का मीडिया भी उसी रफ्तार से कदमताल करने लगा, तेजी से विकसित होते इस अवसरों के शहर के साथ।
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विचारधारा के प्रति अति आग्रह, संगठनों के प्रेस विज्ञप्ति पर अत्यधिक निर्भरता, कस्बायी संस्करणों की बाढ़ के बावजूद गांव-मड़ई की खबरों का कम होते जाना दुखद हैं जिस पर ध्यान देने की ज़रूरत है।
बात 25 जुलाई 2004 की है। पत्रकारिता की डिग्री प्राप्त एक युवक एक राजनीतिक पार्टी के मीडिया में काम करने का नियुक्ति पत्र लिये रायपुर स्टेशन पर उतरा। साथ में एक झोला लिए, एक ऐसा झोला जिसमें निम्न मध्य वर्गीय परिवार के सपने बंद थे और थे दो जोड़ी कपड़े तथा अपने लिखे और प्रकाशित कुछ आलेख। अपने इसी बैसाखी की दौलत वो दिल्ली से आकर एक नये राज्य की नयी राजधानी और नये लोगों के बीच पांव जमाने की फिराक में था।
कुछ इस तरह की करने चला था पार समंदर को आज वो, लेकिन वो हाथ में लिए कागज की नाव था।

यदि अच्छी चीजों की बात करें तो प्रदेश की सबसे बड़ी समस्या नक्सलवाद के विरोध में-कुछेक अपवादों को छोडक़र-जिस तरह का रूख यहां के अखबारों ने दिखाया उसकी जितनी तारीफ की जाय वह कम है। कम से कम कुछ संवेदनशील मुद्दे पर तो इसने राष्ट्रीय कहे जाने वाले मीडिया को भी आईना दिखाया है। आपको याद होगा जब देश के सारे इलेक्ट्रानिक चैनल आरूषि को न्याय दिलाने में व्यस्त थे। जिस समय सारे समाचार माध्यम उस पीडि़त परिवार के हर रात लेखा जोखा मांगने की ''पुनीत'' जिम्मेदारी निभा रहा था तब रायपुर अपने 26 लाख बस्तरिया भाई-बहनों को नक्सली ब्लैक आउट से मुक्त करने के प्रयास में सरकार के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा था।
यह भी याद रखने योग्य है कि जब कथित मराठी-राज ठाकरे मुम्बई को अपनी बपौती साबित करने की जद्दोजहद में लगा था और बार-बार फटकारे जाने के बाद भी हिंदी मीडिया स्थानीय टीवी चैनलों से फुटेज ले-ले कर उसे प्रसारित करने में व्यस्त था वहां रायपुर का एक अखबार धमतरी निवासी एक दूसरे ठाकरे, राजू ठाकरे की खबर मुख्यता से प्रकाशित कर रहा था। इस ठाकरे ने रंभा इंगोले नाम की एक वृद्धा की मृत्यु हो जाने पर उन्हें अपनी मां बनाकर उनका अंतिम संस्कार एवं श्राद्ध कर्म अपने हाथों से किया था। तो ये जो राज ठाकरे और राजू ठाकरे में फर्क है, आदमीयत और भलमनसाहत का। कमोवेश रायपुर के समाचार माध्यम ने कथित राष्ट्रीय मीडिया से वही फर्क कायम रखा है।
यहां के मीडिया की एक और सबसे बड़ी सफलता जो कही जाएगी वो है छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का सम्मान दिलवाना। कोई लाख कुछ कह ले लेकिन वह कथित आंदोलन केवल और केवल अखबारों के माध्यम से ही चलाया गया। बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के मुठ्ठीभर बुद्धिजीवियों द्वारा शुरू किये गये उस दोस्ताना संघर्ष को, मुखर लेकिन मूक जनभावनाओं की नब्ज जिस तरह से अखबार ने पकड़ी और जितनी जल्दी सरकार का ध्यान आकृष्ट करने में सफल रही, वैसी सफलता तो टीआरपीवादी मीडिया सपने में भी नहीं सोच सकती है। इसके