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Jul 5, 2014

प्रसाद के साहित्य में पर्यावरणीय चेतना

देखे मैंने वे  शैल शृं
- नवलकिशोर लोहनी/उमेशकुमार सिंह/सुधीरकुमार शर्मा

 आधुनिक काल की हिन्दी कविता या काव्य को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने नई काव्यधारा का तृतीय उत्थान कहा हैजिसे सामान्यत: छायावाद के नाम से जाना जाता है। छायावाद के उदय के सम्बन्ध में श्री शुक्ल का कथन हैप्राचीन ईसाई संतों के छायाभास तथा यूरोप के काव्य क्षेत्र में प्रवर्तित आध्यात्मिक प्रतीकवाद के अनुकरण पर रची जाने के कारण बंगाल में ऐसी कविताएँ छायावाद कही जाने लगी थीं। अत: हिन्दी में ऐसी कविताओं का नाम छायावाद चल पड़ा।
 डॉ. नगेन्द्र ने छायावाद को स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह माना है। जयशंकर प्रसाद के अनुसार जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमय अभिव्यक्ति होने लगी तब हिन्दी में उसे छायावाद के नाम से अभिहित किया गया। नन्ददुलारे बाजपेई ने लिखा छायावाद मानव जीवन सौन्दर्य और प्रकृति को आत्मा का अभिन्न स्वरूप मानता है। मुकुटधर पाण्डे के निबन्ध हिन्दी में छायावाद से पता चलता है कि द्विवेदीयुगीन कविताओं से भिन्न कविताओं  के लिये छायावाद का नाम प्रचलित हो चुका था। किसी ने कहा है वस्तुमें आत्मा की छाया देखना छायावाद है। छायावादी काव्य में प्रकृति-सम्बन्धी कविताओं के बाहुल्य और उसमें प्रतिफलत प्रकृतिपरक दृष्टिकोण को देखकर कुछ विचारकों ने छायावाद को प्रकृति-काव्य भी कहा है।  
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी कविता की नवीनधारा (छायावाद) का प्रवर्तक मैथिलीशरण गुप्त और मुकुटधर पाण्डे को माना हैकिन्तु इसे भ्रामक तथ्य मानकर खारिज कर दिया गया। इलाचन्द्र जोशी और विश्वनाथ जयशंकर प्रसाद को निर्विवाद रूप से छायावाद का प्रवर्तक मानते हैं। विनय मोहन शर्मा और प्रभाकर माचवे ने माखनलाल चतुर्वेदी को  तो नंददुलारे वाजपेयी, सुमित्रानंदन पंत को छायावाद के प्रवर्तन का श्रेय देते हैंकिंतु वर्तमान में जयशंकर प्रसाद को ही सर्वमान्य रूप से छायावाद का प्रवर्तक माना जाने लगा है। छायावादी काव्य में भारतीय परम्परा का प्रवेश ही नहीं हुआ बल्कि उसने युग के काव्य को अत्यंत गहराई तक प्रभावित किया  है।
छायावादी काव्य में ही वर्तमान युग के जनजीवन की व्यापकता की अभिव्यक्ति मिलती है। छायावादी काव्य पूर्ण और सर्वांगीण जीवन के उच्च्तम आदर्श को व्यक्त करने का प्रयास करना है। जयशंकर प्रसादकी कामायनी इस काव्य स्वीकृति का चरम है। इन्हीं कारणों से यह आधुनिक छायावादी काल कहलाया।
छायावादी काव्य को राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय वैशिष्ट्य एवं पहचान देने वाले कवियों में एक नाम है- जयशंकरप्रसाद। इसका कारण मात्र उनकी रचनात्मक ऊँचाई ही नहींबल्कि इतिहास का वह मुहूर्त्त भी हैजिसके दबावों और प्रेरणाओं ने उनकी रचनाशीलता को विशेष दिशा प्रदान की है।
हिन्दी काव्य की छायावादी  धारा के प्रमुख कवियों में युगांतकारी कवि जयशंकर प्रसाद का नाम पहले लिया जाता है। उनकी काव्य-दृष्टि विलक्षण थी और रचना-सामर्थ्य अद्भुत था। उन्होंने कविता को वह असामान्य ऊँचाई और गरिमा प्रदान कीजिसके कारण आज भी उस दौर को खड़ी बोली कविता का उत्कर्ष-काल माना जाता है। कामायनी जैसा महाकाव्य उन्हीं की देन हैजो हिन्दी ही नहीं भारतीय साहित्य का गौरव-ग्रंथ है।
छायावादी काव्य को प्रकृतिपरक  काव्य भी माना गया है। जयशंकर प्रसाद की रचनाएँ कामायनीआँसूझरनालहरकानन कुसुम आदि में प्रकृति का परस्पर सम्बन्ध दर्शाया गया है । प्रसाद जी ने अपने अधिकतर काव्यों में प्रकृतिपरक रचनाओं के माध्यम से मानव जीवन में पर्यावरण में पर्यावरण का पारस्परिक सम्बन्ध एवं महत्त्व दर्शाया गया है। अपने काव्यों के माध्यम से प्रसाद जी ने पर्यावरण के प्रति जन -जागृति लाने का अथक प्रयास किया है। प्रकृति से वर्णित उनके अधिकतर काव्यों में पर्यावरण के प्रति उपकी रूचि एवं गंभीरता दृष्टिगोचर होती है। प्रसादजी ने अपने काव्यों में पर्यावरण के महत्व को अभिव्यक्त कर यह बताया है कि पर्यावरण क्या है  मानव जीवन पर उसका कितना व्यापक प्रभाव है?

