युद्ध एक ऐसा आक्रमणकारी दानव है जिसकी तरकश में केवल हिंसा, संहार और विनाश के तीर-भाले ही संग्रहीत रहते हैं। युद्ध में चाहे हार हो चाहे जीत, बलि तो मानवता और शान्ति की ही चढ़ती है। वायु, आकाश, गन्ध, संगीत, बादल, बिजली जैसी प्राकृतिक संपदा को बाँट सकने का न हमें अधिकार होता है और न ही क्षमता। ये तो पूरे विश्व की निधि हैं। इसी प्राकृतिक सम्पदा का एक अनमोल मोती है हमारी शस्य-श्यामला धरती। स्वार्थी, अहंकारी और लालची मानव युगों-युगों से केवल इसी धरती को बाँटने, इसके टुकड़े-टुकड़े करने की ताक में रहता है, और इसी राक्षसी प्रवृत्ति की ज्वाला को अंगार दे रहा है विश्व में फैला आतंकवाद। यही इस युग की सबसे निंदनीय देन है। आतंकवाद संहार का, विनाश का, अशांति का विध्वंसक हथियार है। इस विनाशकारी तीर को निरस्त करने वाली लौह ढाल भी ईश्वर ने बनाई है और वह ढाल है भारतीय सेना के सैनिकों का शौर्य। यह केवल भावना नहीं, जनून नहीं! यह प्राण वायु की तरह उन्हें गति देता है।
युद्ध में सफलता की कितनी भी परिभाषाएँ की जाएँ, कम ही हैं। सीमाओं पर शत्रु के साथ युद्ध रत होना उसका एक पक्ष है और शत्रु के प्रहार से घायल हो कर मृत्यु से लड़ना उसका दूसरा पक्ष। इसी दूसरे युद्ध में विजय हासिल करने वाले वीर योद्धा का नाम है मेजर मनीष सिंह।
बचपन से ही मनीष को खिलौनों में पिस्तौल, राइफल आदि ही पसंद थे और उसका प्रिय खेल था ‘दुशम-दुशम’ यानी दुश्मन पर वार करना। पिता रेलवे अधिकारी थे; किन्तु मनीष का केवल एक मात्र ध्येय था- भारतीय सेना की विशिष्ट पलटन 9 पैरा स्पेशल फ़ोर्सेस में सम्मिलित होना। यह उनके लिए केवल महत्वाकांक्षा ही नहीं थी, एक निश्चित पथ था।
मुझसे फोन पर बातचीत करते हुए मनीष बताते हैं, “मैम, मेरी माँ मेरे बचपन की पहली जिद्द के विषय में बताती हैं कि अपने आठवें जन्मदिन पर मैंने उपहार में सैनिक की वर्दी ही माँगी थी। जब वह नहीं मिली, तो मैं रूठ गया था। मेरी माँ ने चुपके से वह वर्दी खरीद कर रख ली थी। अंत में अपने जन्मदिन पर सैनिक वर्दी का तोहफ़ा देख, मैं खुशी से नाच उठा था। माँ कहती हैं कि स्कूल से आकर मैं हर दिन वही पहनता था। मैंने तो जन्म ही सैनिक बनने के लिए लिया था।” उनकी इस भोली- सी जिद्द की बात सुन कर हम दोनों हँस पड़े थे।
“तो आपने फिर से कभी कोई जिद्द नहीं की अच्छे बच्चे की तरह।”- माँ हूँ न, इसलिए मैंने उत्सुकता वश पूछ लिया।
मेरा प्रश्न सुनकर वे खुल कर हँस दिए। कहने लगे, “ की थी न एक बार फिर। मैं B I T मेसरा’ राँची में इंजीनियरिंग कर रहा था। मम्मी-डैडी खुश थे ; लेकिन मेरे सर पर तो सेना में भर्ती होने का हठ सवार था। फॉर्म भरा, सेलेक्शन हो गया, तो इंजिनीयरंग छोड़कर NDA में जाने की चुपचाप तैयारी कर ली, माँ–डैड को पूछे बिना। जाने का समय आया, तो बता दिया।”
