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Apr 1, 2025

उदंती.com, अप्रैल 2025

 वर्ष - 17, अंक - 9

हताशा   - विनोद कुमार शुक्ल

हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था

व्यक्ति को मैं नहीं जानता था

हताशा को जानता था

इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया

मैंने हाथ बढ़ाया

मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ

मुझे वह नहीं जानता था

मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था

हम दोनों साथ चले

दोनों एक-दूसरे को नहीं जानते थे

साथ चलने को जानते थे।                      

इस अंक में 

अनकहीः आम जनता और वीआईपी संस्कृति - डॉ. रत्ना वर्मा

अंतरंग: विनोद कुमार शुक्ल  को ज्ञानपीठ- सायास अनगढ़पन का सौंदर्य - विनोद साव

यात्रा-संस्मरणः भृगु लेक के द्वार तक - भीकम सिंह

सॉनेटः निर्दिष्ट दिशा में - अनिमा दास

प्रेरकः खाना खा लिया? तो अपने बर्तन भी धो लो! - निशांत

आलेखः वीर योद्धा- मन के जीते जीत - मेजर मनीष सिंह - शशि पाधा

संस्मरणः स्मार्ट फ्लायर - निर्देश निधि

कविताः बुद्ध बन जाना तुम - सांत्वना श्रीकान्त 

विज्ञानः बंद पड़ी रेल लाइन का ‘भूत’

लघुकथाः बीमार - कमल चोपड़ा

हाइबनः तुम बहुत याद आओगे - प्रियंका गुप्ता

कविताः बोलने से सब होता है - रमेश कुमार सोनी

व्यंग्य कथाः आराम में भी राम... - डॉ. कुँवर दिनेश सिंह

लघुकथाः आदतें - सारिका भूषण

कहानीः बालमन - डॉ. कनक लता मिश्रा

लघुकथाः मुर्दे - युगल

कविताः शब्द - रश्मि विभा त्रिपाठी

किताबेंः समय, समाज और प्रशासन की प्रतिकृति - अनुज मिश्रा

कविताः इति आई ! - डॉ. सुरंगमा यादव

जीवन दर्शनः व्यर्थ को करें विदा - विजय जोशी


अनकहीः आम जनता और वीआईपी संस्कृति

डॉ. रत्ना वर्मा 

पिछले दिनों छत्तीसगढ़ में चल रहे भोरमदेव महोत्सव में वीआईपी कल्चर के विरोध में लोगों ने कुर्सियाँ तोड़ डालीं। इस महोत्सव में इतने अधिक वीआईपी पास बाँटे गए कि आम लोगों को बहुत पीछे कर दिया गया। फलस्वरूप बड़ी संख्या में कार्यक्रम देखने आई आम जनता ने कुर्सियाँ तोड़कर अपना विरोध प्रकट किया। यह कोई पहली बार या नई बात नहीं है कि वीआईपी को प्राथमिकता देने के चक्कर में आम जनता को दरकिनार किया गया हो । 

आजाद भारत के आम नागरिकों का यह दुर्भाग्य है कि चाहे अस्पताल में डॉक्टर से मिलना हो, मंदिर में भगवान के दर्शन करना हो, उसे घंटों लाइन में खड़े रहकर अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता है । यहाँ तक कि किसी विद्यार्थी को परीक्षा केन्द्र में समय पर पहुँचना हो,  बस, रेल या हवाई जहाज पकड़ना हो; परंतु किसी चौराहे पर अचानक ट्रेफिक रोक दिया जाता है, कारण किसी अतिविशिष्ठ व्यक्ति को उस मार्ग से गुजरना होता है। भले ही इस कारण से किसी मरीज की जान चली जाए, कोई परीक्षा देने से वंचित रह जाए या किसी की गाड़ी ही छूट जाए। इन सबसे  न राजनेताओं, न बड़े अधिकारी, और उन कुछ अतिविशिष्ट की श्रेणी में आने वाले को कोई फर्क पड़ता।  

वीआईपी संस्कृति का एक दर्दनाक उदाहरण है- कुंभ प्रयाग के संगम में भगदड़ और लोगों की मौत। वीआईपी संस्कृति सिर्फ सत्ता और राजनीति तक सीमित नहीं है, बल्कि यह व्यवसाय, खेल और मनोरंजन जगत में भी बहुतायत से देखने को मिलती है, जिसका खामियाजा जनता को भुगतना पड़ता है। भीड़भाड़ वाले सामाजिक सांस्कृतिक और धार्मिक आयोजनों में वीआईपी कल्चर अक्सर आम जनता की सुरक्षा के लिए खतरा बन जाता है।  