मानव जीवन एवं पर्यावरण एक दूसरे के पर्याय हैं । जहाँ मानव का अस्तित्व पर्यावरण से हैवहीं मानव द्वारा निरन्तर कि जा रहे पर्यावरण के विनाश या क्षति के विषय में चिन्तन करते ही हमें भविष्य की चिंता सताने लगती है। यह आंतरिक पीड़ा हम अतर्मन से झकझोर कर रख देती है। जहाँ पर्यावरण एवं मानव का सम्बन्ध आदिकाल से रहा वहीं हमारे प्राचीन वेदों ऋग्वेदसामवेदयजुर्वेद एवं अथर्ववेद में भी पर्यावरण का महत्व दर्शाया गया है। पर्यावरण शब्द का संक्षेप में इस तरह समझा जा सकता है- परि अर्थात चारों ओर आवरण अर्थात ढका हुआ या घिरा हुआ। मानव जीवन के चारों ओर जो भी आवरण है उसे पर्यावरण कहा जाता है। पृथ्वीआकाशजलवायुवनवनस्पतिजीव-जन्तुवृक्ष इत्यादि और वे सभी जिनके मध्य मानव जीवन जीवित रहता है। वे सभी पर्यावरण के अभिन्न अंग हैं एवं एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।
 भारतीय संस्कृति में वन और वनस्पति का बहुत अधिक महत्व रहा है। हमारे ऋषि-मुनि वनों में ही आश्रम बनाकर रहते थे। प्रकृति से उनका गहन सम्बन्ध था। वैदिक ऋचाओं का निर्माण भी वनों में स्थित आश्रमों में हुआ था। मानववन्य जीव-जन्तुवृक्षपर्वतसरितायेंऋतुएँ आदि सभी परस्पर रूप से जुड़े हुए हैं तथा पर्यावरण के अभिन्न अंग है। परायुग में वनसंन्यासी जीवन के तप का प्रमुख केन्द्र हुआ करते  थे। यह वानप्रस्थ आश्रम की निरूक्ति से भी सिद्ध है: वाने
वन समूहे प्रतिष्ठते इति। यह उल्लेखनीय हैकि वेदोंउपनिषदोंपुराणोंस्मृतियोंसूत्रग्रंथों आदि में सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति के भव्योज्ज्वल रूप प्रतिनिहित हैंजिनकी रचना वनाश्रमों में हुई है।
 प्राचीन युग में भी पर्यावरण का अत्यन्त महत्त्व हुआ करता था। उस युग में वनाश्रमों की प्रकृति या ग्रामीण संस्कृति से ही नागरिक संस्कृति या राजतंत्रात्मक संस्कृति का नियंत्रण होता था। तात्पर्य यह है कि प्राचीन भारतीय संस्कृति में भी पर्यावरण का अतिशय महत्त्व हुआ करता था। वैदिक परम्पराओं से लेकर वर्तमान काल में भी वृक्षों की पूजा का विशिष्ट महत्व है। वृक्षों के पूजन से वृक्षों का संरक्षण व संवर्धन भी स्वत: ही हो जाता है। भारतीय संस्कृति मेंपीपल व बरगद विशिष्ट रूप से पूजनीय हैं।
जहाँ हिन्दी साहित्य में आदिकाल (संवत् 1050) से लेकर रीतिकाल (संवत 1900) तक किसी ने किसी रूप में कवियों ने काव्य में प्रकृति एवं पर्यावरण को वर्णित किया हैवहीं आधुनिक काल (संवत् 1900-आज तक) से छायावादी काव्यों में पर्यावरण के प्रति प्रौढ़ता दृष्टिगोचर होने लगी। इस काल के छायावादी कवियों मैथिलीशरण गुप्त्मुकुटधर पाण्डेनन्ददुलारे वाजपेयीपं.सुमित्रानंदन पंतसूर्यकान्त त्रिपाठी निरालामहादेवी वर्माहरिवंशराय बच्च्न आदि ने अपने काव्यों में प्रकृति एवं पर्यावरण सौन्दर्य का चित्रण सुन्दरता के साथ किया है। इसे आधुनिक या गद्यकाल का एक परिवर्तित युग भी कहा जाता है। हिन्दी साहित्य के काव्य की नवीनधारा (छायावाद) के प्रमुख स्तम्भों में एक नाम है- जयशंकर प्रसाद। प्रसादजी ने अपने काव्यों में प्रकृति एवं पर्यावरण को सुन्दरता के साथ संजोया है। जिससे प्रसादजी का काव्य में पर्यावरण व प्रकृति के प्रति गहन चिन्तन परिलक्षित होता है। जयशंकर प्रसाद ने अपने प्रसिद्ध महाकाव्य कामायनीझ्ररनालहरआँसूकानन-कुसुमचन्द्रगुप्तएक घूँट आदि में पर्यावरण के महत्व को दर्शाते हुए उनका सुन्दर चित्रण किया है। प्रसाद के काव्य इडा की सुन्दर पंक्तियाँ-
  देखे मैंने वे शैल शृं,
  जो अचल हिमानी से रंजितउन्मुक्तउपेक्षा भरे तुंग
  अपने जड़ गौरव के प्रतीक वसुधा का कर अभिमान भंग।
  अपनी समाधि में रहे सुखी बह जाती हैं नदियाँ अबोध
  कुछ श्वेत बिन्दु उसके लेकर वह स्तिभित नयन गत शोक क्रोध
  स्थिर मुक्तिप्रतिष्ठा में वैसी चाहता नहीं इस जीवन की
  मैं तो अबाध गति मरूत सदृश हूँ चाह रहा अपने मन की
  जो चूम चला जाता अग जग प्रति पग में कंपन की तंरग
  वह ज्वलनशील गतिमय पतंगा।
  इस दुखमय जवीन का प्रकाश -
  नभ नील लता की डालों में उलझा अपने सुख से हताश
  कलियाँ जिनको मैं समझ रहा वे काँटे बिखरे आसपास
  कितना बीहड़ पथ चला और पड़ रहा कहीं थक कर नितांत
  उन्मुक्त शिखर हँसते मुझ पर रोता मैं निर्वाचित अशांत
  इस नियति नटी के अति भीषण अभिनय की छाया नाच रही
  खोखली शून्यता में प्रतिपद असफलता अधिक कुलांच रही
  पावस रजनी में जुगूनु गण को दौड़ पकड़ता मैं निराश
  उन ज्योति कणों का कर विनाश।

