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Jul 5, 2014

गंगा में महाजीवाणु का आतंक

गंगा में महाजीवाणु

का आतंक   - प्रमोद भार्गव

                               
जीवनदायी गंगा पर महाजीवाणु यानी 'सुपरबग’ ने वर्चस्व कायम करके मानव समुदायों पर आतंक का कहर ढहाना शुरू कर दिया है। एंटीबायोटिक रोधी जीव सुपरबग एक प्रकार का जीवाणु हैजो कई बीमारियों के जन्म का कारक है। ताज़ा सर्वेक्षण से पता चला है कि सुपरबग ने गंगा किनारे बसे शहरों और कस्बों को अपनी चपेट में ले लिया है। पवित्र गंगा में पुण्य लाभ के लिए डुबकी लगाते ही सुपरबग सीधे मनुष्य के फेफड़ों पर हमला बोलता है और श्वसन तंत्र को कमज़ोर बनाने का सिलसिला शुरू कर देता है। हाल ही में ब्रिटेन के न्यूकैसल विश्वविद्यालय और दिल्ली आईआईटी के वैज्ञानिकों ने गंगा में सुपरबग की उपस्थिति का दावा किया है।
गंगा-यमुना के प्रदूषण से जुड़ी खबरें अब झकझोरती नहीं हैं। अब तक यह माना जाता था कि गंगा मैदानी इलाकों में कहीं ज़्यादा प्रदूषित है। किंतु ताज़ा सर्वे के अनुसार गंगा कानपुरइलाहबादवाराणसी जैसे नगरों से कहीं ज़्यादा ऋषिकेश और हरिद्वार में दूषित हो चुकी है। अपने उद्गम स्थल गोमुखगंगोत्री से लेकर गंगासागर तक लगभग सभी जगह मैली हो चुकी है। यही मैल महाजीवाणु की उत्पत्ति और उसकी वंश वृद्धि के लिए सुविधाजनक आवास सिद्ध हो रहा है। वैज्ञानिकों ने इसे हाल की उत्पत्ति माना है और दिल्ली के पानी में इसकी मौजूदगी पाए जाने से इसका नाम नई दिल्ली मेटालाबीटा लैक्टेमेस-1 (एनडीएम-1) रखा है। यह भी माना गया है कि एंटीबायोटिक के अत्यधिक उपयोग से यह पैदा हुआ है। इस पर नियंत्रण का एक ही तरीका है कि गंगा में गंदे नालों के बहने और कचरा डालने पर सख्ती से रोक लगाई जाए।
जब दिल्ली में पहली बार वैज्ञानिकों ने सुपरबग की मौजूदगी जताई थीतब दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने दावा किया था कि दिल्ली का पानी शुद्ध व स्वच्छ है और ऐसा महज़ दिल्ली में दहशत फैलाने के मकसद से किया जा रहा है। हालाँकि इसके पहले भारत में सुपरबग की खोज हो चुकी थी। मुंबई के पीडी हिंदुजा नेशनल चिकित्सालय और चिकित्सा शोध केन्द्र के शोधार्थियों ने मार्च 2010 में जर्नल ऑफ एसोसिएशन ऑफ फिजि़शियन्स ऑफ इंडिया में सुपरबग के वजूद का विस्तृत ब्यौरा पेश किया था। इसमें बताया गया था कि एनडीएम-1 अंधाधुंध एंटीबायोटिक के इस्तेमाल के कारण सूक्ष्म जीवों में ज़बरदस्त प्रतिरोध क्षमता विकसित कर रहा है।
शोध पत्र में दावा किया गया था कि एंटीबायोटिक कार्बेपेनिम प्रतिरोधी इस सुपरबग का बहुत छोटे समय में विकसित हो जाना आश्चर्यजनक है। गंगा में इन सूक्ष्म जीवों का पाया जाना इसलिए हैरत में डालने वाली घटना हैक्योंकि करोड़ों लोग गंगाजल का सेवन करके अपने जीवन को धन्य मानते हैं। गोमुख से गंगासागर तक गंगा पांच राज्यों से होकर बहती है। इसके किनारे 29 शहर 10 लाख से ज़्यादा आबादी वाले बसे हैं। 23 नगर ऐसे हैंजिनकी आबादी 50 हज़ार से एक लाख के बीच है। कानपुर के आसपास मौजूद 350 चमड़ा कारखाने हैंजो इसे सबसे ज़्यादा दूषित करते हैं। 20 प्रतिशत औद्योगिक नाले और 80 प्रतिशत मल विसर्जन से जुड़े परनालों के मुँह इसी गंगा में खुले हैं। आठ करोड़ लीटर मल-मूत्र और कचरा रोज़ाना गंगा में बहाया जा रहा है। यही कारण है कि गंगा का जीवनदायी जल जीवन के लिए खतरा बन रहा है।
1985 में राजीव गांधी की सरकार ने गंगा को स्वच्छ बनाने की ऐतिहासिक पहल की थी। यह कार्यक्रम दो चरणों में चला और इन 27 सालों में इस अभियान पर अब तक एक हज़ार करोड़ से भी ज़्यादा रुपए खर्च हो चुके हैंलेकिन गंगा है कि और ज़्यादा मैली होती जा रही है। केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार गंगा को राष्ट्रीय नदी का दर्जा दे चुकी है।
2009 में संप्रग सरकार ने राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण का भी गठन किया। इसकी पहली बैठक गठन के आठ महीने बाद हुई। जिसमें गंगा को अगले 10 सालों में अधिकतम स्वच्छ बनाने का संकल्प लिया गया और नए सिरे से 15 हज़ार करोड़ रुपए खर्च करने की योजना को मंजूरी दी गई। पर वित्तीय जि़म्मेदारी को लेकर शुरू से ही खींचतान शुरू हो गई। दरअसल केन्द्र ने योजना पर आने वाला 30 फीसदी खर्च गंगा के बहाव वाले राज्यों को उठाने को कहा थापर ये राज्य इसके लिए तैयार नहीं हुए। आखिर में पूरा खर्च उठाने की जवाबदेही केन्द्र ने ही ली। पर पांच साल बीत जाने के बावजूद गंगा का मैल इंच भर भी नहीं धुला।   गंगा हमारे देश में न केवल पेयजल और सिंचाई आदि की ज़रूरत की पूर्ति का बड़ा ज़रिया हैबल्कि यह करोड़ों लोगों की आस्था का केंद्र भी है। फिर भी यह दिनोंदिन प्रदूषित होती गई है वो इसलिए कि हमने विकास के नाम पर इस बात की परवाह नहीं की कि हमारे प्राकृतिक संसाधनों का क्या हश्र होने वाला है। यहाँ तक कि हिमालय पर गोमुख से उत्तरकाशी तक 130 किमी में पनबिजली परियोजाएँ शुरू करकेइसके उद्गम स्थल को ही दूषित कर दिया। ज़ाहिर हैप्रकृति के तरल स्नेह का संसाधन के रूप में दोहन करना गलत है। उपभोग की इस वृत्ति पर अंकुश लगना चाहिए। क्योंकि एक नदी की सांस्कृतिक विरासत में वनपर्वतवन्य पशु-पक्षी और मानव समुदाय शामिल हैं। इसलिए कचरा बहाकर नदी के निर्मल स्वास्थ्य को खराब किया जाएगा तो उसमें महाजीवाणुओं के पनपने की आशंकाएँ बढ़ेगी ही। गंगा में महाजीवाणुओं का फैलता वजूद नदी के अस्तित्व से जुड़े संपूर्ण जीव-जगत के लिए संकट का सबब ही बनेगा। (स्रोत फीचर्स)

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