जनोपयोगी अंक
अप्रैल 2014 का अंक आज ही प्राप्त हुआ। धन्यवाद!
इस बार का अंक बहुत उपयोगी लगा। विशेषकर रक्त कुण्डली और पर्यावरण विषयक आलेखों के कारण यह अंक जनोपयोगी हो सका। पाठकीय प्रतिक्रिया संलग्न है -
प्रतिक्रिया- 1.
संपादकीय आलेख - झोलाछाप डॉक्टरों की गिरफ़्त में ....
प्रदेश में ही नहीं, पूरे देश में झोलाछाप डॉक्टर्स के गिरोह कार्यरत हैं जो आम आदमी की जि़न्दगी की कीमत पर अपनी तिजोरियाँ भर रह हैं। इस समस्या के कई विचारणी बिन्दु हैं; यथा-
1- क्या राज्य सरकारें इस गिरोह को स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करने का अपराधी मानती हैं? यदि हाँ, तो अभी तक इस अपराध को समाप्त करने के लिए क्या उपाय किए गये? कई वर्ष पूर्व छ.ग. शासन के आदेश से झोलाछाप डॉक्टर्स का सर्वेक्षण कर उसके प्रतिवेदन शासन और समीपस्थ थाने को उपलब्ध करवाये गये, जिसका परिणाम यह हुआ कि सर्वेक्षण करने वाले सरकारी अधिकारी झोलाछाप गिरोह के दुश्मन बन गये, दूसरी ओर एक भी झोलाछाप के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं हो सकी। पता चला कि विधिशास्त्र में इस गिरोह पर कार्यवाही करने के लिए कोई धारा ही नहीं है। अलबत्ता इस छीछालेदर के तुरंत बाद झोलाछाप गिरोह के सदस्यों ने, अपने नाम वाले, पहले की अपेक्षा लगभग चार गुने बड़े साइन बोर्ड बनवाकर चौराहे पर लगवा दिए। क्या राज्य सरकारों को इस विषय में गम्भीर होने की आवश्यकता नहीं है? क्या विधि शास्त्र में ऐसी किसी धारा का प्रावधान नहीं किया जाना चाहिये जिसके अंतर्गत ऐसे गिरोहों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही किया जा सकना सम्भव हो सके ?
2- वर्तमान शिक्षा, तकनीकी सुविधाओं की सहज उपलब्धता और आधुनिकता के इस माहौल में क्या स्वयं आम जनता का यह उत्तरदायित्व नहीं है कि वह ऐसे गिरोहों से बचकर रहे?
3- प्रतिबन्धित औषधियाँ झोलाछाप लोगों को इतनी सहजता से क्यों उपलब्ध हो जाती हैं? शासन के औषधि निरीक्षण एवं नियंत्रण विभाग की क्या भूमिका है?
4- औषधि निर्माता बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मेडिकल रिप्रजेंटेटिव्स और झोलाछाप के बीच एक अघोषित समझौता इन$फोर्सड है। इन कम्पनियों को केवल पैसा चाहिये, जिसके लिए झोलाछाप गिरोह की एक बहुत बड़ी भूमिका है। भारत सरकार के पास ऐसी कोई नियामक व्यवस्था नहीं है जो औषधि-निर्माता कम्पनियों को इस अनैतिक व्यापार में संलिप्त होने से रोक सके।
हम यह मानते हैं कि हमारी बहुत सी समस्यायों के लिए हम स्वयं भी बहुत बड़े उत्तरदायी हैं। जब सरकारें हमारे हितों की उपेक्षा करने वाली हों तो अपने हितों की रक्षा हमें स्वयं करनी चाहिये। जबकि होता यह है कि हम कुएँ में कूदने के लिए सदा ही तैयार रहते हैं ...और यह प्रतीक्षा करते रहते हैं कि हमें कूदने से रोकने के लिए सरकार कोई सख़्त कानून बनाए, क्योंकि अंतत: हमारी रक्षा का दायित्व सरकार का है।
प्रतिक्रिया 2-
हीर जी की नज़्में
हीर जी की रचनाओं के बारे में कुछ भी कहना मेरे लिए बड़ा मुश्किल है। वे एक चर्चित और ख्यातिनाम रचनाकार हैं। उनकी रचनाओं को उदंती में प्रकाशित देखकर अच्छा लगा। निश्चित ही इससे उदंती गौरवान्वित हुई है। श्रेष्ठ साहित्यिक रचनाओं का सम्मान करके उदंती प्रकाशन की नवीन ऊँचाइयों को स्पर्श कर रही है।
प्रतिक्रिया 3- शब्दों के मसीहा और उनकी कालजयी कहानी
प्रतिक्रिया से परे। केवल एक स्मित ..आनन्दपूरित!
प्रतिक्रिया 4- हिन्दी व्यंग्य में वाचिक परम्परा के लेखक
मैं के.पी. साहब को तबसे पढ़ रहा हूँ जब मैं कक्षा सातवीं का विद्यार्थी हुआ करता था। घर में आने वाली धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान जैसी पत्रिकाओं के साथ ही के.पी. साहब ने भी अपने व्यंग्य लेखों के माध्यम से अपने एक नन्हे पाठक के मन में स्थान बना लिया था ...जो अभी भी यथावत है।
प्रतिक्रिया 5- इस अंक के सभी लेख स्तरीय, पठनीय और प्रशंसनीय रहे। पत्रिका की उन्नति के लिए हमारी नित्य शुभकामनायें!
- डॉ. कौशलेन्द्र,
kaushalblog@gmail.com
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