- देवमणि पांडेय
झूला, कजरी
और बारिश की रिमझिम में सावन झूमता है। कोरोना काल में इस दृश्य की बस कल्पना ही
की जा सकती है। सावन आते ही पेड़ों पर झूले पड़ जाते थे। मगर अब हमारे गाँव में वो
ऊँचे पेड़ नहीं रहे जिन पर टँगे विशाल झूलों में एक साथ आठ दस औरतें झूलती थीं।
कजरी गाती थीं।
सावन के महीने में तीज का त्योहार मनाया
जाता है। राजस्थान में इसे हरियाली तीज और उत्तर प्रदेश में कजरी तीज या माधुरी
तीज कहा जाता है। हरापन समृद्धि का प्रतीक है। स्त्रियाँ हरे परिधान और हरी
चूड़ियाँ पहनती हैं। हरे पत्तों और लताओं से झूलों को सजाया जाता है।
हमारे यहाँ हर त्योहार के पीछे कोई न कोई
सामाजिक या वैज्ञानिक कारण होता है। लोगों का कहना है कि बरसात में ऑक्सीजन की
मात्रा कम हो जाती है। झूला झूलने से हमें अधिक ऑक्सीजन मिलती है।
कजरी लोकगीत गायन की एक शैली है। कहा
जाता है कि इसका जन्म मिर्ज़ापुर में हुआ। बनारस ने इसकी लोकप्रियता में चार चाँद
लगाए। कजरी में प्रेम के संयोग और वियोग दोनों पक्ष दिखाई देते हैं। कजरी में
लोक जीवन के चित्र और देश प्रेम की यादगार दास्तान भी होती है।
कजरी में प्रेम के दोनों पक्ष यानी संयोग
और वियोग दिखाई देते हैं। कभी-कभी इसके पीछे कोई लोक कथा या यादगार दास्तान होती
है। आज़ादी के आंदोलन का दौर था। शहर में कर्फ़्यू लगा हुआ था। एक नौजवान अपनी
प्रियतमा से मिलने जा रहा था। एक अँग्रेज़ सिपाही ने गोली चला दी। मारा गया। मगर
वह आज भी कजरी में ज़िंदा है - 'यहीं ठइयाँ मोतिया
हेराय गइले रामा...'
मॉरीशस और सूरीनाम से लेकर जावा-सुमात्रा
तक जो लोग आज हिन्दी का परचम लहरा रहे हैं, कभी
उनके पूर्वज एग्रीमेंट (गिरमिट) पर यानी गिरमिटिया मज़दूर के रूप में वहाँ गए थे।
कहा जाता है कि इन लोगों को ले जाने के लिए मिर्ज़ापुर सेंटर बनाया गया था। वहाँ
से इन्हें कलकत्ता और रंगून पहुँचाया जाता था। फिर ये पानी के जहाज़ से विदेश भेज
दिए जाते थे।

मिर्ज़ापुर कइलन गुलज़ार हो ...
कचौड़ी गली सून कइले बलमू...
यही मिर्ज़ापुरवा से उड़ल जहजिया
पिया चलि गइले रंगून हो...
कचौड़ी गली सून कइले बलमू...
मुम्बई के एक कार्यक्रम में शास्त्रीय
गायिका डॉ. सोमा घोष यही कजरी गा रही थीं। उनके साथ संगत कर रहे थे भारतरत्न स्व.
उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ। उन्होंने शहनाई पर ऐसा करुण सुर उभारा जैसे कलेजा चीरकर
रख दिया हो। भाव भी कुछ वैसे ही कलेजा चाक कर देने वाले थे। प्रिय के वियोग में
धनिया पेड़ की शाख़ से भी पतली हो गई है। शरीर ऐसे छीज रहा है जैसे कटोरी में रखी
हुई नमक की डली बर्फ़ के टुकड़े की तरह गल जाती है -
डरियो से पातर भइल तोर धनिया
तिरिया गलेल जस नून हो...
बचपन में अपने गाँव में कजरी उत्सव में
मैंने जो झूला देखा था, उसकी स्मृतियाँ अभी भी
ताज़ा हैं। आँखें बंद करता हूँ ,तो आज भी झूले पर कजरी गाती
हुई स्त्रियाँ दिखाईं पड़ती हैं -
अब के सावन माँ साँवरिया
तोहे नइहरे बोलाइब ना..'
गाँव की उन्हीं मधुर स्मृतियों के आधार
पर मैंने एक गीत लिखा। आपके लिए पेश है-
महीना सावन का
सजनी आँख मिचौली खेले बाँध दुपट्टा झीना
महीना सावन का
बिन सजना क्या जीना महीना सावन का...
मौसम ने ली है अँगड़ाई
चुनरी उड़ि उड़ि जाए
बैरी बदरा गरजे बरसे
बिजुरी होश उड़ाए
घर-आँगन, गलियाँ चौबारा आए चैन कहीं ना
महीना सावन का...
खेतों में फ़सलें लहराईं
बाग़ में पड़ गये झूले
लम्बी पेंग भरी गोरी ने
तन खाए हिचकोले
पुरवा संग मन डोले जैसे लहरों बीच सफ़ीना
महीना सावन का...
बारिश ने जब मुखड़ा चूमा
महक उठी पुरवाई
मन की चोरी पकड़ी गई तो
धानी चुनर शरमाई
छुई मुई बन गई अचानक चंचल शोख़ हसीना
महीना सावन का...
कजरी गाएँ सखियाँ सारी
मन की पीर बढ़ाएँ
बूँदें लगती बान के जैसे
गोरा बदन जलाएँ
अब के जो ना आए सँवरिया ज़हर पड़ेगा पीना
महीना सावन का...
Devmani Pandey : B-103, Divya Stuti,Kanya Pada, Gokuldham, Film City Road,Goregaon, East, Mumbai-400063, M : 98210-82126, devmanipandey.blogspot.com
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