- गिरीश पंकज
देश की वर्तमान हालात देख कर कई बार महसूस होता है, कि क्या इस देश में आजादी को बहुत हल्के-से लिया जाने लगा है? क्या नागरिक और क्या व्यवस्था, हर कहीं राष्ट्र की गरिमा का ख्याल रखने जैसी कोई बात नहीं आती। सरकार देश को निजी कारोबारियों की तरह चला रही हैं तो नागरिक अपने स्वार्थ में पड़कर देश का नुकसान करने पर तुले हैं। ऐसे विषम समय में देश की हालत पर सोचने और एक बार फिर देश को नवजागरण की दिशा में ले जाने वाली रचनात्मक ताकतों के पक्ष में वातावरण बनाने की जरूरत है।
आजादी के छ: दशक बीत चुके हैं। चौसठ साल का प्रौढ़ स्वतंत्र राष्ट्र है भारत। यह अवधि विकास कि दृष्टि से कम नहीं कही जा सकती। क्या यह शर्म की बात नहीं है कि देश के अनेक गाँव और आदिवासी इलाके आज भी विकास की रौशनी से महरूम हैं, वंचित हैं। कहीं बिजली नहीं, कहीं सड़क नहीं, कहीं पाठशालाएँ नहीं, कहीं स्वास्थ्य सुविधाएँ नहीं। यह कैसा नया भारत हैं, जहाँ शहरों में तो मॉल पर मॉल बनते चले जाएँ, लोग मालामाल होते जाएँ और गाँव बदहाल दर बदहाल होता चला जाए?
दो तरह का समाज बनाते जा रहे हैं हम। एक गरीबों का, एक अमीरों का। शहरों की हालत देखता हूँ तो हैरत होती है। यहाँ दो तरह के स्कूल विकसित हो चुके हैं। एक गरीबों के स्कूल हैं, तो दूसरी तरफ अमीरों के स्कूल हैं। और स्कूल भी कैसे, गोया वे सितारा होटल हों। वातानुकूलित। जो बच्चे कभी मिट्टी से जुड़कर अध्ययन करते थे, स्वस्थ रहते थे। खुली हवा में साँस लेते थे, आज कमजोर शरीर के स्वामी बन रहे हैं। अमीरी का ऐसा भद्दा दिखावा हो रहा है कि मत पूछिए। यही कारण है कि समाज में हिंसा की प्रवृत्ति बढ़ रही है। शहरों में आपराधिक घटनाएँ कई गुना बढ़ी हैं। आदिवासी इलाकों में नक्सलवाद जैसी नई बीमारी का उदय हो चुका है। इससे मुक्ति पाने के लिए ईमानदार प्रयास नहीं हो रहे हैं। इस रोग के पीछे गरीबी, बदहाली, असमानता और विकास के प्रति बेरुखी ही मुख्य कारण है। अगर हम सब इस दिशा में सोचें और कदम उठाएँ तो एक खुशहाल भारत को विकसित करने में कोई दिक्कत नहीं होगी। लेकिन अब इस दिशा में सोचने वाले लोग हाशिये पर हैं। आईना दिखाने वाले चिंतकों को सरकार विरोधी समझने की भी भूल कर दी जाती है। मेरा तो छोटा-सा अनुभव यही है।
आज भी गाँव और आदिवासी इलाके विकास की मुख्यधारा से कटे लगते हैं। जैसे वे बेचारे बाढ़ से घिरे हुए टापू हों। जहाँ बदहाली, भूख और प्यास है। विकास के नाम पर जहाँ केवल एक हड़पनीति है। सारा विकास शहरों के हिस्से आया और गाँव को हमने अछूत की तरह देखा। उसे हमने चुनाव के समय ही नमन किया। यानी कि हमने उसे केवल ठगने का ही काम किया। यही कारण है कि आज एक तरफ इंडिया है, जो पूर्णत: विकसित दिखता है, अँग्रेजी बोलता है, अश्लील या ऊटपटाँग कपड़े पहनता है। आदर्श- नैतिकता जहाँ कोई मुद्दा नहीं हैं। वहीं दूसरी