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Aug 25, 2011

जन्म दिवस: 31 अगस्त


वह ताउम्र प्यार की पेशानी का पसीना पोंछती रहीं अमृता प्रीतम

- परितोष चक्रवर्ती
अक्सर लोग कहते हैं कि अमृता अपने आपको ही लिखती रहीं। पता नहीं यह कथन धनात्मक भाव लिए हुए है या ऋणात्मक, किंतु यदि ऐसा है भी तो यह काफी अभूतपूर्व साधना का मार्ग है। बहुत विरले ही होते हैं जो अपने आपको इस कदर जान सकते हैं कि उसे लिख भी सकें।
रेल के सफर में नींद की प्रतीक्षा में जब आप चुपचाप पड़े हों, आंखें बंद हों और मस्तिष्क जागता हो तो कभी- कभी आसपास की कुछ बातें छनकर इस तरह आपके करीब आती हैं कि उन बातों की गंध मस्तिष्क में बनी रह जाती है। अक्सर ऐसी सुगंधों के साथ स्मृतियां कई- कई रूप ले लेती है। मेरे घर का नाम 'आकृति' भी ऐसी ही किसी उनींदी सी यात्रा में एक सुगंध की तरह मेरे भीतर बस गया था। मैं नहीं जानता किस नन्हीं सी बच्ची को कौन सी मां ने दरवाजे के पास न जाने के लिए मना किया था-'आकृति उधर मत जाना,' और इसी समय यह नाम मेरे घर के लिए अंकित हो गया।
ऐसी ही एक यात्रा में मेरे बगल वाले कूपे से देर रात एक आवाज आती है, 'यार अब तो बत्ती बुझा दो, आखिर इस 'रसीदी टिकट' में पूरी रात को समेट लोगी क्या?' मैं आधी नींद में मुस्करा उठा था कि कहीं बगल वाले कूपे में कोई अमृता प्रीतम की आत्मकथा 'रसीदी टिकट' तो नहीं पढ़ रहा है! महिला का कंठ मेरे अनुमान को सच साबित कर जाता है- 'चादर से आंखें ढंक कर सो नहीं सकते क्या? तुम क्या जानो, यह 'रसीदी टिकट' अमृता प्रीतम की है जो उनके प्यार भरे जेहन पर चस्पा है। ये दुनियादारी के नाखून से निकाले नहीं निकल सकती, मैं तो सिर्फ रात ही जाग रही हूं।'
इच्छा हुई थी कि उठूं और अमृता को समझने वाली शख्सियत को देखूं, पर शालीनता की एक हद जो होती है। सुबह देखी जाएगी। सुबह देखा तो पड़ोस के कूपे में दो व्यापारी और दो जवान हंसते- ठठाते मिले, जाहिर है सुबह- सुबह अमृता को पढ़ते- पढ़ते वह रात वाली जोड़ी अपने गंतव्य पर उतर चुकी थी।
कई- कई बार कई- कई प्रसंगों में अमृता प्रीतम की चर्चाएं होती रहीं। कुछेक साल पहले कथा- लेखिकाओं के एक जमावड़े में एक आलेख पढऩे का अवसर मिला था। इसमें मैंने उस वाकये का जिक्र किया था जब इमरोज ने अपने संग- साथ के वादे को बिल्कुल ही अलग अंदाज में अमृता के माथे पर जड़ दिया था। हुआ यह कि कैनवास पर पेंटिंग करते हुए बातचीत के दरम्यान अमृता के माथे पर ब्रश से उसने एक चंद्रमा आंका था और बिना किसी रस्म अदायगी के अमृता के माथे पर सहयात्रा की मुहर लग गई थी। इमरोज खुद कहते हैं- 'हर दोस्ती या प्रेम एक अहसास का नाम है। यह अहसास मुझमें और अमृता, दोनों में था इसलिए हमारे बीच कभी यह लफ्ज भी नहीं आया- 'आई लव यू।' न ही मैंने कभी अमृता से कहा कि मैं तुम्हें प्यार करता हूं और न ही अमृता ने कभी मुझसे।'
