शिक्षा प्रणाली की जर्जर नींव
-रत्ना वर्मा
शिक्षा के क्षेत्र में यह शर्मनाक राष्ट्रीय उपलब्धि परिणाम है प्राथमिक शिक्षा की दुर्गति का। देश के अधिकांश प्राथमिक विद्यालयों में विशेषकर ग्रामीण क्षेत्र में भवन ही नहीं हैं, जहां कहीं भवन हैं भी तो उनमें न तो खिडक़ी, दरवाजे हैं न ही बच्चों के लिए कुर्सी, टेबल, पीने का पानी, शौचालय और पुस्तकालय तो इन प्राथमिक विद्यालयों के बच्चों और शिक्षकों के लिए कल्पना से परे की चीजें हैं।
शिक्षा प्रणाली की बुनियाद के प्रति शासकों के इस उपेक्षापूर्ण व्यवहार का ही परिणाम है प्राथमिक विद्यालयों के अधिकांश शिक्षक कभी कभार ही विद्यालयों में मुंह दिखाते हैं। ऐसे में स्पष्ट ही है कि सर्वशिक्षा अभियान और बच्चों को दोपहर में भोजन इत्यादि देने की बात सिर्फ कागकाी आंकड़ों और भ्रष्टाचार का साधन बन गए हैं। तभी तो हमारा देश विश्व में निरक्षरों की सबसे बड़ी जनसंख्या वाले देश के रुप में बदनाम है।
इस परिपेक्ष्य में अराजकता, नक्सलवाद, चोरी डकैती और भ्रष्टाचार दिन दूने रात चौगुने बढेंगें ही। निरक्षर न सिर्फ बेरोजगार होता है बल्कि किसी भी रोजगार के काबिल भी नहीं होता। निरक्षरों की यह विशाल आबादी सहायक हुई है जनतंत्र को भारत में एक नई परिभाषा देने में। जनतंत्र का अर्थ हमारे यहां सिर्फ चुनावी वोट तक सीमित हो गया है। जिसके अनुसार अपराधियों को विधायक और सांसद बनना ही है और ऐसा हो भी रहा है।
कुल जमा यह कि हमारी गड्ड- मड्ड शिक्षा नीति का नतीजा है कि हमारे यहां पूरा ध्यान विश्वविद्यालयों और उच्च तकनीकी शिक्षण संस्थानों की स्थापना पर दिया जाता है। यह तो कुछ वैसा ही है जैसे कि आसपास के क्षेत्र में गन्ना उत्पादन सुनिश्चित किये बिना ही शक्कर बनाने का विशाल कारखाना स्थापित कर देना।
-रत्ना वर्मा
प्राथमिक शिक्षा, जो शिक्षा प्रणाली की नींव होती है, के प्रति लगातार की जा रही उपेक्षा का परिणाम है, आज भारत की पहचान विश्व में निरक्षरों की सबसे बड़ी जनसंख्या वाले राष्ट्र के रुप में होती है।
यह दुखद स्थिति है कि 14 वर्ष तक की उम्र के बच्चों के लिए शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने हेतु आवश्यकसंविधान संशोधन विधेयक पिछले कई वर्षों से संसद में लंबित है।
हमारे शरीर में जो महत्व रक्त का है वही महत्व समाज में शिक्षा का है। जो महत्व हमारे शरीर में हृदय का है वही महत्व समाज में प्राथमिक विद्यालयों का है। आज विश्व में जो सबसे अधिक विकसित और समृद्ध देश हैं उन सभी में बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में ही बच्चों के लिए प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य बनाने के समुचित प्रबंध वहां की सरकारों द्वारा किए गए हैं। जिसमें वहां प्रत्येक विद्यालय में बच्चों के शिक्षण के लिए भवन, शैक्षणिक उपकरण, विद्यार्थियों और शिक्षकों के लिए स्वच्छ पीने का पानी, शौचालय, पुस्तकालय खेल-कूद और व्यायाम के लिए विद्यालय प्रांगण के भीतर ही आवश्यक आकार के मैदान और साज समान आदि सभी उपलब्ध रहते हैं । इस प्रकार की शैक्षणिक व्यवस्था इंग्लैन्ड, फ्रांस, जर्मनी, अमरीका, रुस, चीन, जापान इत्यादि के सरकारों द्वारा दृढ़ राजनैतिक इच्छा शक्ति से उपजी राष्र्ट्रीय नीति का क्रियान्वयन थी। इसका नतीजा है कि इन देशों की जनता में साक्षरता का मापदण्ड शत-प्रतिशत के करीब पहुंच गया और बीसवीं शताब्दी में इन देशों में इतनी द्रुतगति से समग्र प्रगति हुई कि विश्व अचंभित हो गया। शिक्षा को राष्ट्र्रीय प्रगति योजनाओं की सर्वोच्च प्राथमिकताओं में एक बनाए रखने का ऐसा सुखद परिणाम तो होना ही था।