मनीष की यह सनक तब भी चरितार्थ हुई, जब इण्डियन मिलिटरी अकेडमी से पास आउट होने से पहले उन्हें अपनी पसंद की यूनिट का नाम अपने फॉर्म में भरना था। फॉर्म में तीन कॉलम होते हैं। उन्होंने केवल एक ही भरा और उसमें लिख दिया ‘9 Para Special Forces’। इस पलटन में प्रवेश करने के लिए भी उन्हें फिर से तीन महीने की प्रोबेशन / सिलेक्शन की कठिन परीक्षा से गुज़रना पड़ा। इस परीक्षा में वे सफल हुए और इस महत्त्वपूर्ण पलटन के सदस्य बन गए।
वर्ष 2012 में मैं पहली बार मनीष से मिली थी। बाद में पता चला कि कुछ दिनों के बाद ही उन्हें उनकी टीम के साथ कश्मीर की सीमाओं पर भेज दिया गया था। उन दिनों भारत का उत्तरी राज्य ‘जम्मू –कश्मीर’ कई वर्षों से आतंकवाद की लपटों से झुलस रहा था। भारतीय सेना तन, मन और कर्म से इस स्थिति से जूझने के लिए निरंतर आतंक एवं अलगाव वादियों से लड़ रही थी। यह युद्ध पुरानी पद्धति से नहीं लड़ा जा रहा था। यहाँ शत्रु घने जंगलों, खेतों, घरों, गुफाओं में छिपकर हमारी सेना की गति विधियों को देख रहा था और सामने आते ही उन पर छिप-छिपकर वार कर रहा था। यहाँ महाभारत का चक्रव्यूह नहीं रचा गया था, यहाँ जंगल में छिपे हिंसक दानवों के साथ युद्ध था। वीर भारतीय सेना हर परिस्थिति में उसके लिए तैयार थी।
25 सितम्बर, 2012 की भयंकर रात को कश्मीर के कुपवाड़ा क्षेत्र के घने जंगलों में छिपे आतंकवादियों को ढूँढकर उन्हें नष्ट करने का साहसिक दायित्व कैप्टन मनीष की सैन्य टुकड़ी को सौंपा गया। रात भर अभियान चलता रहा। दोनों ओर से गोलियाँ चल रही थी। उस मुठभेड़ में दोनों ओर से अंधाधुंध गोलियाँ चलीं और कई आतंकवादी मारे गए थे। इस युद्ध में मनीष को भी गोली लगी थी और वे बुरी तरह घायल हो गए थे। कहते हैं कि जैसे लक्ष्य भेदन में अर्जुन की आँख केवल अपने लक्ष्य पर केन्द्रित थी, ठीक वैसे ही उस मुठभेड़ में मनीष का लक्ष्य भी सामने खड़े शत्रु को मार गिरना था। उस घायल अवस्था में भी वे रेंगते हुए शत्रु पर गोली दागते रहे और अंततः सारे आतंकियों को नष्ट करने में सफल हुए। इस प्रकार न केवल उन्होंने अपनी टीम के साथियों की जान बचाई अपितु कश्मीर के नागरिकों को भी भयंकर संहार से बचाया।
मनीष इस अभियान की सफलता को उठकर, बैठकर देख भी नहीं सकते थे क्यों कि वे गंभीर रूप से घायल थे। घायल अवस्था में जब उन्हें कश्मीर के सैनिक अस्पताल में पहुँचाया गया तो चिकित्सकों को पता चला कि रीड़ की हड्डी पर तिरछी गोलियाँ लगने के कारण उनका कमर से नीचे का शरीर निष्क्रिय हो चुका था। रक्त स्राव और अन्य घावों के कारण उनके शरीर के अंग निष्क्रिय होते जा रहे थे और धीरे- धीरे