ऐसा नहीं है कि वीआईपी कल्चर को समाप्त करने के लिए चर्चा नहीं होती, इस पर अंकुश लगाने के प्रयास भी होते हैं; परंतु हम इसे खत्म नहीं कर पा रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2017 में ‘देश का प्रत्येक व्यक्ति महत्त्वपूर्ण है’ कहते हुए मंत्रियों और अधिकारियों की गाड़ियों से लाल बत्ती हटाकर बदलाव लाने की कोशिश की थी। पर यह हम सब जानते हैं कि लालबत्ती हटाना मात्र दिखावा ही साबित हुआ है। इसी तरह वे गणतंत्र दिवस के समारोह में श्रमिकों और कामगरों को विशेष अतिथि का दर्जा देकर भी वीआईपी संस्कृति को बदल नहीं पाए। 

अब तो देखा यह जा रहा है कि राजनेता और अधिकारी पहले से भी अधिक वीवीआईपी बन गए हैं और अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए शान से चलते हैं । दरअसल राजनीति आजकल जनसेवा कम, अपनी सेवा ज्यादा हो गई है। यही वजह है कि कानून भी उनके लिए अलग तरीके से लागू किया जाता है, जिससे कानून पर भी उँगली उठने लगी है।  पिछले दिनों न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के सरकारी आवास में मिले नोटों की बोरियों के ढेर ने कई प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए हैं। 

 जाहिर है वीआईपी संस्कृति देश की तरक्की को कमजोर करती है। यह असमानता लोकतंत्र के लिए एक बड़ी बाधा है।  विशेषाधिकार प्राप्त करने के लिए कई लोग भ्रष्टाचार का सहारा लेते हैं। नेता और अफसर अपने पद का दुरुपयोग कर गैरकानूनी रूप से विशेष सुविधाएँ लेते हैं। इससे भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद को बढ़ावा मिलता है।

अगर देश को विकासशील देश की श्रेणी में रखना है, तो लोकतंत्र में सबके लिए समानता होनी चाहिए। हमारे सामने दुनिया के कई ऐसे देशों के उदाहरण हैं, जहाँ वीआईपी संस्कृति का चलन नहीं है जैसे - नॉर्वे में प्रधानमंत्री और अन्य उच्च पदस्थ अधिकारी आम नागरिकों की तरह जीवन व्यतीत करते हैं। वे बिना सुरक्षा काफिले के सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करते हैं और सामान्य नागरिकों की तरह ही लाइन में लगकर अपनी बारी का इंतजार करते हैं। इसी प्रकार स्वीडन, डेनमार्क, फिनलैंड, आइसलैंड, नीदरलैंड्स, जापान जैसे कई और भी देश हैं जो वीआईपी संस्कृति से कोसों दूर हैं। जब इन देशों में वीआईपी संस्कृति का प्रचलन नहीं है, तो फिर भारत जैसे सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में इस संस्कृति को भी खत्म किया जा सकता है।

लेकिन बड़े दुख के साथ कहना  पड़ता है कि हमारे देश में  जनता की बजाय वीआईपी की सेवा को प्राथमिकता दी जाती है। ऐसे में जब आम लोग देखते हैं कि कुछ लोगों को विशेष सुविधाएँ मिल रही हैं, तो उनके मन में असंतोष पनपता है। यह असमानता समाज में गुस्से, नफरत और विद्रोह को जन्म देती है। यह भी देखा गया है कि वीआईपी संस्कृति के कारण प्रशासन निष्पक्ष रूप से काम नहीं कर पाता। पुलिस और सरकारी अधिकारी वीआईपी की सुरक्षा और सेवा में लगे रहते हैं, जबकि आम लोगों की समस्याओं की अनदेखी की जाती है।

 अतः यह सुनिश्चित करना होगा कि कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर न हो। नेताओं को यह समझना होगा कि वे जनता के सेवक हैं, न कि शासक। यदि हमें सच्चे लोकतंत्र की ओर बढ़ना है, तो इस संस्कृति को जड़ से खत्म करना होगा। इसके लिए सरकार, प्रशासन और जनता तीनों को अपनी भूमिका निभानी होगी। जब तक जनता जागरूक नहीं होगी और अपने अधिकारों के लिए नहीं लड़ेगी, तब तक यह समस्या बनी रहेगी। हमें ऐसे समाज की ओर बढ़ना होगा, जहाँ हर नागरिक को समान अधिकार मिले, और कोई भी व्यक्ति अपने रसूख के बल पर विशेषाधिकार प्राप्त न कर सके। तभी हमारा देश सही मायने में लोकतांत्रिक देश कहलाएगा।

