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Sep 3, 2021

दो कविताएँ

-शिखा सिंह

1. खामोश हवाएँ

खामोश हवाएँ अपनी
ताकत की पहचान जानती है।
जब चले  गर्म होके
अपने प्रलय का ईमान जानती है।
झुककर  चलती है वो हमेशा
अपने हदों का मान जानती है।
मोहब्बत जब करती है सब से
जिस्म छूने की शरारत जानती हैं।
हर मौसम में कैसे है बदलना
अपने हुनर का काम जानती है।

2. सोच की लड़ाई

बादलों का रुख और नरिया कभी नहीं बदलता
चाहे विदेश में हो चाहे अपने देश में हो
न बदलती है कभी फितरत चाँद तारों की
चाहे मंदिर में हो चाहे मस्जिद में हो
न बदलती आदत कभी दिन और रात की
चाहे गरीब का शियाना हो या अमीरों का महल
न बदली कभी बारिशों की बूँद की ठंडक
चाहे मिट्टी के घरों में हो चाहे संगमरमर की हवेली में हो
न बदलता कभी हवाओं का चलन
चाहे शहर में हो चाहे गाँव में हो
न बदलती कभी भूख
चाहे अमीर की हो चाहे गरीब की हो
न बदलता कभी चलना बैठना
चाहे सवर्ण की हो चाहे दलित की
न बदलती कभी बोलने की आवाज़
चाहे बच्चे की हो चाहे बूढ़े की हो
न बदलते कभी इंसान के अंग
चाहे जवान के हो चाहे बुजुर्ग के
बदलता है तो बस आदमी
आदमी के लिये स्र्वार्थ के लि
इच्छा पूर्ति के लिए
फिर भी अकेला जाता है दुनिया के लि


सम्पर्कः जे एन वी रोड फतेहगढ़ , निकट आर एस प्लाजा
फतेहगढ़ फर्रुखाबाद- 209601
मो.  9415 236 990

3 comments:

शिवजी श्रीवास्तव said...

दोनो ही रचनाएँ बहुत सशक्त और प्रभावी।बधाई शिखा सिंह जी।

Sudershan Ratnakar said...

दोनों कविताएँ सुंदर, प्रभावशाली हैं बधाई

Jatin Rathore said...

बहित खूब