तरफ एक अदद हिंदुस्तान है, भारत है, जो प्रतीक्षा कर रहा है, कि कब विकास की किरण आएगी, और उसका अँधेरा भागेगा। अँधेरे को यहाँ व्याख्यायित करने की जरूरत नहीं है। अँधेरा एक ऐसा रूपक है, जो अनेकार्थ उपस्थित करता है। आज अगर गाँवों में या आदिवासी इलाकों से हिंसा की लपटें निकल रही हैं, तो उसके पीछे शोषण ही रहा है। यह अलग बात है, कि इन लपटों में कुछ शातिर हवाएँ भी शरीक कर राष्ट्र को जानबूझकर क्षति पहुँचाने की कोशिशें कर रही हैं। इसलिए अब यह बेहद जरूरी है कि तमाम तरह के खतरे उठाते हुए और उससे निपटने की तैयारी के साथ हम अपने विकास के एजेंडे में गाँव और वनांचलों को शामिल करें। यह बात समझ ली जानी चाहिए कि गाँव और वनांचलों का विकास ही राष्ट्र का सच्चा विकास है। बिना इसके विकास पूर्णत: एकांगी है, बेमानी है।
देश के सामने महँगाई भी एक बड़ा मुद्दा है। कह सकते हैं कि महँगाई की डायन खा रही है और भ्रष्टाचार का दैत्य हमें परेशान कर रहा है। विदेश में जमा कालाधन वापस लाने की माँग हो रही है, मगर उसे लाने की दिशा में केंद्र का ठंडा रवैया अचरज में डाल देता है। शिक्षा और स्वास्थ्य भी कम अहम मुद्दा नहीं है। गाँवों का विकास अब तक अलक्षित-सा है। न जाने क्यूँ हमने गाँव पर समुचित ध्यान ही नहीं दिया। वैसे अब नई पंचवर्षीयोजना में गाँवों तक इंटरनेट पहुँचाने का लक्ष्य तो बन गया है, लेकिन दुख की बात यही है, कि गावों को विकास की मुख्यधारा से जोडऩे के लिए किए जाने वाले उपाय भ्रष्टाचार की चपेट में आ जाते हैं। दिल्ली में हुए कॉमनवेल्थ खेलों में जो भ्रष्टाचारी- खेल हुए, वे सबके सामने आ गए। संचार घोटाले के कारण केन्द्रीय मत्रियों को तिहाड़ का रास्ता देखना पड़ा। भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में भारत के लोगों का एक चेहरा सामने आया है। निर्माण या विकास के नाम पर भ्रष्टाचार जैसे 'सांस्कृतिक परम्परा-सी' बन गई है। पूरे महादेश में यह रोग फैला हुआ है। एक ओर भ्रष्ट अफसर और नेता मालामाल हो रहे हैं, वहीं, देश की आम जनता गरीबी का दंश भोगने पर विवश है। दिल्ली से लेकर बस्तर तक विकास की गंगा को गटर- गंगा बनाने वाले चंद लोग ही होते हैं। अगर हमारे देश में अफसर और नेता ईमानदार हो जाएँ तो यह देश स्वर्ग बन सकता है। लेकिन अब कोई इस दिशा में सोचता नहीं। सबको यही लगता है, कि जब तक कुर्सी है, कमाई कर लो और निकल लो।
देश की स्वतंत्रता के सामने यह एक बड़ी चुनौती ही है कि जिनके हाथों में हमने विकास की बागडोर सौंपी है, वे दिशाहीन घोड़े की तरह भाग रहे हैं। देश को नेता-अफसर चारा, पिज्जा- बर्गर या चाउमीन समझ कर हजम कर रहे हैं। देश को अपना घर समझ कर उसे सँवारने की कोई कोशिश नहीं हो रही। यही कारण है कि देश में भ्रष्टाचार बढ़ा है। घर भरने की पाशविक मनोवृत्ति के कारण देश हाशिये पर चला गया है। अपना घर- परिवार, अपना