जयशंकर प्रसाद ने अपने महाकाव्य कामायनी के काव्य इड़ा की इन पंक्तियों में मानव जीवन की निराशा एवं पर्यावरण के मह
त्त्व को दर्शाया है। प्रसाद की इन पंक्तियों में मानव जीवन की निराशा उसके स्वयं के कारण होना दर्शित होता है । जो प्रकृति हमारे जीवन की आशा को निराशा को आशा में परिवर्तित करती हैवही प्रकृति इसके दुरूपयोग या विनाश पर विनाशकारी या भयावह भी हो सकती है। कवि का काव्य हमें यह संदेश देता हैकि यदि पर्यावरण का समुचित संरक्षण न किया गया तब जो प्रकृति हमें प्रकाश अर्थात् जीवन देती हैहमें हताश या क्षति पहुंचा सकती है। अत: हमें प्रकृति के महत्व को समझकर पर्यावरण का संरक्षण करना आवश्यक हैजिससे जन जीवन में प्रकाश विद्यमान रह सके। 
प्राची में फैला मधुर राग
जिसके मंडल में एक कमल खिल उठा सुनहला भर पराग
जिसके परिमल से व्याकुल हो श्यामल कलरव सब उठे जाग
आलोक रश्मि से बुने उषा अंचल में आंदोलन अमंद
करताप्रभात का मधुर पवन सब ओर वितरने को मरंद
उस रम्य फलक पर नवल चित्र-सी प्रकट हुई सुन्दरबाला
वह नयन महोत्सव को प्रतीक अम्लान नलिन की नव माला
सुषमा का मंडल सुस्मित सा बिखराता संसृति पर सुराग
सोया जीवन का तम विराग
उपर्युक्त काव्य पंक्तियों में प्रसादजी ने सौन्दर्य व प्रकृति में पारस्परिकता दर्शाते हुए यह बताया है कि सौन्दर्य ही प्रकृति है और प्रकृति ही सौन्दर्य है। अर्थात काव्य का सौन्दर्य भी प्रकृति से ही विद्यमान होता है। जयशंकर प्रसाद ने अपने अधिकांश काव्यों में प्रकृति की महत्ता को दर्शाते हुए पर्यावरण के गूढ रहस्यों एवं तथ्यों को उद्घाटि कर पर्यावरण संरक्षण के प्रति जन-जागृति लाने की पूर्ण चेष्टा की है। अत: यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि छायावादी काव्यों में पर्यावरण चेतना लाने में जयशंकर प्रसादजी की भूमिका अतुलनीय है।

(वन और वन्य जीवन पर केन्द्रित देश की पहली पत्रिका 'पर्यावरण डाइजेस्ट का प्रकाशन संपादक- डॉ. खुशाल सिंह पुरोहित जनवरी 1987 से नियमित रूप से हो रहा है। यह केवल पत्रिका नहीं हैअपितु जन चेतना का सशक्त अभियान है।)

सम्पर्क: संपादक- डॉ. खुशाल सिंह पुरोहित19 पत्रकार कॉलोनीरतलाममप्र 457001 
फोन 07412 231546 मो. 9425078098

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