इसके विपरीत आइए हम स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के छ: दशकों से अधिक समय में अपने देश में शिक्षा के साथ, राजनेताओं द्वारा किए गए खिलवाड़ के दुष्परिणाम का जायजा लें। शिक्षा और विशेषतया प्राथमिक शिक्षा, जो शिक्षा प्रणाली की नींव होती है, के प्रति लगातार की जा रही उपेक्षा का परिणाम है, आज भारत की पहचान विश्व में निरक्षरों की सबसे बड़ी जनसंख्या वाले राष्ट्र के रुप में होती है।शिक्षा के क्षेत्र में यह शर्मनाक राष्ट्रीय उपलब्धि परिणाम है प्राथमिक शिक्षा की दुर्गति का। देश के अधिकांश प्राथमिक विद्यालयों में विशेषकर ग्रामीण क्षेत्र में भवन ही नहीं हैं, जहां कहीं भवन हैं भी तो उनमें न तो खिडक़ी, दरवाजे हैं न ही बच्चों के लिए कुर्सी, टेबल, पीने का पानी, शौचालय और पुस्तकालय तो इन प्राथमिक विद्यालयों के बच्चों और शिक्षकों के लिए कल्पना से परे की चीजें हैं।
शिक्षा प्रणाली की बुनियाद के प्रति शासकों के इस उपेक्षापूर्ण व्यवहार का ही परिणाम है प्राथमिक विद्यालयों के अधिकांश शिक्षक कभी कभार ही विद्यालयों में मुंह दिखाते हैं। ऐसे में स्पष्ट ही है कि सर्वशिक्षा अभियान और बच्चों को दोपहर में भोजन इत्यादि देने की बात सिर्फ कागकाी आंकड़ों और भ्रष्टाचार का साधन बन गए हैं। तभी तो हमारा देश विश्व में निरक्षरों की सबसे बड़ी जनसंख्या वाले देश के रुप में बदनाम है।
इस परिपेक्ष्य में अराजकता, नक्सलवाद, चोरी डकैती और भ्रष्टाचार दिन दूने रात चौगुने बढेंगें ही। निरक्षर न सिर्फ बेरोजगार होता है बल्कि किसी भी रोजगार के काबिल भी नहीं होता। निरक्षरों की यह विशाल आबादी सहायक हुई है जनतंत्र को भारत में एक नई परिभाषा देने में। जनतंत्र का अर्थ हमारे यहां सिर्फ चुनावी वोट तक सीमित हो गया है। जिसके अनुसार अपराधियों को विधायक और सांसद बनना ही है और ऐसा हो भी रहा है।
कुल जमा यह कि हमारी गड्ड- मड्ड शिक्षा नीति का नतीजा है कि हमारे यहां पूरा ध्यान विश्वविद्यालयों और उच्च तकनीकी शिक्षण संस्थानों की स्थापना पर दिया जाता है। यह तो कुछ वैसा ही है जैसे कि आसपास के क्षेत्र में गन्ना उत्पादन सुनिश्चित किये बिना ही शक्कर बनाने का विशाल कारखाना स्थापित कर देना।
राष्ट्र और समाज में किसी भी योजना को सफल होने के लिये दृढ़ इच्छा शक्ति अनिवार्य होती है। भारत में रंगीन टेलीविजन और टेलीफोन की कोने-कोने में उपलब्धता दृढ़ राजनैतिक शक्ति द्वारा प्रायोजित कार्यक्रमों का सुखद परिणाम हैं, परंतु जहां तक शिक्षा जैसी बुनियादी आवश्यकता की बात है इस इच्छा शक्ति का अभाव ही नजर आता है। जिसका प्रमाण है यह तथ्य कि 14 वर्ष तक की उम्र के बच्चों के लिए शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने हेतु आवश्यक संविधान संशोधन विधेयक पिछले कई वर्षों से संसद में लंबित है। जबकि प्राथमिक विद्यालय ही प्रतिभा की वह नर्सरी है जिसमें से वह पौधा निकलता है जो आगे चल कर विवेकी और ईमानदार राजनेताओं, प्रसिद्ध शिक्षकों, वैज्ञानिकों, लेखकों और ओलम्पिक में स्वर्ण पदक विजेताओं के रुप में पल्लवित होती है। निरक्षरता के कलंक को धोये बिना चन्द्रयान की सफलता फीकी है।
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