भारी- भरकम बैंक- बैलेंस, महँगी कारें, अत्याधुनिक बँगले आदि की ललक ने लोगों को हद दर्जे का अपराधी बना दिया है। इस फितरत के शिकार दिखने वाली जमात को आसानी से पहचाना जा सकता है। मजे की बात है कि ये खलनायक ही हमारे नायक बने हुए हैं। राजनीति और समाज के दूसरे घटक भी भ्रष्ट हो कर विकास करने में विश्वास करते हैं। नतीजा सामने है कि इस समय देश में भ्रष्टाचार सबसे बड़े खेल के रूप में उभरा है। हमारा देश ओलंपिक खेलों में भले ही फिसड्डी रहे, लेकिन वह भ्रष्टाचार में नंबर वन रहने की पूरी कोशिश करता है। यही कारण है, कि विकासशील भारत पर भ्रष्टाचार का काला साया मंडरा रहा है। इसलिए आज हम देखें तो हमारे सामने भ्रष्टाचार एक राष्ट्रीय मुद्दा है। जैसे हम नक्सलवाद या आतंकवाद को देश की बड़ी समस्या मानते हैं, उसी तरह भ्रष्टाचार उससे कहीं ज्यादा बड़ी समस्या है।
बाजारवाद एक दूसरे किस्म की समस्या है। इसकी चपेट में हमारी नैतिकता आ गई है। यह एक दूसरा मसला है, जिस पर फिर कभी लिखूँगा। फिलहाल चौंसठवें स्वतंत्रता दिवस पर अगर देश के सामने उभरने वाले कुछ मुद्दों की बात करें तो इस वक्त भ्रष्टाचार सबसे बड़ा मुद्दा है। इससे मुक्ति के बगैर देश का सच्चा विकास असंभव है। विकास तो एक प्रक्रिया है। वह होगी ही, लेकिन नैतिकता, ईमानदारी, समर्पण, त्याग या फिर कहें कि राष्ट्र प्रेम के बगैर किसी देश का सुव्यवस्थित और स्थायी विकास संभव नहीं हो सकता। मेरा कवि मन अपनी भावनाओं को निष्कर्षत: इन पंक्तियों में अभिव्यक्त करना चाहता है -
मेहनतकश भारत तो दिनभर खटकर मेहनत करता है
मगर इंडिया शोषक बनकर यहाँ हुकूमत करता है।
जब तक एक देश में दो- दो देश यहाँ विकसाएँगे,
हिंसा के दानव को हम सब, कभी रोक ना पाएँगे।
वक्त आ गया है सब मिलकर भारत का उत्थान करें।
जहाँ समर्पण, त्याग खिले उस बगिया का निर्माण करें।
संपर्क: जी-31, नया पंचशील नगर, रायपुर, छत्तीसगढ़ 492001 मो. 094252 12720
देश की स्वतंत्रता के सामने यह एक बड़ी चुनौती ही है कि जिनके हाथों में हमने विकास की बागडोर सौंपी है, वे दिशाहीन घोड़े की तरह भाग रहे हैं। देश को नेता-अफसर चारा, पिज्जा- बर्गर या चाउमीन समझ कर हजम कर रहे हैं। देश को अपना घर समझ कर उसे सँवारने की कोई कोशिश नहीं हो रही। यही कारण है कि देश में भ्रष्टाचार बढ़ा है।
आजादी के छ: दशक बीत चुके हैं। चौसठ साल का प्रौढ़ स्वतंत्र राष्ट्र है भारत। यह अवधि विकास कि दृष्टि से कम नहीं कही जा सकती। क्या यह शर्म की बात नहीं है कि देश के अनेक गाँव और आदिवासी इलाके आज भी विकास की रौशनी से महरूम हैं, वंचित हैं। कहीं बिजली नहीं, कहीं सड़क नहीं, कहीं पाठशालाएँ नहीं, कहीं स्वास्थ्य सुविधाएँ नहीं। यह कैसा नया भारत हैं, जहाँ शहरों में तो मॉल पर मॉल बनते चले जाएँ, लोग मालामाल होते जाएँ और गाँव बदहाल दर बदहाल होता चला जाए?