अंतरंग: विनोद कुमार शुक्ल को ज्ञानपीठ

 सायास अनगढ़पन का सौंदर्य

 - विनोद साव 

विनोद कुमार शुक्ल की एक प्रसिद्ध कविता मैंने भी पढ़ी थी- ‘जंगल के दिन भर के सन्नाटे में’ और उसे डायरी में नोट कर लिया था। उस कविता को बार- बार पढ़ने का मन होता था। कुछ याद-सी हो गई थी। इस कविता में विनोद जी जंगल के ‘इको फ्रेंडली’ यानी मित्रवत माहौल का जिक्र करते हैं:

एक आदिवासी लड़की

महुवा बीनते बीनते

एक बाघ देखती है

आदिवासी लड़की को बाघ

उसी तरह देखता है

जैसे जंगल में एक आदिवासी लड़की दिख जाती है

जंगल के पक्षी दिख जाते हैं

तितली दिख जाती हैं

और बाघ पहले की तरह

सूखी पत्तियों पर

जम्हाई लेकर पसर जाता है

 

एक अकेली आदिवासी लड़की को

घने जंगल जाते हुए डर नहीं लगता

बाघ, शेर से डर नहीं लगता;

पर महुवा लेकर गीदम के

बाजार जाने से डर लगता है

 

बाजार का दिन है

महुवा की टोकरी सिर पर बोहे

या काँवर पर

इधर उधर जंगल से

पहाड़ी के ऊपर से उतरकर 

सीधे-सादे वनवासी लोग

पेड़ के नीचे इकट्ठे होते हैं

और इकट्ठे बाजार जाते हैं।

उनकी इस तरह की बोलती कविताएँ हैं कि इन पर बोलने की ज्यादा जरूरत न पड़े। ऐसी कविताओं के कारण कई बार उन पर उंगली भी उठ जाती है कि उनकी ये बोलती बतियाती शब्द-रचनाएँ कविता नहीं हैं और विनोद जी नकली कवि हैं। उनकी रचनाओं का चिरपरिचित- अटपटापन उनके शीर्षक से ही आरंभ हो जाता है जो उनकी रचना में विस्तारित होते हुए सायास अनगढ़पन के सौन्दर्य को जनमता है। यह अनगढ़पन उनकी कविताओं और गद्य रचनाओं के बीच झूलता रहता है इससे उनकी कविताएँ उन पाठकों के लिए भी पठनीय हो जाती है जिन्हें कविता की समझ कम हो। संभव है कुछ ऐसा ही पाठकीय समीकरण वहाँ भी बन जाता हो जहाँ उनकी कहानियाँ ऐसे हलके में पहुँच जाती हों जहाँ गद्य रचनाओं की कम समझ वाले पाठक हों फिर भी उन्हें समझ में आ जाती हो।

ऐसी ही उनकी एक कविता है- ‘रायपुर-बिलासपुर संभाग’ जिसमें एक ट्रेन बिलासपुर से रायपुर की ओर आ रही है और बैठे हैं- ग्रामवासी, जो पहली बार खाने कमाने के नाम से परिवार सहित रायपुर आ रहे हैं। वे रायपुर स्टेशन की भीड़ और चकाचौंध को विस्मय से देख रहे हैं। उस लम्बी कविता में एक बड़ी छू लेने वाली पंक्ति है उस गरीब जनमानस के संशय, भय और कौतूहल को उद्घाटित करती हुई कि ‘कितने ही लोगों ने देखा होगा पहली बार, रायपुर इतना बड़ा शहर।’ इस शब्द रचना में जनमानस में भविष्य की उम्मीदों के बीच महानगरीय आतंक का भय भी समाया होता है। उस जन के मन में यह संशय तो है कि महानगरीय जीवन का यह चेहरा उन्हें आक्रांत न कर दे, उन्हें क्षतिग्रस्त न कर दे।

