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Jun 6, 2020

प्रेरक

पुरानी पीढ़ी के लोग पैसा कैसे बचाते थे?
फेसबुक में एक मित्र की टाइमलाइन पर यह चर्चा देखी कि लॉकडाउन के दौरान घरेलू खर्च बहुत कम हो गया है और लोग वैसे ही जीवन बिता रहे हैं जैसे हमारे दादा-परदादा वगैरह बिताते थे।
यह पढ़कर मुझे अपने दादा का जीवन याद आ गया। जिस किफायत में उन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी बिता दी वह अन्यत्र देखना दुर्लभ है। वैसा जीवन आज जीना लगभग असंभव ही है। दादा-परदादा तो दूर की बात है, मेरे से पहले वाली मेरे पिता की पीढ़ी भी रुपये को समझदारी से खर्चती थी। इस बात की ताकीद मेरे पिता दे सकते हैं, वे भी फेसबुक पर हैं।
लॉकडाउन के दौरान ही बहुत बड़े पैमाने पर लोगों की नौकरियों पर दीर्घकालीन संकट गहराने लगा है। यदि नौकरी बच जाए, तो भी लोगों को अपने खर्च में कटौती करनी पड़ेगी।
अपने साथ के जूनियर कलीग्स की लाइफस्टाइल को मैं बारीकी से ऑब्ज़र्व करता था। उन्हें कोई समझाइश देना मैंने कभी मुनासिब नहीं समझा; क्योंकि लोग आजकल इसे दखलअंदाज़ी समझते हैं। बहरहाल, मेरे से पहले की पीढ़ी और मेरे बाद की पीढ़ी के जीवन की तुलना करता हूँ, तो मुझे स्पष्ट दिखता है कि पहले की पीढ़ियाँ किस तरह कम पैसे में सर्वाइव करते हुए भी अगली पीढ़ियों के लिए चल-अचल संपत्ति बना सकीं। दूसरी ओर, नई पीढ़ी में पति-पत्नी दोनों के ठीकठाक कमाने पर भी पैंसों की चिकचिक बनी रहती है। नई पीढ़ी को पिछली पीढ़ियों के जीवन से बहुत कुछ सीखना चाहिए।
पिछली पीढ़ी के लोग क्या करते थे?
वे मनोरंजन पर बेतहाशा खर्च नहीं करते थे। अधिकतर घरों में हर कमरे में टीवी नहीं होता था। पूरे घर में एक ही छोटा टीवी बैठक के कमरे में होता था। वह कमरा किसी मूवी थिएटर जैसा नहीं बनाया जाता था। बच्चों के टीवी देखने पर नियंत्रण होता था। वे केबल/सैटेलाइट टीवी, मोबाइल फोन, इंटरनेट, वीडियो गेम, नेटफ्लिक्स, प्राइम वीडियो जैसे सब्स्क्रिप्शन पर पैसे पर खर्च नहीं करते थे, जिनपर नई पीढ़ी के लोग पैसे लुटाते रहते हैं।
लोग अधिकतर अपने घर में खाना खाते थे। वे दफ्तर टिफिन लेकर जाते थे। अपने परिवार को बाहर खिलाने के लिए ले जाने का मौका कभी-कभार विशेष अवसर पर ही आता था और इसके लिए कई दिन पहले विचार कर लिया जाता था। ऐसा बहुत कम होता था जब कोई कहे आज खाना बनाने का मन नहीं कर रहा। ऐसे कितने ही नई पीढ़ी के लोग हैं ,जिन्हें मैगी बनाना भी नहीं आता और वे छुट्टी के दिन जोमैटो या स्विगी से ही खाना मँगाते थे। लॉकडाउन से वे बुरी तरह से प्रभावित हुए; क्योंकि उनके किचन में कुछ भी नहीं होता था।
साफ सफाई के लिए लोगों के पास तरह-तरह के विकल्प नहीं होते थे। एक ही तरह का साबुन और डिटर्जेंट होता था और उसी से हर तरह की सफाई की जाती थी। टॉयलेट, बाथरूम, कारपेट, किचन, फर्नीचर, आलमारियाँ, कंप्यूटर, गाड़ी आदि साफ करने के लिए अलग-अलग लिक्विड नहीं होते थे। लोग अपनी ज़रूरत के हिसाब से खुद झाड़-पोंछ कर लेते थे, किसी खास दुकान पर नहीं ले जाते थे। कुछ घरों में तो लोग अपना साबुन खुद बनाते थे।
पुराने जमाने में किसी ने सोचा भी नहीं था कि पीने का पानी भी कभी खरीदना पड़ेगा। वे दस गुनी कीमत पर कॉफी पीने के लिए स्टारबक्स की लाइन में नहीं खड़े होते थे। उनके फ्रिज में हर तरह की कोल्ड ड्रिंक नहीं होती थी।