यह योद्धा कोमा में जा रहा था। वह समय शायद सेना के चिकित्सकों के लिए एक कठिन परीक्षा का समय था। दो दिन तक ‘कोमा’ में रहते हुए भी इस योद्धा के हृदय ने अभी हार नहीं मानी थी। मशीनें बता रही थीं कि इनका दिल अभी भी काम कर रहा था। सेना के कुशल चिकित्सक उनको बचाने में जुटे थे और उनका परिवार, उनकी यूनिट और उनके मित्र उनके लिए मौन प्रार्थना कर रहे थे। अंत में मृत्यु पराजित हुई और मनीष जीवित होने के संकेत देने लगे।
कोमा से बाहर निकलने के अपने उस चमत्कार को मनीष स्वयं इन शब्दों में बताते हैं, “दो दिन तो मैं था ही नहीं इस दुनिया में, शायद शून्य में था।”
मेरे पूछने पर कि कैसे पता चला कि आप जीवित हैं, उन्होंने जो उत्तर दिया वो इस संसार का सब से बड़ा सत्य है, सब से बड़ी दवा है और सब से बड़ी दुआ।
मनीष कहते हैं, “मैं कहीं दूर निकल गया था मैम! बहुत दूर से कहीं मुझे अपनी माँ की आवाज़ सुनाई दी ---‘मनु’ । माँ ने बुलाया था अपनी पूरी ममता के साथ, पूरी आशाओं के साथ। मैं मना नहीं कर सका और लौट आया मृत्यु के लौह पाश से।”
“माँ कहती हैं कि मैंने बिना आँख खोले अपने हाथ का अंगूठा हिलाया था, जिसे डॉक्टरों ने ‘Thumbs Up’ का संकेत मान लिया और यह घोषित कर दिया कि अब मुझे कोई भी ‘मुझसे’ नहीं छीन सकता। नकारात्मक परिस्थितयों पर यह मेरी पहली विजय थी । और शायद फिर से जीने के लिए यह तीसरी ज़िद्द थी।
फरवरी के महीने में जन्म लेने वाले मनु अब अपना जन्मदिन 25 सितम्बर को मनाते हैं। उनका तर्क है उस दिन उन्हें दूसरा जन्म मिला। “उस दिन जो गोलियाँ चली थीं, उनमें से एक मुझे लगी और दूसरी मेरे सामने खड़े उस आतंकी को। गिरे तो हम दोनों ही थे; लेकिन मैंने गिरते हुए उन निर्णायक पलों में एक गोली और दाग दी। शत्रु वहीं ढेर हो गया और मुझे मेरे साथी तुरंत ही उठाकर हैलिकोप्टर तक ले आए। तब तक मुझे होश थी और मैं अपने उद्देश्य पूर्ति की सफलता के लिए बहुत खुश था।”
उस रात यह योद्धा नही जानता था कि शत्रु पर विजय तो प्राप्त हुई किन्तु जीवन से युद्ध तो अभी शुरू हुआ था। यह तो इस नए युद्ध की किताब का पहला पन्ना था।
अब उनका रणक्षेत्र बदल गया था। मनीष दो महीने तक दिल्ली के सैनिक अस्पताल के आई सी यू वार्ड में इस शारीरिक आपदा से जूझते रहे। इस बीच उनके इलाज के लिए तीन बार उनके शरीर में Bone Marrow डाला गया, कितनी बार शल्य चिकित्सा का भी सहारा लिया गया; किन्तु उनकी शारीरिक स्थिति में कोई विशेष अंतर नहीं आया। उनकी चिकित्सा करने वाले डॉक्टरों ने यह मान लिया था कि मनीष अब अपने पैरों पर कभी भी खड़े नहीं हो सकेंगे, वे कभी चल नहीं पाएँगे। मनीष को उस समय एक ही बात उनका मनोबल बढ़ा रही थी कि वे जिंदा हैं और उनके शरीर का ऊपरी भाग सक्रिय है। शायद यही बात अँधेरे में दीपक के समान उनका आगे का रास्ता प्रशस्त कर रही थी।