अमूमन हर बड़े रचनाकार के विरोधी होते हैं पर विनोद जी का हर मोर्चे पर विरोध होता रहा। यह विरोध चाहे उनकी रचनाओं की भाषा, शैली, शिल्प में तोड़फोड़ पर हो या उनके आत्म-केंद्रीयकृत जीवन जीने के ढंग पर हो... विरोध और असहमतियाँ उनके साथ चलती रहीं, जबकि विनोद जी को किसी का भी विरोध करते हुए नहीं देखा गया। रचना में भले हो पर विनोद जी के व्यवहार में विरोध या प्रतिकार जैसी कोई चीज कभी दिखती नहीं। असहमतियाँ भी शायद उनकी कुछ ऐसे भोलेपन से हों कि उनका यकबायक अहसास नहीं हो पाता, उनके आसपास रहने वालों को। विनोद जी जैसे ही एक और शांतचित्त व्यक्तिव हैं छत्तीसगढ़ में, वे हैं बिलासपुर के गंभीर चिन्तक आलोचक राजेश्वर सक्सेना।

धीर-गंभीर और शांतचित्त होने के बाद भी विनोद जी के लेखन -कर्म के विरोधी इतने रहे कि उनका घर साहित्यकारों का अड्डा नहीं बन सका, न वहाँ कोई मजमा जमा। जो कई बड़े साहित्यकारों का प्रिय शगल रहा। रायपुर के उनके सहनामी लेखक व्यंग्यकार विनोद शंकर शुक्ल के घर बूढ़ापारा में आने- जाने वाले लोग बहुत रहे; पर विनोद कुमार शुक्ल के शैलेन्द्र नगर वाले घर में वैसा ही सन्नाटा पसरा रहा, जैसा कि ऊपर की कविता- ‘जंगल के दिन भर के संन्नाटे में’ है। रचना के हिसाब से इन दोनों विनोद में कोई तुलना नहीं सिवाय इसके कि इन दोनों विनोद को... बहुत बार विनोद शंकर शुक्ल को लोग विनोद कुमार शुक्ल ही कहते रहे। कभी- कभी विनोद कुमार शुक्ल को विनोद शंकर शुक्ल कह दिया जाता था, तब यह देखकर विनोद शंकर शुक्ल बड़े हर्षित हो जाते थे मानों उन्होंने अपना बदला निकाल लिया हो।

बाहर से आने वाले साहित्यकार कमलेश्वर, राजेंद्र यादव, नामवर सिंह रायपुर के स्थानीय आयोजकों से पूछते थे कि “विनोद जी कहाँ हैं?” पर वहाँ विनोद जी दिखाई नहीं देते थे और न अतिथि साहित्यकार उनसे मिलने जाने की जहमत उठाते थे। पर हाँ अशोक वाजपेयी, नरेश सक्सेना, डॉ. राजेंद्र मिश्र जैसे कई महत्त्वपूर्ण लेखक रहे जो विनोद जी की न केवल खोज खबर लेते रहते थे बल्कि उनके साथ वक्त भी भरपूर गुजारते थे। पर उनकी आत्म-केन्द्रीयता के कारण अपनी खुन्नस उतारते हुए कुछ लेखक विनोद जी की चर्चा कर चुहलबाजी किया करते थे। रायपुर में ही एक बार अपनी चतुर सुजानी के लिए कुख्यात राजेन्द्र यादव ने काशीनाथ सिंह को खेलते हुए पूछ लिया था कि ‘काशीनाथ जी.. पटना में विनोद कुमार शुक्ल जैसे लेखक हो सकते हैं क्या?’ काशीनाथ जी सोचते रहे फिर अपनी बड़ी- बड़ी आँखों में कुछ संशय का भाव लाते हुए, दाएँ बाएँ मुंडी हिलाते हुए बस इतना ही कहा- ‘‘पटना में ! वहाँ कैसे होंगे...ना !’’ 

विनोद जी को चाहने वालों का वर्ग भी छोटा नहीं है। विशेषकर रायपुरवासी डॉ. राजेन्द्र मिश्र तो विनोद कुमार शुक्ल के बड़े प्रेमी लगते थे। उनका संग साथ भी अक्सर दिखा करता था। एक बार दुर्ग में कनक तिवारी के घर पर आहूत संगोष्ठी में उन्होंने धीरे से ही सही; पर यह कह तो दिया था - ‘हिंदी में गद्य और पद्य का विपुल लेखन करने वालों में अज्ञेय के बाद विनोद कुमार शुक्ल का नाम लिया जा सकता है।”

