उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Apr 16, 2014

हिन्दी व्यंग्य में वाचिक परम्परा के लेखकःके.पी.सक्सेना

हिन्दी व्यंग्य में वाचिक परम्परा के लेखक

के.पी.सक्सेना

-विनोद साव

हिन्दी साहित्य संसार के प्रसिद्ध कथाकार राजेन्द यादव बीते और उनके दो दिनों बाद ही हिन्दी व्यंग्य जगत् के मशहूर व्यंग्यकार के.पी. सक्सेना हमारे बीच से उठ गए। राजेन्द्र यादव अपने गंभीर रचना कर्म के लिए जाने जाते रहे और के.पी.सक्सेना की लोकप्रियता उनकी हास्य रचनाओं के कारण रही। उनका पूरा नाम कालिका प्रसाद सक्सेना था पर वे साहित्य जगत तथा अन्यत्र भी के.पी. के नाम से जाने जाते रहे। वे लखनऊ के रहने वाले थे और उनकी रचनाओं में लखनऊ की नजाकत देखते बनती थी। उनकी हर रचना अवध की शाम की तरह प्यारी न्यारी होती थी। उनकी भाषा में लखनऊ के अन्दाज की चमक थी और अमीनाबाद की बिरयानी की महक थी।
हिन्दी व्यंग्य साहित्य को समृद्ध करने में जहाँ हरिशंकर परसाई, शरद जोशी और श्रीलाल शुक्ल का योगदान आगे रहा ,वहीं हिन्दी में हास्य रचना लिखने में रवीन्द्रनाथ त्यागी और के.पी.सक्सेना बड़े बेजोड़ रचनाकार रहे हैं। त्यागी ने तो विद्वत्तापूर्ण कुछ गंभीर व्यंग्य रचनाएँ भी लिखी पर के.पी.सक्सेना ने तो हास्य और विशुद्ध हास्य की रचनाएँ ही जमकर लिखीं और उनकी ये रचनाएँ उन्हीं पत्रिकाओं में जमकर छपीं ; जिनमें परसाई और शरद जोशी जैसे दिग्गज रचनाकार छपा करते थे। धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी तमाम पत्रिकाओं में के.पी. सक्सेना की रचनाएँ भी खूब छपीं। अपने समय की मशहूर फिल्मी पत्रिकाओं में भी उनके कॉलम धूम -धड़ाके के साथ छपते रहे। कहते हैं उनकी फुटकर हास्य-व्यंग्य रचनाओं की संख्या पन्द्रह हजार से कम न थीं। उन्होंने उपन्यास लिखे। लगान, जोधा-अकबर, स्वदेश जैसी कुछ फिल्मों की पटकथाएँ भी लिखीं। वे बॉटनी में एम.एस.सी. थे और बॉटनी में लिखी उनकी किताबें भी विश्वविद्यालयों द्वारा निर्धारित की गई थीं। वे भारतीय रेलवे में सेवारत थे। उन्हें अवध के इतिहास का खूब अच्छा ज्ञान था। अपने विपुल लेखन के लिए उन्हें वर्ष 2000 में पद्मश्री सम्मान मिला।
एक जमाना था जब किसी भी पत्रिका या अखबार को हाथ लगाते ही पाठकों को उनमें के.पी. सक्सेना की रचनाएँ दिख जाती थीं... और पाठक उन्हें पढ़े बिना रह नहीं सकते थे। के.पी. की ज्यादातर रचनाएँ छोटी होती थीं- यही कोई एक या आधे पृष्ठ की... लेकिन उसका जायका ऐसा होता था जैसे कोई रचना पढ़ी नहीं जा रही हो बल्कि कोई लजीज बिरयानी खाई जा रही हो। भाषा की अपनी एक खुशबू होती है और इसे के.पी. की रचनाओं में इस तरह से चीन्हा जा सकता है जैसे उनकी रचनाओं में लखनवी मसाले का भभका हो।
हिन्दी हास्य-व्यंग्य रचनाओं में वाचिक परम्परा को स्थापित करने में शरद जोशी का बड़ा हाथ रहा। आलोचना में यह काम नामवर सिंह ने किया। शरद जोशी की तरह गद्य व्यंग्य रचनाओं के पाठ करने की नूतन परम्परा और इसका सफल प्रयोग शरद जोशी की तरह के.पी.सक्सेना ने भी किया। कवि सम्मेलन के मंचों पर ये शरद जोशी और के.पी. सक्सेना ही थे जो अपनी गद्य रचनाओं में रम्य कविताओं का आस्वाद भर रहे थे और हजारों लाखों श्रोताओं में वाह वाही लूट रहे थे। ऐसा भी नहीं था कि वाहवाही लूटने के लिए इन दोनों व्यंग्यकारों ने किसी प्रकार के सतही समझौते किये हों और मंच लूटने के लिए फूहड़ रचनाएँ लिखी हों। इन्होंने हरदम उन्हीं रचनाओं का पाठ किया जो बहुत पहले से प्रतिष्टित पत्रिकाओं में या उनके व्यंग्य संग्रहों में छपी हुई रचनाएँ थीं। उन्होंने मंचों पर पाठ करने के लिए लटके झटकों वाली रचनाएँ कभी अलग से नहीं लिखीं। उन्होंने व्यवस्था पर तीखे प्रहार करने और मूर्खताओं का उपहास उड़ाने के लिए संदेश प्रधान रचनाएँ लिखीं। शरद और के.पी. दोनों के रचना पाठ के टेप हर गली चौराहे में गडग़ड़ाने लगे थे और जनता को तत्कालीन व्यवस्था की विसंगतियों का पाठ वे पढ़ाने लगे थे। ये दोनों ही व्यंग्यकार मंचों के कवियों के लिए एक बड़ी चुनौती के रूप में उभर रहे थे, यह सब बाद में कवियों को समझ में आया, तब वे गद्य व्यंग्य का पाठ करने वाले सफल व्यंग्यकारों से किनारा करने लगे थे। शरद जोशी से मेरी मुलाकात कभी नहीं हो सकी, पर के. पी. सक्सेना से मेरी पहली मुलाकात दुर्ग के शीला होटल में हुई तब उनके साथ प्रख्यात हास्य कवि शैल चतुर्वेदी भी थे। वे दोनों गंजपारा दुर्ग के कवि सम्मेलन में आए हुए थे। के.पी.सक्सेना को प्रणाम करते हुए मुँह से यह निकल गया कि लतीफ घोंघी के बाद आप दूसरे व्यंग्यकार हैं ,जिनके प्रणाम करने का अवसर मिल रहा है। तब वे मुझे रोकते हुए मजाकिया मूड में बोले कि अरे लतीफ भाई के प्रणाम करने के बाद अब मेरा ना भी करो तो चलेगा। दूसरी बार उनसे लखनऊ में ही भेंट हुई जब मुझे अट्टहास सम्मान के लिए बुलाया गया था। के.पी.साहब के साथ व्यंग्य -पाठ का अवसर मिला था। हम सबने रवींद्र भवन के विशाल सभागार में हजारों लोगों के बीच मंच पर बैठकर रचना पाठ किया था। इस बात पर के.पी.साहब आयोजकों पर नाराज हुए कि मैंने हमेशा मंच पर खड़े होकर रचना पाठ किया है और आप लोगों ने मुझे बैठाकर पढ़ा दिया। पर श्रोताओं ने देखा कि के.पी.सक्सेना अपनी रचना पाठ में बैठकर भी उतना ही तहलका मचा देते थे जितना खड़े होकर मचाते थे।

सम्पर्क: मुक्त नगर, दुर्ग मो. 9407984014,                   Email- vinod.sao1955@gmail.com

1 comment:

सुनीता अग्रवाल "नेह" said...

मुझे सक्सेना जी की रचनाये बहुत पसंद है | नमन है |हिंदी साहित्य की क्षति को पूरा करना मुश्किल है | श्रधांजलि