सिमट रही है मोरों की दुनिया
- देवेन्द्र प्रकाश मिश्र

भारत का राष्ट्रीय पक्षी बने हुए मोर को 50 साल पूरे हो रहे हैं। सन् 1963 में राष्ट्रीय पक्षी का गौरव हासिल करने वाले मोर की घटती संख्या आजादी के पहले से भी आधी रह गई है। सालों से वन्यजीवों से प्रेम करने वाले अथवा वन्यजीवों के लिए कार्य करने वाले लोग मोर की घटती संख्या पर शोर मचाते रहे हैं, लेकिन आज तक उनकी आवाज 'नक्कार खाने में तूती की आवाज' बनकर रह गई हैं। हालांकि मोरों की सिमट रही दुनिया को संज्ञान में लेकर वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट 1972 के सेक्शन 43 (3) (अ) और सेक्शन 44 में बदलाव की बात शुरू कर दी है। लेकिन यह भी सोचनीय हैं कि राष्ट्रीय पक्षी का दर्जा हासिल होने के बाद भी अब तक देश में कभी मोरों की गिनती का कोई प्रयास नहीं किया गया है। साल 2008 में भारतीय वन्यजीव संस्थान देहरादून (डब्ल्यू आई आई) ने मोर के महत्त्व को देखते हुए इनकी गणना की योजना बनाकर केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को भेजी थी, परन्तु धन को लेकर हुई आनाकानी से गणना का प्रस्ताव फाइलों में कैद होकर गायब हो गया।

भारत की मानव जाति की आस्था और धार्मिक रूप से जुड़े मोर कभी गाँवों के किनारे खेत, खलिहान और बागों में रहते थे, और यह जंगलों मे भी बहुतायत में पाए जाते थे। गावों के बढ़ते विकास, बदलते परिवेश और आधुनिकीकरण के चलते ग्रामीण क्षेत्रों से बागों का सफाया हो गया, जंगलों का विनाश अंधाधुंध किया गया, जंगलों को काटकर खेती की जाने लगी है। इसका दुष्परिणाम यह निकला कि मोरों की दुनिया भी सिमटने लगी है। गाँव के किनारे के बाग और विशालकाय पेड़ मोरों के रैन बसेरा हुआ करते थे। पेड़ों के कट जाने और बागों का सफाया होने के कारण घोषला बनाना और अंडा देना उनके लिए मुश्किल भरा काम हो गया है। इसका सीधा असर यह हुआ कि उनकी वंशवृद्धि की रफ्तार में खासी कमी आयी है। इसके अतिरिक्त फसलों में कीटनाशक दवाओं के प्रयोग का अधिक बढ़ गया है जिसका विपरीत असर खेत, खलिहानों में दाना चुगने वाले मोरों पर भी पड़ा है। उत्तर प्रदेश के एकमात्र दुधवा नेशनल पार्क के जंगलों में कभी भारी संख्या में मोर दिखायी देते थे जो देशी-विदेशी पर्यटकों के लिए आकर्षण के केंद्र बिन्दु हुआ करते थे। लेकिन अब प्राकृतिक आपदा बाढ़ आदि के साथ मानवजनित कारणों के चलते जंगलों के वातावरण में परिवर्तन हुआ तो धीरे-धीरे मोरों की संख्या में गिरावट आने लगी है। स्थिति यहाँ तक पहुँच गयी है कि जंगल के जिन क्षेत्रों में जहाँ कभी मोर झुंड में दिखायी देते थे, अब इक्का-दुक्का ही मोर दिखायी देते हैं, और गावों के किनारे शाम को गूँजने वाली मोरों की मधुर आवाज गायब हो गयी है। अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे खूबसूरत पक्षी मोर के संरक्षण के लिए समय रहते प्रयास नहीं किए गए तो भारत के राष्ट्रीय पक्षी मोरों की दुनिया भी किताबों के पन्नों में सिमट जाएगी।
सम्पर्क: नगर पालिका काम्पलेक्स पलियाकलाँ,
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