उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Aug 15, 2017

कहानी

मौलाना
शहादत
फज़र की नमाज़ पढऩे के बाद सकीला ने दरवाज़े से झांका तो नमाज़ी लोग मस्जिद में नमाज़ के लिए जा रहे थें। उसने सोचा कि चलो अभी तो नमाज़ भी नही हुई। जमात होने से पहले ही वह घूम कर आ जाएगी।
उसने सिर पर अच्छे से लिपटे दुपट्टे पर शॉल ओढ़ा और नहर की ओर चल दी। फरवरी खत्म हो चुका था और मार्च भी आधा बीत चुका था। इसलिए दिन-रात की सर्दी तो खत्म हो गई थी लेकिन अभी सुबह और शाम की हल्की ठंड बाकी थी। इसी ठंड से पेड़ों और झाडिय़ों पर ओंस की नन्ही नन्ही बूंदें बेशकीमती मोती की तरह चमक रही थी।
नहर की पूर्वी दिशा में बस्ती और पश्चिम दिशा में खेत-खलिहान होने के कारण वहाँ चलने के लिए एक अच्छा और चौड़ा रास्ता बना हुआ था। रास्ते के दोनों ओर आम, नीम, शीशम और जामुन के छायादार पेड़, खड़े थे और उनके आस-पास काँटेदार झाडिय़ाँ। दूसरे तरफ जंगल और खेत थे इसलिए उस तरफ खेतों में काम करने वाले किसान और घास लेने जाने वाली औरतों के अलावा शायद ही कोई चलता हो। इसीलिए सुबह नमाज़ के बाद बहुत से लोग नहर पर टहलने चले आते। इनमें अधिकतर टहलने की बजाय फारिग होने आते, जिनमें औरतों और बूढ़ों की तादाद ज्यादा होती।
सकीला नहर पर पहुँची तो उसे थोड़ी सर्दी के साथ सुबह की ठंडी हवा ने आगोश में दबोच लिया। ताजी ठंडी हवा को अपने फेफड़ों में भरते हुए वह खुद में खोई हुई चली जा रही थी। फिर अचानक  उसने पलटकर अपने आगे-पीछे देखा तो उसे सिवा अपने वहाँ कोई नज़र नही आया। उसने सोचा कि शायद आज बाकी औरतें या तो उससे पहले घूम कर जा चुकी है या उनमें से अभी तक कोई आई नहीं हैं।
वह इसी सोच में गुम थी कि उसने अपने सामने की झाडिय़ों में कुछ चलता हुआ देखा। पहले तो वह बिल्कुल खामोशी के साथ एकटक उस ओर देखती रही। फिर जब हलचल का दायरा बढ़ता हुआ अपनी सीमा को लांघकर उसकी तरफ आने लगा तो वह डर गई। वह झाडिय़ों को गौर से देखते हुए, अपनी जगह से चार-पाँच कदम पीछे हट गई।
तभी झाडिय़ों में से एक काले-सफेद रंग का चित्तीदार कुत्ता, जो अपने मुँह में एक सफेद कपड़ा दबाए था, निकला और उसके सामने आकर खड़ा हो गया।
अपने सामने इस तरह कुत्ते को देखकर पहले तो वह डर के कारण अपनी जगह से हिली नहीं, फिर जल्दी से झुकी और अपने पैर की चप्पल निकालकर कुत्ते को मारने को लपकी। जैसे ही उसने कुत्ते को चप्पल हाथ में लेकर दुत्कारा, कुत्ता अपने ऊपर होने वाले हमले को भाँप गया और कपड़े को वहीं छोड़ दुम दबाकर भाग गया।
कुत्ते के जाने के बाद उसने अपनी जीत की खुशी में एक लम्बी सांस ली और हाथ की चप्पल को नीचे डाल, अपने दोनों हाथों को आपस में छाड़ते हुए उसे पैर में पहनने लगी।
चप्पल को अच्छी तरह से पहन और अपनी चादर को ठीक कर सकीला जब आगे की ओर चलने लगी तो उसकी निगाहें बरबस ही उस कपड़े की ओर चली गई जिसे कुत्ता वहाँ छोड़ कर भागा था। उसने देखा कि कपड़ा अपने-आप ही हिल रहा था। वह कपड़े के पास गई तो, कपड़े से बाहर निकली छोटी-छोटी अँगुलियों को देखकर अवाक रह गई।
सकीला ने जल्दी से कपड़ा को उठाकर देखा तो उसमें एक नवजात शिशु लिपटा हुआ था।
कपड़े में बच्चें को लिपटा देख सकीला ने लगभग चीखते हुए अपने से ही कहा, 'हाय अल्लाह, बच्चा! और वो भी नवजात। फिर छोड़ गई होगी कोई कल-मुँही। अल्लाह! इन नासगइयों से जब खसमों के बिना रहा नहीं जाता है तो माँ-बाप से कहकर शादी क्यों नही करा लेती हैं। क्यों इस तरह इन मासूमों की ज़िदंगी बर्बाद करती हैं।