दो तरह का समाज बनाते जा रहे हैं हम। एक गरीबों का, एक अमीरों का। शहरों की हालत देखता हूँ तो हैरत होती है। यहाँ दो तरह के स्कूल विकसित हो चुके हैं। एक गरीबों के स्कूल हैं, तो दूसरी तरफ अमीरों के स्कूल हैं। और स्कूल भी कैसे, गोया वे सितारा होटल हों। वातानुकूलित। जो बच्चे कभी मिट्टी से जुड़कर अध्ययन करते थे, स्वस्थ रहते थे। खुली हवा में साँस लेते थे, आज कमजोर शरीर के स्वामी बन रहे हैं। अमीरी का ऐसा भद्दा दिखावा हो रहा है कि मत पूछिए। यही कारण है कि समाज में हिंसा की प्रवृत्ति बढ़ रही है। शहरों में आपराधिक घटनाएँ कई गुना बढ़ी हैं। आदिवासी इलाकों में नक्सलवाद जैसी नई बीमारी का उदय हो चुका है। इससे मुक्ति पाने के लिए ईमानदार प्रयास नहीं हो रहे हैं। इस रोग के पीछे गरीबी, बदहाली, असमानता और विकास के प्रति बेरुखी ही मुख्य कारण है। अगर हम सब इस दिशा में सोचें और कदम उठाएँ तो एक खुशहाल भारत को विकसित करने में कोई दिक्कत नहीं होगी। लेकिन अब इस दिशा में सोचने वाले लोग हाशिये पर हैं। आईना दिखाने वाले चिंतकों को सरकार विरोधी समझने की भी भूल कर दी जाती है। मेरा तो छोटा-सा अनुभव यही है।
आज भी गाँव और आदिवासी इलाके विकास की मुख्यधारा से कटे लगते हैं। जैसे वे बेचारे बाढ़ से घिरे हुए टापू हों। जहाँ बदहाली, भूख और प्यास है। विकास के नाम पर जहाँ केवल एक हड़पनीति है। सारा विकास शहरों के हिस्से आया और गाँव को हमने अछूत की तरह देखा। उसे हमने चुनाव के समय ही नमन किया। यानी कि हमने उसे केवल ठगने का ही काम किया। यही कारण है कि आज एक तरफ इंडिया है, जो पूर्णत: विकसित दिखता है, अँग्रेजी बोलता है, अश्लील या ऊटपटाँग कपड़े पहनता है। आदर्श- नैतिकता जहाँ कोई मुद्दा नहीं हैं। वहीं दूसरी तरफ एक अदद हिंदुस्तान है, भारत है, जो प्रतीक्षा कर रहा है, कि कब विकास की किरण आएगी, और उसका अँधेरा भागेगा। अँधेरे को यहाँ व्याख्यायित करने की जरूरत नहीं है। अँधेरा एक ऐसा रूपक है, जो अनेकार्थ उपस्थित करता है। आज अगर गाँवों में या आदिवासी इलाकों से हिंसा की लपटें निकल रही हैं, तो उसके पीछे शोषण ही रहा है। यह अलग बात है, कि इन लपटों में कुछ शातिर हवाएँ भी शरीक कर राष्ट्र को जानबूझकर क्षति पहुँचाने की कोशिशें कर रही हैं। इसलिए अब यह बेहद जरूरी है कि तमाम तरह के खतरे उठाते हुए और उससे निपटने की तैयारी के साथ हम अपने विकास के एजेंडे में गाँव और वनांचलों को शामिल करें। यह बात समझ ली जानी चाहिए कि गाँव और वनांचलों का विकास ही राष्ट्र का सच्चा विकास है। बिना इसके विकास पूर्णत: एकांगी है, बेमानी है।
देश के सामने महँगाई भी एक बड़ा मुद्दा है। कह सकते हैं कि महँगाई की डायन खा रही है और भ्रष्टाचार का दैत्य हमें परेशान कर रहा है। विदेश में जमा कालाधन वापस लाने की माँग हो रही है, मगर उसे लाने की दिशा में केंद्र का ठंडा रवैया अचरज में डाल देता है। शिक्षा और स्वास्थ्य भी कम अहम मुद्दा नहीं है। गाँवों का विकास अब तक अलक्षित-सा है। न जाने क्यूँ हमने गाँव पर समुचित ध्यान ही नहीं दिया। वैसे अब नई पंचवर्षीयोजना में गाँवों तक इंटरनेट पहुँचाने का लक्ष्य तो बन गया है, लेकिन दुख की बात यही है, कि गावों को विकास की मुख्यधारा से जोडऩे के लिए किए जाने वाले उपाय भ्रष्टाचार की चपेट में आ जाते हैं। दिल्ली में हुए