केदारनाथ सिंह की तरह विनोद जी की कविताएँ भी पाठको को अपनी कविताओं का पाठ करने के लिए आमंत्रित करती हैं और ये दोनों कवि अपनी कविताओं का अच्छा पाठ भी करते रहे हैं। जैसे कविता ही इनके वक्तव्य हों और ये ऐसे प्रवक्ता जो कविता के माध्यम से मुखरित हो रहे हों। साहित्यिक गोष्ठियों में अक्सर सभी बोलते हैं पर विनोद जी नहीं बोलते हैं और जब संचालक उनका नाम जोर देकर पुकार देते हैं, तब वे दोनों हाथ जोड़कर बोल उठते हैं - “नहीं बोलने वाले आदमी को आप लोग क्यों बुलवाना चाहते हैं।” पर कहीं विनोद जी ने बोल दिया, तब श्रोताओं को यह भी अनुभव हो जाता है कि विनोद जी बोलते भी अच्छा हैं... सरसता है उनके बोलने में; पर ज्यादातर बार लोग उनके अच्छे व सरस वक्तव्य से वंचित ही होते आ रहे हैं।

1993 के बाद जब मेरी उनसे पहली बार मुलाकात हुई, तब मैंने अपना पहला व्यंग्य संग्रह ‘मेरा मध्यप्रदेशीय हृदय’ उन्हें भेंट किया था। वे किसी साहित्य समागम में आए और भिलाई होटल के कमरे में अपनी खाट पर बैठे हुए थे। मैं कुर्सी लेकर उनके करीब हो गया था। वे देखने और बातचीत करने में बिलकुल सीधे सरल लगे थे। बाद में उन्होंने शैलेन्द्र नगर रायपुर के अपने मॉर्निंग वाक के एक साथी व्यंग्यकार अश्विनीं कुमार दुबे से कहा था - “विनोद साव का लिखा मुझे अच्छा लगता है।” कई बार यह जुड़ाव ‘सहिनाव’ (सहनामी) होने के कारण भी हो जाता है। 

विनोद जी के लेखन में विनोद प्रियता की झलक मिलती रहती है। चाहे कविता हो या कहानी स्थितियों एवं चरित्रों में विशेषकर उनके उपन्यासों के कई प्रसंगों में बरबस ही हास्य खिल उठता - ‘खिलेगा तो देखेंगे’ के जीवराखन और डेरहिन के प्रेम प्रसंगों की तरह। या दीवार की खिड़की से पार होकर प्रेम करते बिम्बों में। कभी विनोद जी भी किसी विनोदपूर्ण क्षण में मुँह उठाकर इसे हल्की मुस्कान से दबाने की चेष्टा कर रहे होते हैं, तब भीतर का विनोद उनकी रंगत में उतर आता है। उनके उपन्यास ‘नौकर की कमीज’ का अंग्रेजी व फ्रेंच में भी अनुवाद हुआ है- ‘द सर्वेन्ट्स शर्ट’ नाम से। कहते हैं कि उनकी यह कृति जितनी भारत में बिकी उससे कई गुना अधिक फ़्रांस में बिकी।

जब मैं रायपुर आकाशवाणी में व्यंग्य-पाठ के लिए आमंत्रित होता था, तब अक्सर लौटते समय व्यंग्यकार विनोद शंकर शुक्ल के घर बैठ जाता था। एक बार कथाकार विनोद कुमार शुक्ल जी की याद आई; क्योंकि लम्बे समय के अन्तराल के बाद भी उनसे दूसरी बार मिलना न हो सका था और केवल फोन पर बातें होती रही थीं। कभी- कभी उनकी कोई कविता कहीं छपी हुई दिख जाने पर उन्हें फोन करता और कविता पढ़कर फोन में ही उन्हें सुना दिया करता था और वे उसे चुप तन्मयता से सुन रहे होते थे। मैंने उनसे पूछा - “आपके घर कैसे पहुँचा जा सकता है सर?” तब उनसे यह सुनकर आश्चर्य हुआ- “आप शैलेन्द्र नगर के आसपास जहाँ कहीं भी उतर जाएँगे, मैं आपको स्कूटर से लेने आ जाऊँगा।”