अपनी बात खत्म कर सकीला ने बच्चें को ठीक से कपड़े में लपेटा कि कहीं उसे ठंड न लग जाए, ओर अपने आप-पास देखा कि कहीं कोई आ तो नहीं रहा है।
मौहल्ला कस्बे के बिल्कुल आखिर में पश्चिमी दिशा में बसा हुआ था। उसके एक तरफ दिल्ली रोड था जो उसे कस्बे से जोड़ता था तो दूसरी यमुना नहर थी जो कस्बे की सीमा निर्धारित करने का काम करती थी। इसके बाद कोई बस्ती नहीं थी। था तो सिर्फ जंगल और खेत-खलिहान। कस्बे का एकमात्र सरकारी अस्पताल भी दिल्ली रोड़ पर ही था। इसी से लगते कई ओर प्राइवेट अस्पताल भी बन गए थे। इसलिए यहाँ इस तरह के बच्चे मिलना कोई नई बात नहीं थी। इससे पहले भी यहाँ ऐसे कई फेंक दिए गए लावारिस बच्चें मिल चुके थे।
बच्चा, जिसके नन्हें-नन्हें हाथ, पैर और चेहरा ठंडी हवा लगने से लाल हो गए थे, कहीं मरा हुआ तो नहीं है यह देखने के लिए सकीला ने उसके सीने पर हाथ रखा तो उसकी धड़कनें चल रही थी।
उसने एक बार फिर आने जाने वालों को देखा और जल्दी से उसे अपनी चादर में इस तरह छुपाया कि वह किसी को दिखे नहीं। चादर को अच्छी तरह अपने ऊपर लपेट वह घर की ओर चल दी।
सकीला ने घर आकर सबसे पहले बच्चे को उस गंदे कपड़े में से निकालकर जिसमें वह लिपटा था, साफ कपड़े में लपेटा और फिर उसे रात का रखा दूध निवाया कर (हल्का गर्म) रूई के फाए से पिलाकर सुला दिया।
बच्चे को सुलाकर वह इस तरह बेफिक्री से घर के रोज़मर्रा के काम को करने लगी जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
सकीला पचास-पचपन साल की एक बूढ़ी महिला थी। उसके शौहर का इंतकाल हो चुका था और दोनों बेटियों की शादी हो चुकी थी। बेटे नाम की उसके पास कोई शै नहीं थी इसलिए वह अब अकेले ही रहती थी। अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए उसने कुछ बकरियाँ पाल रखी थी जो उसके लिए करने को कोई-न-कोई काम बढ़ाती रहती। इससे उसे भी अपने अकेलेपन से कुछ राहत मिलती, और जो समय बचता उसे अपने नमाज़ रोज़े में लगाती।
आंगन में झाडू लगाने के बाद उसने बकरियों को छप्पर में से निकालकर बाहर बाँध दिया और उन्हें रात का रखा घास डाला दिया। फिर वह चूल्हें पर अपने लिए चाय बनाने लगी।
जब वह चाय पी रही थी तभी उसे बच्चा के रोने की आवाज़ सुनाई दी। चाय का प्याला रख वह अंदर चली गई और बच्चों को गोद में उठा लिया। लेकिन वह लगातार रोए जा रहा था, किसी तरह भी चुप नहीं हो रहा था। उसी वक्त बाहर गली से गुजर रही आपा सलीमन, जो इसी साल हज करके आई थी और जिनकी उम्र और दीनदार होने की वज़ह से पूरी बस्ती इज़्जत करती थी, बच्चे के रोने की आवाज़ सुनकर रुक गई। उसने सोचा, सकीला तो अकेली रहती है फिर उसके यहाँ यह बच्चे कि आवाज़ कैसी? लगता है उसकी बेटियाँ आई हुई। चलो उनसे ही मिलती चलूँ। कितने दिन हो गए उनसे मिले भी।
यह सोच कर आपा सलीमन ने सकीला के घर का दरवाज़ा खोला और उसे पुकारती हुई अंदर चली गई।
आपा सलीमन की आवाज़ सुनकर सकीला गोद में बच्चे को लिए, उसे चुप कराती हुई बाहर आई और 'आइये आपा जी’, कहते हुए एक प्लास्टिक की कुर्सी बैठने के लिए उनकी तरफ बढ़ा दी।
आपा सलीमन ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा, 'कैसी हो सकीला?’
