कन्नाडा के किसान ए महालिंगा नाईकपोथी
- श्री पद्रे
दक्षिण कन्नाडा के किसान ए महालिंगा नाईकपोथी की इकाई-दहाई नहीं जानते लेकिन उन्हें पता है कि बूँदों की इकाई-दहाई सैकड़ा हजार और फिर लाख-करोड़ में कैसे बदल जाती है।
58 साल के अमई महालिंगा नाईक कभी स्कूल नहीं गए। उनकी शिक्षा दीक्षा और समझ खेतों में रहते हुए ही विकसित हुई। इसलिए वर्तमान शिक्षा प्रणाली के वे घोषित निरक्षर हैं। लेकिन दक्षिण कन्नडा जिले के अडयानडका में पहाड़ी पर 2 एकड़ की जमीन पर जब कोई उनके पानी के काम को देखता है तो यह बताने की जरूरत नहीं रह जाती कि केवल गिटपिट रंटत विद्या ही साक्षरता नहीं होती। असली साक्षरता को प्रकृति के गोद में प्राप्त होती है जिसमें महालिंगा नाईक पीएचडी है। पानी का जो काम उन्होंने अपने खेतों के लिए किया है ,उसमें कठिन श्रम के साथ-साथ दूरदृष्टि और पर्यावरण का दर्शन साफ झलकता है।
महालिंगा नाईक बताते हैं कि पहले इस पहाड़ी पर केवल सूखी घास दिखाई देती थी। उनकी बात में कुछ भी अतिरेक नहीं है। आस पास के इलाकों में फैली सूखी घास उनकी बात की तस्दीक करती है। महालिंगा तो किसान भी नहीं थे। जबसे होश सँभाला नारियल और सुपारी के बगीचों में मजदूरी करते थे। मेहनती थे और ईमानदार भी । किसी ने प्रसन्न होकर कहा कि यह लो 2 एकड़ जमीन और इस पर अपना खुद का कुछ काम करो। यह सत्तर के दशक की बात होगी। उन्होंने सबसे पहले एक झोपड़ी बनाई और बीबी बच्चों के साथ वहाँ रहना शुरू कर दिया। यह जमीन पहाड़ी पर थी और मुश्किल में बडी मुश्किल यह कि ढलान पर थी। एक तो पानी नहीं था और पानी आये भी तो रुकने की कोई गुंजाईश नहीं थी। फसल के लिए इस जमीन पर पानी रोकना बहुत जरूरी था।

असफलताओं के बीच पानी की सुरंग
अब यही एक रास्ता था कि सुरंग के रास्ते पानी को यहाँ तक लाया जाए। पानी की सुरंग बनाने के लिए बहुत श्रम और समय चाहिए । दूसरा कोई होता तो शायद हाथ खड़े कर देता लेकिन महालिंगा नाईक ने अपनी मजदूरी भी जारी रखी और सुरंग खोदने के काम पर लग गए। वे किसी भी तरह पानी को अपने खेतों तक लाना चाहते थे ;क्योंकि उनका सपना था कि उनके पास जमीन का ऐसा हरा-भरा टुकड़ा हो जिस पर वे अपनी इच्छा के अनुसार खेती कर सकें और इस काम में अकेले ही जुट गए। काम चल पड़ा लेकिन अभी भी उन्हें नहीं पता था कि पानी मिलेगा या नहीं?
गाँववाले कहते थे महालिंगा व्यर्थ की मेहनत कर रहा है। लेकिन महालिंगा को उस समय न गाँव के लोगों की आलोचना सुनाई देती थी और न ही वे असफल होने के डर से चुप बैठनेवाले थे। चार बार असफल रहे सुरंग बनाई; लेकिन पानी नहीं मिला। सालों की मेहनत बेकार चली गई; लेकिन महालिंगा ने हार नहीं मानी। एक के बाद असफलताओं ने उन्हें निराश नहीं किया। वे लोगों से कहते रहे कि एक दिन ऐसा आएगा जब मैं यहीं इसी जगह इतना पानी ले आऊँगा कि यहाँ हरियाली का वास होगा और नियति ने उनका साथ दिया।
पाँचवी बार वे पानी लाने में सफल हो गए. पानी तो आ गया। अब अगली जरूरत थी जमीन को समतल करने की। उनकी पत्नी नीता उनका बहुत साथ नहीं दे सकती थी ;इसलिए यह काम भी उन्होंने अपने दम अकेले ही किया। उनकी इस मेहनत और जीवट का परिणाम है कि आज वे 300 पेड़ सुपारी और 40 पेड़ नारियल के मालिक है। उस जमीन को उन्होंने हरा-भरा किया जो उन्हें सत्तर के दशक में मिली थी। समय लगा, श्रम लगा लेकिन परिणाम न केवल उनके लिए सुखद है बल्कि पूरे समाज के लिए भी प्रेरणा है।
पाँचवी सुरंग की सफलता के बाद उन्होंने एक और सुरंग बनाई ,जिससे मिलनेवाले पानी का उपयोग घर-बार के काम के लिए होता है। सुरंग के पानी को सँभालकर रखने के लिए उन्होंने तीन हौदियाँ बना रखी हैं जहाँ यह पानी इकट्ठा होता है। सिंचाईं में पानी का व्यवस्थित उपयोग करने के लिए वे स्प्रिंकलर्स और पाइपों की मदद लेते हैं।
रोज एक पाथर

अपने खेतों के लिए इतना सब करने वाले महालिंगा नाईक आज स्थानीय लोगों के लिए हीरो और प्रेरणास्रोत हैं। लोग उन्हें सफल इंसान मानते हैं। लेकिन खुद महालिंगा नाईक अपने से कुछ भी कहने में सकुचाते हैं। कम बोलते हैं और अपने काम में लगे रहते हैं। दूसरों के लिए उदाहरण बन चुके महालिंगा नाईक कर्ज लेने में विश्वास नहीं करते। वे मानते हैं कि जितना है उतने में ही संयमित रूप से गुजारा करना चाहिए। आज तक खुद उन्होंने किसी से कोई कर्ज नहीं लिया सिवाय एक बार जब वे अपना घर बना रहे थे तब बैंक से 1,000 रूपये कर्ज लिया था। दक्षिण में कर्ज लेकर अमीर बनने का सपना पालते किसानों के लिए महलिंगा चुपचाप बहुत कुछ कह रहे हैं। अगर लोग सुनना चाहें तो। (साभार- विस्फोट) इंडिया वाटर पोर्टल से
लेखक के बारे में- पानी और पर्यावरण के पत्रकार श्री 70 के दशक से गाँव और खेत की रिपोर्टिंग कर रहे हैं। 20 साल तक अदिके पत्रिका के मानद संपादक रहे। श्री पानी की रिपोर्टिंग करते हैं और लोग श्री के जरिए पानीदार भारत को समझते हैं।
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