दो महीने के बाद उन्हें पुणे के पुनर्वास (Rehabilitation) वार्ड में भेज दिया गया जहाँ विशेष शारीरिक व्यायाम आदि की व्यवस्था थी। कश्मीर से दिल्ली और फिर दिल्ली से पुणे हॉस्पिटल तक की लंबी यात्रा में मित्र, हमसफर ‘कमांडो देसराज’ सदैव उनके साथ रहा। देसराज मनीष की टीम से ही था और उनका ‘बड्डी’ था। यह बड्डी एक साये की तरह चौबीस घंटे मनीष के साथ ही रहता था। पुणे में मनीष से विभिन्न प्रकार की शारीरिक व्यायाम कराए गए, कई प्रकार के यंत्रों द्वारा उनके शरीर के निचले भाग को सक्रिय करने की चेष्टा की गई ; किन्तु उनकी अवस्था में कोई विशेष अंतर नहीं आया।
उस समय मैं भारत की यात्रा पर थी और पुणे में उनसे मिलने, उनका उत्साह बढ़ाने के लिए गई थी। उन दिनों मनीष गहन मानसिक द्वंद्व से जूझ रहे थे। शारीरिक रूप से शिथिल दिखने वाले मनीष से बात करते हुए मुझे उनकी आँखों में दृढ़ संकल्प की ज्योति दिखाई दे रही थी। मैं केवल कुछ घंटे उनके साथ बिताकर चली आई थी, इस विश्वास के साथ कि यह बहादुर योद्धा इस परिस्थिति से भी निकल आएगा।
मानसिक और शारीरिक संघर्ष के विषय में मनीष बताते हैं, “उन दिनों कभी-कभी मुझे गहन निराशा घेर लेती थी। तब मैं अपने आप से बात करता था और कहता था, मुझे अपने शरीर से लड़ना है, मुझे हार नहीं माननी है। मैम! मैं अपने आप से बहुत कठोर व्यवहार करता था। दिन में 50 बार बिस्तर से उठने की कोशिश करता था, सहारा लेकर खड़ा होने की कोशिश करता था ; लेकिन कुछ नहीं हो पाता था। बचपन से ही मुझे पढ़ने का बहुत शौक था। समय काटने के लिए मैं पढ़ना चाहता था ; किन्तु मैं लेटे-लेटे कितना पढ़ सकता था और थक जाता था। अपने आप से लड़ते-लड़ते मैं अपने भविष्य के लिए कोई और नया रास्ता ढूँढने लगता था।”
रास्ता मिला मनीष को और यह भी एक चमत्कार ही था। उसी पुनर्वास वार्ड में किसी की बातचीत सुनते हुए मनीष के बड्डी देसराज को बम्बई के एक ऐसे हॉस्पिटल के बारे में पता चला जहाँ Stem Cell Therapy से शरीर से असहाय लोगों का इलाज हो सकता था। मनीष को बिना बताए देसराज स्वयं उस हॉस्पिटल के डॉक्टर आलोक शर्मा से मिल आया और उनसे मनीष के लिए मिलने का दिन भी तय कर आया। बस उसकी सलाह पर ही मनीष ने मिलिट्री हॉस्पिटल से दो दिन की छुट्टी माँगी और दोनों Sion Hospital, Neurogen Brain and Spine Institute, Nerul, Bombay के लिए चल पड़े। मनीष कहते हैं कि यह उनके लिए अँधेरे में तीर चलाने के समान था। इस चिकित्सा के लिए सेना की ओर से उन्हें अनुमति नहीं मिली थी, फिर भी वे इस अवसर को गँवाना नहीं चाहते थे और यहीं से आरम्भ हुआ उनके पुनर्वास का कठोर अभ्यास जिसने उनकी जीवन की दिशा और दशा बदल दी।