'ठीक हूँ आपा जी। आप कैसी हैं?’ सकीला ने कहा।
'अल्लाह का शुक्र है। मैं भी ठीक हूँ। ये बच्चा किस का उठाए हो? बेटी आई हुई है क्या कोई सी?’ आपा सलीमन पूछा।
'वे कहाँ आपा? उन्हें अपने घर से फुर्सत मिले तब तो आएँ। वैसे भी वे अपने बाल-बच्चों में खुश रहे, हमें कौन-सा उनसे यहाँ हल चलवाना है’, सकीला ने जवाब दिया।
'हाँ ये बात तो है। ससुराल में बेटियाँ खुश रहे माँ-बाप के लिए इससे ज्यादा खुशी की कोई बात नहीं। पर जब कोई बेटी नहीं आई तो फिर ये बच्चा किसका है?’
'बच्चा! ये तो मुझे नहर पर मिला।
'क्या?’ आपा सलीमन ने चौंकते हुए कहा, 'वहाँ फिर से बच्चा मिला?’
'हाँ’, कहकर सकीला ने आपा के चेहरे की ओर देखा और उन्हें पूरी बात बताने लगी, 'सुबह नमाज़ पढ़कर जब मैं नहर पर घुमने गई तो पता नहीं कहा से एक कुत्ता अपने मुँह में गंदा कपड़ा दबाए पास की झाडिय़ों में छुपा बैठा था। जब मैंने उसे धमकाकर भगाया तो वह उसे वहीं छोड़ कर भाग गया। मुझे थोड़ेई पता था कि उसमें बच्चा है, वो तो मुझ बाद में पता चला जब मैंने उसे उठाकर देखा।
'और तू उसे घर ले लाई’, आपा सलीमन ने तंज करते हुए कहा।
'और क्या करती?’