वे ऐसा अनुपयोगी सामान नहीं खरीदते थे जिसके लिए उन्हें अपनी मेहनत की गाढ़ी नकद कमाई निकालनी पड़े। क्रेडिट या डेबिट कार्ड का चलन नहीं था। वे अपनी आय का एक हिस्सा बचत खाते में सुरक्षित रखते थे। इससे अधिक सेविंग एफडी या बांड्स में होती थी, जो दशकों तक ब्याज खाती रहती थी।
बिजली पर कम खर्च होता था; क्योंकि घरों में तरह-तरह के प्रोडक्ट और एप्लाएंस नहीं होते थे। कमरे से बाहर जाते वक्त बत्ती बंद कर दी जाती थी। ऐसा नहीं करने पर बच्चों को डाँट पड़ती थी। म्यूज़िक सिस्टम, टीवी और कंप्यूटर वगैरह पूरे दिन चालू नहीं रहते थे। घरों में एप्प से चलने वाले फैंसी फ्रिज और एसी नहीं होते थे।
लोग आवागमन पर कम खर्च करते थे। वे शहर के बाहरी छोर पर बड़ा घर नहीं खरीदते थे, जिसके कारण ऑफिस पहुँचने में 2 घंटे लगते हों। वे काम की जगह के पास गली-मोहल्ले में छोटे घर में रहते थे और पैसे बचाते थे। लोग स्कूटर-कार तभी खरीदते थे, जब बहुत ज़रूरी हो। कार रखना स्टेटस सिंबल था और उच्च वर्ग के लोगों के पास ही कार होती थी। लोग हर दूसरे साल अपनी कार या बाइक नहीं बदलते थे। कोई खराबी आने पर लोग तक तक रिपेयर करवाते थे जब तक गाड़ी पूरी कंडम न हो जाए।
कोई बड़ी वस्तु जैसे घर या गाड़ी खरीदते वक्त वे कीमत का बड़ा हिस्सा डाउन पेमेंट से चुका देते थे। लोग बहुत कम लोन लेते थे। लोन लेने के बाद कोई डिफाल्ट नहीं करता था। वे अपनी ज़रूरत से ज्यादा बड़ा घर या वाहन नहीं खरीदते थे।
वे इच्छा होने पर तुरंत नहीं खरीद लेते थे। ऑनलाइन शॉपिंग और सेम-डे डिलीवरी के विकल्प नहीं होते थे। खरीदने लायक वस्तुएँ सीमित मात्रा और उपलब्धता में होती थीं। लोगों को दुकान तक जाकर भली प्रकार जाँच-परख कर खरीदना और नकद पेमेंट करना पड़ता था। पैसा खर्च करना आज की तरह बेहद आसान नहीं था। लोग डिस्काउंट या ऑफर देखकर नहीं बल्कि कीमत देखकर चीज खरीदते थे।
लोग थोक में राशन खरीदते थे। बहुत घरों में उनके गाँव से अनाज आ जाता था। बड़ी मात्रा में अनाज और मसाले घर में रखे जाते थे। डिब्बाबंद सामान खरीदने को पैसे की बर्बादी माना जाता था। हर सामान की एक ही वेरायटी होती थी। अथाह विकल्प नहीं होते थे। एक ही तरह का दूध होता था और दही घर पर ही जमाया जाता था।
जिनके पास पैसे की तंगी होती थी वे अपने से नीचेवाले को देखकर चलते थे। लोगों को यह कहने में झिझक नहीं होती थी मैं अफोर्ड नहीं कर सकता। लोग अपने पड़ोसी को देखकर अपना रहन-सहन नहीं बदलते थे। यदि कोई पड़ोसी बेहतर स्थिति में होता था, तो लोग उसके बारे में भला सोचते थे, उससे जलते नहीं थे।
यदि कोई दोस्त सैरसपाटे की योजना बनाता और आपको शामिल करता, तो पैसे की तंगी होने पर आप कहते कि फिर कभी चलेंगे।” – आज की तरह नहीं कि लोग झट से राजी हो जाएँ और इसके लिए पर्सनल लोन ले लें।
इस तरह ज़िंदगी बिताने पर पिछली पीढ़ी के लोग पैसे बचा पाते थे; लेकिन यह भी सच है कि उनके पास खर्चने के बेतहाशा विकल्प नहीं होते थे। वह अलग तरह का जमाना था, वे अलग तरह के लोग थे। एक थान से ही परिवार में सबके कपड़े बन जाते थे, वह भी दीवाली, जन्मदिन या शादी-ब्याह के मौकों पर।
पुरानी पीढ़ी के लोगों के तौरतरीकों से ज़िंदगी बसर करने के लिए केवल इच्छाशक्ति ही नहीं बल्कि बेपरवाही और खब्तीपन भी चाहिए। मुझे नहीं लगता कि आज के युवाजन उस तरह रह पाएँगे। (हिन्दी ज़ेन से)

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