असंग्रह है अनमोल
- विजय जोशी
आचरण में आवश्यकता से अधिक के संग्रह की प्रवृति अनुचित और अनर्थकारी है। लोभ पर यात्रा का यह मार्ग अंतत: पतन के द्वार पर दस्तक का प्रथम चरण है। कहा ही गया है- सांई इतना दीजिए, जामे कुटुम्ब समाय, मैं भी ना भूखा रहूँ साधु न भूखा जाय। महात्मा गाँधी ने भी कहा है- धरती पर मनुष्य की आवश्यकता से कई गुना अधिक, पर उसके लालच के मुकाबले बहुत कम है। संग्रह की प्रवृत्ति आरंभ में असुरक्षा के भाव के सामने आत्मरक्षा का उद्घोष बनती है, लेकिन धीमे-धीमे आदत का अंग बन जाती हैं।
बायजीद एक बहुत प्रसिद्ध सूफी संत थे। वे हज की यात्रा पर निकले तो साथ में एक पैसा रख लिया। उन दिनों एक पैसे का भी बड़ा मह्त्त्व था। एक पैसे में सारे दिन का खर्च निकल आता था। एक भक्त ने पूछा- आप यह क्या कर रहे हैं। मात्र एक पैसे के साथ हज की यात्रा पर निकल रहे हैं और उन्हें अशर्फियों से भरी एक थैली राह खर्च हेतु दे दी।
बायजीद ने कहा- रख तो लूँगा पर पहले यह भरोसा दिला कि मैं एक दिन से अधिक तक अवश्य जियूँगा।
धनपति ने कहा- मैं कैसे आश्वासन दे सकता हूँ। कल का किसे भरोसा है।
तब बायजीद ने कहा- तो यह एक पैसा ही काफी है। जब कल का भरोसा ही नहीं तो इंतजाम क्या करना।
पास ही एक फकीर बैठा था। वह हँसते हुए भीड़ से उठ गया। बायजीद उसके पीछे दौड़े और पूछा कि तुम क्यों हँसे।
फकीर ने कहा- यदि एक दिन का भरोसा है तो फिर कल के भरोसे में क्या कष्ट है। जब एक पैसा रख सकते हो तो फिर एक करोड़ भी। क्या अंतर पड़ता है। क्या आज का भरोसा है।
कहते हैं बायजीद ने वह पैसा वहीं गिरा दिया। यह भी कहा जाता है कि उसी पल से बाजयीद को ज्ञान प्राप्त हुआ और वे आगे चलकर प्रसिद्ध सूफी संत कहलाए।
बात का सारांश सिर्फ इतना सा है कि खुद पर और जिसने धरती पर भेजा है उसका भरोसा रखो। भूख से मरने वाले की तुलना अधिक खाकर मरने वालों का प्रतिशत कई गुना अधिक है। लोभ, मोह, लालच, लालसा इनका कोई ओर या छोर नहीं होता। ये तो आदमी को एक बंधुआ मजदूर बनाकर ताउम्र अपना बंधक बनाकर रखती हैं।
इनसे मुक्ति के बाद ही जीवन में आगे का मार्ग सुलभ और सुगम हो सकता है।
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