'क्या करती?’, आपा सलीमन ने डाँटने वाले अंदाज़ में कहा, 'क्या तुझे पता नहीं कि मोलाना ने ऐसे लावारिस बच्चों को उठाकर घर लाने से मना किया है। क्या पता किनकी नाज़ायज औलाद होते हैं। इन्हें घर लाकर कौन अपना ईमान खराब करेगा।
'क्या, मुझे तो इस बारे में कुछ नहीं पता’, मौलाना की बात पर सकीला ने अपनी अनभिज्ञता ज़ाहिर की।
'तेरा ध्यान दीन (धर्म) की तरफ हो तभी तो पता चले। पता नहीं सारा दिन घर में क्या करती रहती है। ना इज्तमें (औरतों की दीनी मजलिस) में आती है न ही दीन की बात सुनती है’, आपा सलीमन उसे नसीहत करते हुए अपनी बात खत्म की।
ठीक ही कह रही थी आपा सलीमन भी। बीते दिनों जब इस तरह से फेंके गए एक के बाद एक कई लावारिस बच्चें मिले तो, मोलाना ने इनके संभावित माँ-बाप के धर्म को आधार बनाकर एक रोज़ जुमा के दिन यह ऐलान कर ही दिया कि कोई भी मुसलमान भाई-बहन जिसे इस तरह के बच्चें मिले तो वह उसे उठाकर कतई अपने घर न लाएँ। वह या तो इसके बारे में पुलिस में इत्तिला करे या उसे वहीं पड़ा रहने दे। क्योंकि पता नहीं ये किन काफिरों और बुतपरस्तों की नाज़ायज़ औलादें होती हैं।
मोलाना कि बात पर जब कुछ लोगों ने यह कहते हुए आपत्ति दर्ज कराई कि इसमें उन बच्चों का क्या कसुर है? तो मोलाना ने कुरान की वह आयात सुनाकर, जिसमें लिखा है कि यहूदी और बुतपरस्त कभी भी मुसलमानों के दोस्त नहीं हो सकते, उनकी बोलती बंद कर। फिर उन्होंने पूरे एतमाद के साथ दावा करते हुआ कहा कि और हो न हो ये लावारिस बच्चे जिन्हें बेदर्दी के साथ फेंक दिया जाता है वह बिलाशक बुतपरस्तों की ही नाजायज़ औलाद हैं।
 'तो अब मैं क्या करूँ?’ सकीला ने सवाल करते हुए आपा सलीमन से पूछा।
'क्या करूँ?’ आपा सलीमन उसी की बात दोहराते हुए कहा, 'वहीं डाल कर आ जहाँ से लाई है।
 'नहर पे। और वो भी अकेले’, सकीला ने दु:खी होते हुए कहा।
'और क्या? वरना अपना ईमान खराब करने के लिए रख इसे अपने घर में। और जब लोगों को इसके बारे में पता चलेगा तो वह क्या-क्या कहेंगे? ओर मौलाना तो तुझे ईमान से ही खारिज़ करवा फतवा ही सुना देंगे।
'फतवा। नहीं, नही मैं इसके लिए अपने ईमान से खारिज़ नहीं हो सकती। मैं कतई इसे अपने घर में नहीं रखूंगी। मैं अभी इसे वहीं छोड़ आती हूँ जहाँ से इसे लाई थी’, लगभग एक ही साँस में अपनी बात कहते हुए, सकीला घर के अन्दर अपनी चादर लेने चली गई। जब चादर लेकर आई तो तब तक आपा सलीमन भी जा चुकी थी।
सकीला चादर ओढ़कर जब घर से बाहर निकली तो सूरज पूरे आसमान पर फैल चुका था। दोपहर हो गई थी। सूरज अपने पूरी ताकत के साथ चमक रहा था। जिससे चेहरे और गर्दन पर पसीने की बूँदें पैदा हो रही थी जो इस बात एहसास दिला रही थी कि अब गर्मी दूर नहीं है।
बच्चे को लेकर सकीला नहर पर वहीं जा पहुँची जहाँ वह उसे कुत्ते के मुँह में दबे कपड़े में लिपटा हुआ मिला था। बच्चे को खुद से अलग करते हुए उसके दिमाग में ख्याल आया, 'इसमें इस बच्चे का क्या कसूर है? इसे क्या पता की यह हिंदु है या मुसलमान। ओर क्या पता ये किसी मुस्लिम औरत का ही हो?’यह सोचते हुए उसने बच्चें के ऊपर लिपटे कपड़े को हटाया जिसमें वह आँखे मिंचे कुलमुला रहा था। सकीला ने उसके लाल चेहरे, छोटे-छोटे होठ, छोटी सी नाक और बंद छोटी-छोटी आखों को ध्यान से देखा। उसने उसके हाथ की नन्हीं नन्हीं उँगलियों को छुते हुए कहा, 'ओ! कितना प्यारा है। बिल्कुल पिद्दक-सा’, ओर उसे प्यार करते हुए उसके नाक से अपनी नाक मिला दी।