अक्सर लोग कहते हैं कि अमृता अपने आपको ही लिखती रहीं। पता नहीं यह कथन धनात्मक भाव लिए हुए है या ऋणात्मक, किंतु यदि ऐसा है भी तो यह काफी अभूतपूर्व साधना का मार्ग है। बहुत विरले ही होते हैं जो अपने आपको इस कदर जान सकते हैं कि उसे लिख भी सकें। दोस्तोवस्की का लेखन भी आत्ममुग्धता का कहां था? कितने लोग हैं जो पीड़ा के फूल चुनकर अपने ही जेहन में गूंथ सके होंगे? आरोह पर तैरना बहुत आसान है, जबकि अवरोह में डुबकी लगाना उतना ही कठिन। दिल की परतों को अपने ही नाखून से खुरचकर भीतर झांककर देखने की प्रक्रिया कुंडलिनी जागृत करने से कमतर नहीं होती। जो वारिस शाह के कथन की गहराई में उतर सकती हो। उसने कभी निचली सीढिय़ों तक उतर कर अपने पांव नहीं धोए। दुख के पसीने को उतने ही ममत्व से वे अपने भिगोए आंचल से पोंछ लिया करती थीं, जैसे कालिया के प्रकोप से पूरे नंदगांव को निजात दिलाने वाले कृष्ण के भीगे बालों को राधा ने उसी तर्ज पर अपने आंचल से सुखाया था, मानो वह कृष्ण नहीं एक छोटा सा छौना हो, उसकी गोद में दुबका हुआ।
इमरोज और अमृता एक- दूसरे को, 'मैं तुम्हारा शीर्षासन, तुम मेरा प्राणायाम' कहा करते। अमृता कहती रहतीं कि 'जिंदगी की सारी कठिनाइयां छोटा सच है और इमरोज का साथ बड़ा सच।' अमृता और इमरोज शब्दों के अवगुंठन की तरह ही जिंदगी भर अपनी- अपनी पहचान को अक्षत रखकर आपस में जुड़े रहे क्योंकि अमृता ने कभी भी किसी की स्वतंत्रता को बांधने की कोशिश नहीं की। कतरा- कतरा दुख को वह गठरी की तरह जतन से रख लिया करती थी, लेकिन उस गठरी को खंगालकर एक- एक दुख को जब वह बाहर ले आती थीं तब तहों में छुपा दर्द मुस्कराहट की ताकत बन जाया करता था। वह ताउम्र प्यार की पेशानी का पसीना पोंछती रहीं।
'आक के पत्ते' उपन्यास का नायक हर जगह अपनी गुम हुई बहन को ढूंढता है तो 'यात्री' उपन्यास की पात्र सुंदरा अमृता की नब्ज में रमकर उसके अपने फलसफे में 4 वर्ष बाद उसके सामने खड़ी हो जाती है। 'एक सवाल' उपन्यास का नायक जगदीप भी अमृता की तरह ही मां की मौत की त्रासदी में अपना वजूद ढूंढता है। 'चट्टान' के पात्र भी अमृता के अंतस में छिपे हुए थे और जब कहानी में उतरे तो वे आज की दुनिया के व्यावहारिक पात्र बन चुके थे। घटनाओं को कलम तक पहुंचने में कभी बिल्कुल देर नहीं लगती तो कभी वे तीस- तीस बरस अंतस की पगडंडियों और सड़कों पर मचलती रहती हैं। यही अमृता के साथ भी हुआ। 'धरती', 'सागर और सीपियां', 'एक थी अनिता', 'एक सवाल', 'जेब कतरे' से लेकर 'पिंजर' तक असंख्य उदाहरण हैं जहां अमृता अपने पात्रों से रूबरू हो चुकी थीं या फिर स्वयं के एहसास से उन्होंने अपने पात्रों के घाव धोए!