इस हॉस्पिटल के डॉक्टर आलोक शर्मा के अनुसार- मनीष में अपने पैरों पर खड़े होने का अटूट संकल्प और जिद थी, तो परिस्थितियों ने भी उनकी सहायता की। चार बार Stem Cell Therapy के सहारे उन्हें बिस्तर पर अपने शरीर को मोड़ना बिस्तर से सरककर, पास रखी व्हील चेयर पर जाना और वापिस बिस्तर पर आना था। उन्हें घुटनों को बाकी शरीर का भार वहन करने के लिए सक्षम करना था; ताकि वे कुर्सी से खिसक कर दूसरी जगह पर बैठ सकें। कमर से नीचे के भाग को सक्रिय बनाने आदि का व्यायाम कराए गए। इस पूरी स्थिति में मनीष को असहनीय शारीरिक पीड़ा तो होती ही थी; किन्तु इससे अधिक मानसिक दुविधा की पीड़ा उनके लिए घातक हो सकती थी। डॉक्टर आलोक बताते हैं कि इसमें भी न हार मानने वाले मेजर मनीष को विजय ही मिली।
लगभग चार महीने पहले एम्बुलेंस में लेटकर आने वाले मनीष जब अपनी व्हील चेयर पर बैठकर वापिस पुणे गए, तो नकारात्मक परिस्थतियों के साथ हो रहे अपने मानसिक और शारीरिक युद्ध के मैदान में उनकी यह दूसरी बड़ी विजय थी। भविष्य उन्हें बुला रहा था और वो एक नए संकल्प के साथ उद्घोषणा कर रहे थे----
“मैं एक सोल्जर हूँ और मैं जिंदादिली से जीता हूँ । एक टारगेट छूटा तो क्या, दूसरा मेरे सामने है। कमांडो कभी हार नहीं मानता। मेरा अगला टारगेट है पैराफ़लैजिक ओलिंपिक में हिस्सा लूँ और देश के लिए पदक जीतूँ।”
जिंदादिल मनीष ने जल्दी ही अपना दूसरा टारगेट ढूँढ लिया था- पिस्टल शूटिंग की प्रतिस्पर्धा में भाग लेना। अभी वे असमंजस की अवस्था में अपने से लड़ रहे थे, तो फिर एक चमत्कार हुआ। श्रीमती दीपा मल्लिक (जो स्वयं पक्षाघात पर विजय प्राप्त कर ओलम्पिक खेलों में भाग ले चुकी थीं) ने उनसे फोन पर बात की। वे भुक्तभोगी थीं और मनीष का मनोबल बढ़ाना चाहतीं थी। यह जानकर कि मनीष को शूटिंग में दिलचस्पी है, उन्होंने उसे सब कुछ भुलाकर केवल इसी खेल को अपना भविष्य बनाने की सलाह दी। मनीष को मानो अपना रास्ता मिल गया। उनकी मंशा जानकर सेना ने उनकी नियुक्ति मध्य प्रदेश स्थित infantry School Mhow में कर दी। इस सैनिक प्रशिक्षण केंद्र में शूटिंग रेंज भी थी और अभ्यास कराने के लिए शिक्षक भी थे।
मनीष एन डी ए में चार वर्ष तक बहुत कठिन परीक्षण और अभ्यास से गुज़र चुके थे। लेकिन तब उन्हें अपने शरीर की बाधाओं से नहीं लड़ना पड़ता था। पिस्टल शूटिंग का अभ्यास करना बहुत कड़ी परीक्षा थी। हर बार गोली दागने से पहले उन्हें दायीं ओर मुड़ना पड़ता है, जिससे उनके सभी अंगों में असहनीय पीड़ा होती है। रीढ़ की हड्डी पर गंभीर चोट लगने के कारण उनका नर्वस सिस्टम भी शिथिल हुआ था। पता ही नहीं चलता कि कब किस भाग में पीड़ा जाग्रत हो जाए।