अलावे जब-जब किसी समूह विशेष या कुछ मीडिया द्वारा प्रदेश की अस्मिता के साथ खिलवाड़ करने का प्रयास किया गया, छत्तीसगढ़ ने उसे मुंहतोड़ जवाब देने में पल भर की देरी नहीं की। याद कीजिए एक कुंठित लेखक ने दिल्ली से प्रकाशित एक साहित्यिक पत्रिका में बस्तर- बालाओं का अपमान किया था, सारे के सारे अखबारों ने एक स्वर में उस असभ्य पत्रिका की बखिया उधेड़ कर रख दी थी। या एक खूबसूरत, लोकप्रिय नेत्री को ''स्टोरी'' के माध्यम से बेइज्जत करने का प्रयास एक राष्ट्रीय चैनल के स्थानीय संवाददाता द्वारा किया गया तो उसे भी दुत्कारने में स्तंभ लेखकों ने कोई कसर बाकी नहीं रखी। एक अखबार ने उसके कैमरे की तुलना बंदर के हाथ में उस्तरा तक से कर दी थी।

लब्बोलुबाब यह कि यहां के समाचार माध्यमों ने अपने सामाजिक सरोकारों का परिचय देकर अपनी जिम्मेदार रिपोर्टिंग द्वारा निश्चय ही सप्रे जी की परंपरा को आगे ही बढ़ाया है। उनकी पुनीत आत्मा को गौरवान्वित होने का अवसर दिया है। साथ ही रायपुर द्वारा दिल्ली को आईना दिखाने का काम भी किया गया है। बावजूद इसके कुछ विसंगतियां है। खासकर विज्ञापन और समाचार में फासला निरंतर कम होते जाना, या समाचारों का संबंध डायरेक्टली विज्ञापनों से जोड़ देना, आंख मूंदकर विरोध या समर्थन, विचारधारा के प्रति अति आग्रह, संगठनों के प्रेस विज्ञप्ति पर अत्यधिक निर्भरता, कस्बायी संस्करणों की बाढ़ के बावजूद गांव-मड़ई की खबरों का कम होते जाना दुखद हैं जिसपर ध्यान देने की ज़रूरत है।
2 comments:
भाई जयराम दास जी ने जिम्मेदार मीडिया का गढ़ छत्तीसगढ़ नामक आलेख में राजधानी में पत्रकारिता के सकारात्मक पक्ष को बखूबी प्रस्तुत किया है। कई वर्ष नागपुर में पत्रकारिता करने के बाद जब मैं रायपुर आया था तो कई मुद्दों पर स्थानीय मीडिया से मेरा विरोध रहा। इसी क्रम में नक्सलवाद के मुद्दे पर भी मेरा पत्रकारिता का मन सदैव उद्वेलित रहा है। मुझे अच्छी तरह याद है कि राजधानी के कुछ प्रमुख समाचार पत्र हर उस खबर को प्रमुखता देते थे जिसे अंग्रेजी में प्रो-नक्सली कहा जा सकता है। इस अफवाह युद्ध के साथ हम लोगों ने संघर्ष का बिगुल फूंका और कुछ ही दिनों में समूची मीडिया का स्वर बदल गया। उस समय ऐसा लगा था कि हर सही कार्य के लिए ईश्वर मदद करता है। खैर, सलवा जुडूम और नक्सलवाद के मुद्दे पर राजधानी की मीडिया जगत का न्यायपरक नजरिया वाकई काबिलेतारीफ है। अब यह बात अलग है कि इस मानसिक समर्थन के बाद सरकार इस समस्या के समूल उच्चाटन के लिए क्या कदम उठाती है।
-अंजीव पांडेय
सिटी चीफ, जनसत्ता, रायपुर
राजधानी बनने के साथ मध्यप्रदेश का रायपुर छत्तीसगढ़ का रायपुर हो गया है. भोपाल और दिल्ली दोनों शहरों में रहने का अवसर मिला है इसलिए बदलते समय के साथ बदलते मीडिया का स्वरुप भी देखने को मिला है. अच्छा मीडिया भी है और बुरा भी. दोनों एक साथ दिखाते तो और भी अच्छा लगता पर उम्मीद है आगे इस बारे में आपकी कलम बोलेगी.
- तेजपाल सिंह हंसपाल, फाफाडीह नाका, रायपुर (छत्तीसगढ़)
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