मेरे मित्रगण अमृता के लेखन के प्रति मेरे अनुराग, गुलजार की नज्मों के प्रति मेरी दीवानगी, भारती की कनुप्रिया के प्रति अगाध श्रद्धा और अमृतलाल नागर और शिवानी के कथारस के प्रति आकर्षण को अतिरेक की संज्ञा देते हैं। मैं उन्हें समझा नहीं पाता कि वाल्मीकि की गोद में बाण से घायल होकर गिरा पक्षी यदि उनकी रचनात्मकता को एक महर्षि की संवेदना सौंप सकता है, यदि कृष्ण के पूरे जीवन में बांसुरी की उपस्थिति मानवीय तनाव को तरल कर सकती है, यदि किसन के माथे पर टिका मोरपंख प्यार की सम्यक व्यापकता को विकिरण दे सकता है तो मेरे अनुराग पर ऐतराज क्यों है? दंगे- फसाद पर और विभाजन की पीड़ा पर दुनिया भर के तर्कशास्त्रों के सामने रख लिखी कृतियों के बीच यदि अमृता प्रीतम रेशे- रेशे दुख और आंसुओं को पीकर जीने का संदेश पिंजर दे जाती हों तो क्या दंगों की तपिश पर मानवीय सोच की ठंडक बेमानी हो जाती है? यही अमृता के लेखन की ताकत है, यदि अमृता ने अपनी जिंदगी में करोड़ों सांसों को शामिल कर लिया है तो यह उनकी सहनशीलता है। अपने- अपने हिस्से के दुख को दुख की तरह देखना नया नहीं है। नया है दूसरों के दुख में अपने दुख को घोल कर दूसरों के दुख को सहने के काबिल बना देने की कोशिश करना। हां, एक जगह अवश्य अमृता बहुत भाग्यशाली थीं, तमाम अवरोधों, बदनामियों, गालियों के बीच वह वारिस शाह की व्यापकता की उंगली थामे बेखौफ चलती रहीं।
अमृता पंजाबी में लिखती रहीं पर हिंदी के पाठक उसे प्यार से पढ़ते रहे। मनुष्य की दुनिया में सब कुछ मीठा- मीठा भी तो नहीं है। जीवन में खटास की भी अपनी जगह है। 'जिंदगीनामा' को लेकर कृष्णा सोबती और अमृता के बीच एक 'फांस' के होने को लेकर हिंदी की साहित्यिक बिरादरी ने मति- गति के मजे भी लिए, पर अमृता ने किसी मकड़ी को संबंधों पर जाला बुनने की इजाजत ही न दी। आखिर 'मित्रो मरजानी' को संक्षिप्त सा 'बाय' कहा और अलविदा कह गई अमृता।
उसने इमरोज के बुखार से तपते शरीर को साहिर की खूबसूरत यादों की चादर से ढांप लिया था। इमरोज चादर का मर्म और उसकी इयत्ता को मान देना जानते हैं इसीलिए इमरोज ने कभी भी अमृता के प्यार की व्यापकता को आंखें मिच-मिचाकर छोटी कंदराओं में नहीं देखा, वह तो कहता था, मेरे लिए तुम बेटी की तरह रही और तुम्हारे लिए मैं पुत्र की तरह। रिश्तों की सघनता में अमृता का लेखन, इमरोज का साहचर्य और मित्रों की दुनिया- ये अपने आप में आज के हिंदुस्तान में एक अनुष्टुप छंद की तरह है जो तमाम भ्रष्टाचार, विसंगतियों और ज्यादतियों के बीच जीवन के प्रति हमें आश्वस्त करता है। आज तुम नहीं हो अमृता, पर रचनाओं का अमृत कलश तुमने हमारे नाम कर दिया है। क्या इस ऋण को हम कभी चुका पाएंगे?
संपर्क- सी-29, 'आकृति' सेक्टर-3, देवेन्द्र नगर, रायपुर (छ.ग.) मो. 09229259201

2 comments:

raghwendra said...

बहुत ही उम्दा लेख है दिल को छू गया...इस लेख के लिए आपको बधाई...

Smita said...

ohhhhhhh itna sundar lekh..........ji umad aaya hai main bhi amrita ki bahut chhoti si fan hoon.....is lekh ko likhne ka jo andaaz hai sachmuch......uffffff