उन्होंने डाक से अपने बेटे की शादी का निमंत्रण भेजा था, तब थोड़ा आश्चर्य हुआ कि अपने नितांत निजी उत्सव पर भी एक बड़े लेखक ने मुझे याद किया है। भिलाई के मित्रों के साथ रायपुर के विवाह स्थल में पहुँचा, तब वे बेटे की बारात लेकर चल रहे थे और मुझे बारात में शामिल होते हुए उन्होंने देख लिया था और देखते ही लपककर पास आ गए और ‘विनोद भाई’ कहते हुए गले लगा लिया था। बेटे की शादी में भी विनोद जी का इतना सादगी पूर्ण पहनावा था, जैसे वे अपने रोज के जीवन में कहीं भी दिख जाते हैं। वे लिखने- पढ़ने, बोलने- बताने और व्यवहार में इतने आम आदमी लगते हैं, जैसे उनके उपन्यास में ‘नौकर की कमीज’ का मुख्य पात्र संतू बाबू या फिर ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ का रघुवर प्रसाद हो। उपन्यास के इन दोनों प्रमुख पात्रों में जान नहीं आई होती; अगर इनमें विनोद कुमार शुक्ल जैसा अनगढ़पन नहीं घुसा होता। उनके एक कथा संग्रह ‘महाविद्यालय’ की भी याद आ रही हैं।

उनकी कृतियों को पढ़ते समय रचना में विनोद कुमार शुक्ल के अनगढ़पन का सौन्दर्य बोलता है। यह विशेषता उनके भाषायी चित्रण में होती है। विनोद जी से जब भी जिस उम्र में मुलाकात हो आज भी जब वे नब्बे के करीब होने जा रहे हैं, वे शिशुता बोध से भरे मिलते हैं... और इसलिए चाहे उनकी कविता ‘रायपुर-बिलासपुर संभाग’ हो या उपन्यास की कोई कथा हो, इन रचनाओं में उनके अनगढ़पन का सौन्दर्य वैसे ही पसरा होता है, जैसे किसी बच्चे द्वारा बनाए गए मिटटी के आढ़े -तिरछे खिलौनों में भरा होता है। अपनी ऐसी कुछ विशेषताओं के कारण वे बालसाहित्य के भी सुलभ लेखक हो गए हैं।

एक आत्मीय क्षण में कथाकार कमलेश्वर
और विष्णु खरे के साथ हैं विनोद जी

मैं पूछता हूँ- “जैसा जीवन आप जीते हैं, उसमें उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ की कहानी ‘मैरिड लव’ की कहानी ही बन सकती थी।” वे भोलेपन से बोल उठते हैं - “हाँ... कुछ पाठकों ने मुझे कहा भी था कि इस उपन्यास को पढ़कर यह जाना कि अपनी पत्नी से प्यार कैसे किया जाता है।” वैसे भी विनोद जी की कहानियों में पत्नी होती है, प्रेयसी नहीं।

उन्हें घेरकर खड़े हुए अभिजात्य विनोद जी के अनगढ़पन को ध्वस्त नहीं कर सकते। जबकि विनोद कुमार शुक्ल के लेखन का अनगढ़पन उनकी कविता- कहानियों में अनायास आ गए अभिजात को निरंतर ध्वस्त करते चलता हैं। विनोद जी के विशिष्ट लेखन- कौशल से उनका अपना एक स्कूल भी बन गया है। निर्मल वर्मा के बाद ये विनोद कुमार शुक्ल ही हैं, जिनकी लेखन शैली का अनुकरण करते हुए परवर्ती पीढ़ी के लेखक देखे जाते हैं।

रायपुर वासी प्रसिद्द समालोचक रमेश अनुपम ने फेसबुक में ‘विनोद कुमार शुक्ल होने के मायने’ स्तम्भ से सौ किस्तें पोस्ट कर दी हैं... और अब वे समग्र रूप से एक ग्रंथ में प्रकाशित होंगी। यह कोशिश प्रबुद्धजनों द्वारा सोशल मीडिया से परहेज किए जाने के बदले में उसकी मान्यता को सिद्ध करती है।   

संभवत: विनोद जी के साथ मेरा कोई चित्र नहीं है; पर उनका एक चित्र मैंने कैमरे से लिया था, जिसमें एक आयोजन में वे कथाकार कमलेश्वर और कवि विष्णु खरे के साथ खड़े हैं। यहाँ विनोद जी की कृतियों की मीमांसा की मेरी कोई योजना नहीं है। बस यूँ ही सी कुछ अंतरंग स्मृतियाँ हैं, उनसे मिलने- जुलने और उन्हें कुछ पढ़ने के बाद। यह लिखा गया है एक शोधार्थी छात्र की माँग पर, जो विनोद जी पर शोध कर रहे हैं। विनोद जी को ज्ञानपीठ सम्मान मिलने पर बधाइयाँ एवं शुभकामनाओं के साथ...

सम्पर्कः मुक्त नगर,  दुर्ग (छत्तीसगढ़) 491001, मो. 9009884014