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Dec 13, 2008

सिलसिला, अफसाना

सिलसिला
राजेश उत्साही

हवाओं में जहर हर तरफ मिला  है

राह में जो बिछड़ा वो कब मिला  है।

फेफड़े हैं कुन्द और नब्ज मद्घम
दिमाग भी है बन्द, मुंह सिला है।


हर वक्त खुलकर सोचने वालों
आसपास ये कौन-सा किला है।


दूर से नजर आता है हरा-भरा
पास आकर देखिए निरा पीला है।


मत रहो घोड़ों की सू बांधकर पट्टी
राह में दाएं-बाएं भी उपवन खिला है।


रूठे-मनाएं, रूठ जाएं फिर से
जिन्दगी का तो यही सिलसिला है।


पर्वत जो सामने है कोई बात नहीं
हां, एक उत्साही से कब हिला है ।


अफसाना

मासूम सवालों का जमाना नहीं रहा
चालाक हैं सब, कोई सयाना नहीं रहा।


औरों की बुनियाद में हो गए पत्थर
खुद का चाहे कोई ठिकाना नहीं रहा।


फटी हुई गुदड़ी के लाल हैं हम भी
अग बात है, कोई घराना नहीं रहा।


सी लिए होंठ सबने मूंद ली आंखें
शायद कसने को अब ताना नहीं रहा।


बहारों के दरीचों पर है प्रवेश निषेध
जाएं कहां अब कोई वीराना नहीं रहा।


समझेगा नहीं कोई मोहब्बत का जुनून
हीर-सी दीवानी,फरहाद दीवाना नहीं रहा।


सिर-से पैर तक बद गई है दुनिया
फैशन में कोई चन पुराना नहीं रहा।


आओ उत्साही से भी मिल लें चलकर
चर्चा में उसका अफसाना नहीं रहा।

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