मेरे यह पूछने पर कि इन बाधाओं से कैसे जूझते हैं, मनीष ने हँसते हुए कहा, “प्राणायाम करता हूँ, ध्यान लगाता हूँ और कभी कभी अपनी नकारात्मक सोच से लड़ाई भी कर लेता हूँ। एक बात जो शूटिंग के अभ्यास के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण है वह है – एकाग्रता। सूई में धागा डालने जैसी आँख की एकाग्रता। जितनी बार गोली चलानी है, उतनी बार उसी एकाग्रता की स्थिति में रहना पड़ता है। ”
“कुछ ऐसा भी होता है जब आपका ध्यान टूट जाता है?” मैंने उत्सुकता वश पूछ लिया था।
उन्होंने जो बताया वो शायद केवल क्षीण नर्वस सिस्टम के परिणाम से जूझने वाला व्यक्ति ही बता सकता है। कहते हैं, “कोई पता नहीं चलता कब और कौन- सी अवस्था में उन्हें पीड़ा होने लगे। तेज़ हवा देता पंखा, कड़ी धूप, ठंडा पानी, तेज़ रोशनी, कुछ भी कब मेरे सिस्टम पर वार कर दे इसका पहले से अनुमान नहीं रहता। इस असहनीय पीड़ा से दो-दो हाथ करने के लिए मुझे हर तीन माह के बाद बम्बई के एक हॉस्पिटल में Pain Specialist के पास जाना पड़ता है। वहाँ मेरे पूरे शरीर को बड़ी- बड़ी सूइयों से बेधा जाता है। इस प्रक्रिया से मुझे कुछ महीनों के लिए बाकी शारीरिक पीड़ा से मुक्ति मिलती है। इस पीड़ा का यही एक मात्र इलाज है और इसे करवाते हुए मैं सोचता हूँ- Something is better than nothing.”
कश्मीर के हर्दुफा के जंगलों में शत्रु पर विजय प्राप्त करने वाले इस वीर योद्धा को वर्ष 2013 में राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा ‘शौर्य चक्र’ से सम्मानित किया गया। जब मनीष राष्ट्रपति भवन के अशोक सभागृह में अपनी व्हील चेयर पर बैठे हुए पदक ग्रहण करने के लिए आगे बढ़े, तो राष्ट्रपति ने स्वयं मंच से नीचे उतरकर उन्हें इस पदक से विभूषित किया। यह दृश्य उनके परिवार, स्पेशल फोर्सेस और सम्पूर्ण भारतवासियों के लिए बहुत गौरवपूर्ण का पल था।
मनीष कहते हैं - शौर्य चक्र को ग्रहण करते हुए मुझे गर्व के साथ कृतज्ञता की उदात्त भावना ने घेर लिया था। यह शौर्य चक्र जैसे मुझे जीवन में कुछ विशेष करने के लिए चुनौती दे रहा था, प्रेरणा दे रहा था। मैंने निर्णय ले लिया था कि मैं भारत के लिए ओलम्पिक्स में पदक अवश्य जीतूँगा। इसे चाहे आप मेरी चौथी ज़िद मान लेना।
सीमाओं पर शत्रु से लड़ते हुए विजय प्राप्त करने वाले इस अद्भुत वीर योद्धा मेजर मनीष के लिए जीवन की दूसरी पारी में दौड़ने और विजयी होने के लिए पूरे भारत वासियों की अनंत शुभकामनाएँ।
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मर्मस्पर्शी एवं प्रेरणादायक आलेख। मन के जीते जीत। कितना सुंदर जज़्बा है। बहुत सुंदर लिखा आपने ।बधाई सुदर्शन रत्नाकर
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