कॉमनवेल्थ खेलों में जो भ्रष्टाचारी- खेल हुए, वे सबके सामने आ गए। संचार घोटाले के कारण केन्द्रीय मत्रियों को तिहाड़ का रास्ता देखना पड़ा। भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में भारत के लोगों का एक चेहरा सामने आया है। निर्माण या विकास के नाम पर भ्रष्टाचार जैसे 'सांस्कृतिक परम्परा-सी' बन गई है। पूरे महादेश में यह रोग फैला हुआ है। एक ओर भ्रष्ट अफसर और नेता मालामाल हो रहे हैं, वहीं, देश की आम जनता गरीबी का दंश भोगने पर विवश है। दिल्ली से लेकर बस्तर तक विकास की गंगा को गटर- गंगा बनाने वाले चंद लोग ही होते हैं। अगर हमारे देश में अफसर और नेता ईमानदार हो जाएँ तो यह देश स्वर्ग बन सकता है। लेकिन अब कोई इस दिशा में सोचता नहीं। सबको यही लगता है, कि जब तक कुर्सी है, कमाई कर लो और निकल लो।
देश की स्वतंत्रता के सामने यह एक बड़ी चुनौती ही है कि जिनके हाथों में हमने विकास की बागडोर सौंपी है, वे दिशाहीन घोड़े की तरह भाग रहे हैं। देश को नेता-अफसर चारा, पिज्जा- बर्गर या चाउमीन समझ कर हजम कर रहे हैं। देश को अपना घर समझ कर उसे सँवारने की कोई कोशिश नहीं हो रही। यही कारण है कि देश में भ्रष्टाचार बढ़ा है। घर भरने की पाशविक मनोवृत्ति के कारण देश हाशिये पर चला गया है। अपना घर- परिवार, अपना भारी- भरकम बैंक- बैलेंस, महँगी कारें, अत्याधुनिक बँगले आदि की ललक ने लोगों को हद दर्जे का अपराधी बना दिया है। इस फितरत के शिकार दिखने वाली जमात को आसानी से पहचाना जा सकता है। मजे की बात है कि ये खलनायक ही हमारे नायक बने हुए हैं। राजनीति और समाज के दूसरे घटक भी भ्रष्ट हो कर विकास करने में विश्वास करते हैं। नतीजा सामने है कि इस समय देश में भ्रष्टाचार सबसे बड़े खेल के रूप में उभरा है। हमारा देश ओलंपिक खेलों में भले ही फिसड्डी रहे, लेकिन वह भ्रष्टाचार में नंबर वन रहने की पूरी कोशिश करता है। यही कारण है, कि विकासशील भारत पर भ्रष्टाचार का काला साया मंडरा रहा है। इसलिए आज हम देखें तो हमारे सामने भ्रष्टाचार एक राष्ट्रीय मुद्दा है। जैसे हम नक्सलवाद या आतंकवाद को देश की बड़ी समस्या मानते हैं, उसी तरह भ्रष्टाचार उससे कहीं ज्यादा बड़ी समस्या है।
बाजारवाद एक दूसरे किस्म की समस्या है। इसकी चपेट में हमारी नैतिकता आ गई है। यह एक दूसरा मसला है, जिस पर फिर कभी लिखूँगा। फिलहाल चौंसठवें स्वतंत्रता दिवस पर अगर देश के सामने उभरने वाले कुछ मुद्दों की बात करें तो इस वक्त भ्रष्टाचार सबसे बड़ा मुद्दा है। इससे मुक्ति के बगैर देश का सच्चा विकास असंभव है। विकास तो एक प्रक्रिया है। वह होगी ही, लेकिन नैतिकता, ईमानदारी, समर्पण, त्याग या फिर कहें कि राष्ट्र प्रेम के बगैर किसी देश का सुव्यवस्थित और स्थायी विकास संभव नहीं हो सकता। मेरा कवि मन अपनी भावनाओं को निष्कर्षत: इन पंक्तियों में अभिव्यक्त करना चाहता है -
मेहनतकश भारत तो दिनभर खटकर मेहनत करता है
मगर इंडिया शोषक बनकर यहाँ हुकूमत करता है।
जब तक एक देश में दो- दो देश यहाँ विकसाएँगे,
हिंसा के दानव को हम सब, कभी रोक ना पाएँगे।
वक्त आ गया है सब मिलकर भारत का उत्थान करें।
जहाँ समर्पण, त्याग खिले उस बगिया का निर्माण करें।
संपर्क: जी-31, नया पंचशील नगर, रायपुर, छत्तीसगढ़ 492001 मो. 094252 12720
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