तभी उसे आपा सलीमन की बाते और मोलाना का बयान याद आया। उसने बच्चे को खुद से दूर करते हुए कहा, 'नहीं नहीं, मैं इसे प्यार नहीं कर सकती। और न ही इसे अपने पास रख सकती हूँ। मैं इसके लिए अपना ईमान नहीं छोड़ सकती।
उसने बच्चे को वहीं पास ही पड़े पत्थर के टुकड़े पर लिटा दिया और जल्दी से उसकी ओर से मुँह फेरकर घर की ओर चल दी।
सकीला घर की ओर जाने वाले रास्ते पर चल तो रही थी लेकिन उसका सारा ध्यान बच्चें पर ही था। वह सोच रही थी, 'कितना प्यार बच्चा था बिल्कुल नन्हा-सा। छोटे-छोटे हाथ, छोटी-छोटी आँखें, छोटी सी नाक’, हँसते हुए 'और बिल्कुल छोटी छोटी उँगुलियाँ। और वह उस नन्हीं-सी जान को वहाँ, जंगल में अकेला छोड़ आई। अगर उसकी माँ ने लोक लाज के डर से उसे वहाँ फेंक तो दिया इसमें उसकी क्या खता है? फिर ज़रूरी भी नहीं कि वह किसी हिंदू औरत का ही हो। हो सकता है कि किसी मुसलमान लड़की ने उसे यहाँ फेंक दिया हो। आजकल तो न जाने कितनी कँवारी लड़कियाँ अस्पतालों में आती ही इन्हीं कामों के लिए है। अब कौन बताए कि उनमें कौन हिंदु है और कौन मुसलमान। और फिर बच्चों का क्या धर्म होता है वे तो उसी धर्म के हो जाते है जिसमें वह पलते-बढ़ते है।
सकीला अपने मन में ये बाते सोचते हुए जा ही रही थी कि उसे अपने माथे और गर्दन पर गर्मी की वजह से पैदा हो गई पसीने की बूँदों को महसूस किया। उसने उन्हें साफ करने के लिए अपने चेहरे पर से हल्की सी चादर हटाई तो उसे अपने सामने से एक कुत्ता जाता हुआ दिखाई दिया। कुत्ते को देखकर वह चलते चलते रूक गई।
उसका ध्यान जो इस बीच कुछ पल के लिए बच्चें पर से हट गया था वह कुत्ते को देखते ही फिर उसी पर चला गया। वह सोचने लगी, 'अगर उसे फिर से कोई कुत्ता उठाकर ले गया तो..., तो क्या होगा? क्या करेगा वह उसका? उसे फिर से उठाकर कहीं ओर ले जायेगा या उसे खा लेगा.....ये बातें सोचते सोचते मानो सकीला के कदम बिल्कुल जम गए, वह जैसे आगे बढऩे का नाम ही नही ले रहे थे।
'नहीं नहीं, ऐसा नही हो सकता। उसे कोई नही ले जा सकता। वह मेरा बच्चा है। मैं इस तरह उसे अकेला नहीं छोड़ सकती’, यह कहते सकीला जल्दी से मुड़ी और दौडऩे के अंदाज़ में बाग की ओर चलना शुरू कर दिया।
सकीला नहर पर जब उसी स्थान पहुँच गई जहाँ वह बच्चें को छोड़ कर गई थी तो वह उसी तरह पत्थर पर लेटा हुआ मिला जैसा वह छोड़ गई थी। उसने दौड़कर बच्चें को अपनी बाँहों में उठा लिया और अपने सीने से लगाते हुए कहा, 'मेरे बच्चा, इसमें तेरा क्या कसूर है। अगर तेरी बेरहम माँ ने तुझे यहाँ फेंक दिया। पर तू फिक्र न कर, मैं तेरी माँ हूँ। मैं तुझे पालूँगी। चाहे इसके लिए मुझे ईमान से ही खारिज़ क्यों न होना पड़े’, और फिर उसे चूमते हुए कहा, 'मैं तुझे एक बेहतर इंसान बनाऊँगी। ऐसा इंसान जो लोगों से नफरत नही, मौहब्बत करे।'
संप्रति- रेख़ता (ए उर्दू पोएट्री साइट) में कार्यरत। मोबाईल- 7065710789, दिल्ली में निवास। कथादेश, नया ज्ञानोदय और ई-माटी पत्रिका में कहानियाँ प्रकाशित। 786shahadatkhan@gmail.com

No comments: