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Sep 27, 2012

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सूर्य को दीपक दिखाना

'मैं क्यों लिखता हूं' सआदत हसन मंटो एवं चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कालजयी रचना 'उसने कहा था' के बारे में कुछ लिखना सूर्य को दीपक दिखाना है। पर प्रेमचंद जी के बारे में चूक शायद 31 जुलाई के कारण हो सकती है। 'पावस' रामेश्वर काम्बोज एवं 'पानी' अख्तरी अली की कविताओं में दम है। रश्मि प्रभा के अपने ही अंदाज में ब्लॉग बुलेटिन में विविधता की अपेक्षा है। स्कूलों में शिक्षक बच्चों की सही लाइन बनवाते हैं और लाइन बनते ही बिगडऩे लगती है। जिन्दगी भर के अनुभव से नहीं सीखने का गम 'हुए जिन्दगी से जुदा, आ लगे कतार में' जवाहर चौधरी हकीकत बयान कर रहे हैं। भोजन के पोषक तत्व कहां गुम हो जाते है सामान्य ज्ञानवर्धक, तो 'बूँदों में जाने क्या नशा है...' सामान्य है। वाह भाई वाह एवं रंगबिरंगी दुनिया में पाठकों के लिए सामान्य तथा नया नहीं होता, ना भी होता तो चलता। बहरहाल जुलाई अंक कुल मिलाकर अच्छा है। 
- बालकृष्ण गुप्ता 'गुरु', बख्शी मार्ग, खैरागढ़

भावपूर्ण कविता जैसा

बूँदों में क्या नशा है... यह लेख तो भावपूर्ण कविता जैसा है। मन-प्राण को भिगोने वाला। अच्छी और जमीन से जुड़ी भाषा। गहन जीवन-अनुभव के बिना इस तरह का लेखन सम्भव नहीं। सुजाता जी को हार्दिक बधाई।
- रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' नई दिल्ली,rdkamboj@gmail.com

बेमिसाल

उदंती के जुलाई मास में आवरण पृष्ठ की खूबसूरती ने मोह लिया। इस माह के अंक का विशिष्ट उपहार है श्री रामेश्वर काम्बोज के पावस के सोलह तांकें। उदंती की यह खासियत है कि वह प्रकृति की पुजारी है- मौसम के अनुरूप काव्यमयी हो उठती है... सुजाता साहा के लेख बूँदों में जाने क्या नशा है ने गुदगुदा दिया, अख्तर अली की कविता पानी ने भावी संकट के प्रति सचेत करते हुए डरा दिया और जवाहर चौधरी की आ लगे कतार में ने जी भर हंसा दिया। उदंती सचमुच बेमिसाल है। बहुत- बहुत बधाई। 
- सुधा गुप्ता, काकली 120/बी, साकेत, मेरठ-3

लेखन का जुदा अंदाज

ब्लाग बुलेटिन से- कोलंबस होना अच्छा लगता है... में राज को देखना अच्छा लगा। नियम से पढ़ती हूँ उनकी हर रचना, उनके लेखन का अंदाज एकदम जुदा है...बहुत पसंद है मुझे उनकी कवितायें।   
- अनु, http://allexpression.blogspot.in/

कविता की शैली

'उदंती' का नया अंक देखा। हमेशा की तरह यहाँ आकर अच्छा ही लगा। ताँका मैं लिखती नहीं, पर भाई काम्बोज जी की कविताएँ मुझे हमेशा से बहुत पसन्द रहीं हैं। जापानी ही सही, पर ताँका है तो कविता की एक शैली ही...काम्बोज जी को उनके खूबसूरत ताँका के लिए बधाई। एक बार फिर 'उसने कहा था' पढ़ कर आनन्द मिला, आभार। पानी की सामयिक समस्या आपने बड़ी खूबी से सामने रखी है। आप के अच्छे संपादन पर मेरी शुभकामनाएँ।         
- प्रेम गुप्ता 'मानी' premgupta.mani.knpr@gmail

उत्तम अंक

उत्तम रचनाओं के साथ सहेजा गया उत्तम अंक। अपने प्रिय लेखकों रामेश्वर काम्बोज और रश्मि प्रभा के साथ-साथ अन्य लेखकों को पढऩा सुखद रहा। डॉ.रत्ना वर्मा को एक उच्च स्तर की पत्रिका के लिए बधाई और शुभकामनाएँ।
- सुशीला शिवराण, गोरेगांव, हरियाणा
http://sushilashivran.blogspot.in/

ये बूंदे...

शैतानी करे, हवा के कंधों पर
चढ़ी ये बूंदें ..., अद्भुत हैं ये ताँकें।
काम्बोज जी को बहुत बहुत बधाई। उदंती पत्रिका से पहली बार रु-ब-रु हुई शुभकामनाएं। 
- हरकीतर हीर, harkirathaqeer@gmail.com

मार्मिक ताँका

बहुत प्यारे ताँके हैं। खासतौर से यह तो बहुत मार्मिक लगा-
बैठ झरोखे, गौरैया ये निहारे
कितना पानी, नीड़ गिरा आँधी से
खो गए कहीं बच्चे।
- प्रियंका गुप्ता, priyanka.gupta.knpr@gmail.com

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