- डॉ. रत्ना वर्मा
पर्व, त्योहार और उल्लास के इस सर्द मौसम में एक समय ऐसा भी था, जब हम सब भारतवासियों को अपने इस सबसे बड़े उजालों के त्योहार दीपावली की उत्सुकता से प्रतीक्षा रहती थी। घर की साफ- सफाई और लिपाई - पुताई का काम कई दिन पहले से ही शुरू हो जाता था। धनतेरस के दिन घर या परिवार के लिए कुछ नया खरीदने की योजना भी पहले ही से बन जाती थी, नए कपड़े, विभिन्न तरह के पकवान और सबसे ज्यादा उल्लास परिवार वालों से मिलने की खुशी, जो सिर्फ दीपावली के अवसर पर ही हो पाती थी।
...और यदि वह दीवाली आपके गाँव के घर की हो तब तो बात ही कुछ और होती थी। गाँव में कृषकों का उत्साह देखते ही बनता था। पाँच दिन तक चलने वाले इस पर्व के अवसर पर पूरा गाँव उल्लास में डूबा होता था। धनतेरस, नरकचतुर्दशी, लक्ष्मी पूजा और फिर गोवर्धन पूजा से लेकर भाईदूज तक गाँव के प्रत्येक घर से पकवान बनने की सोंधी महक आया करती थी। मिट्टी के दियों से गाँव में उजियारा फैला रहता था। उल्लास में डूबा गाँव नाच- गानों में इतना मस्त होता कि आम दिनों के दुख तकलीफ को भूलकर कुछ दिन के लिए उनका जीवन आनन्द से भरपूर हो जाता था। लेकिन अब गाँव भी शहर बनते जा रहे हैं। सादगी, भाईचारा सब जैसे कहीं तिरोहित हो गए हैं। सुविधाएँ कम थीं, तो आवश्यकताएँ भी कम थीं। आधुनिक सुख- सुविधाओं ने सबकी आदतें बदल दीं हैं। गाँव की आबोहवा भी उल्टी दिशा में बहने लगी है। बिना नशा किए उनके लिए त्योहार का कोई मतलब ही नहीं होता।
अब चलें आज के ज़माने में मनाए जाने वाले उजाले के पर्व की, तो अब चाहे गाँव हो या शहर लोग साफ- सफाई सुविधानुसार साल में कभी भी कर लेते हैं। कपड़े और घर के लिए कुछ बड़ा सामान तो आजकल जब जरूरत हो, तब खरीद लिए जाते हैं। उसके लिए भला कोई दीवाली का इंतजार क्यों करे? अब रही बात मिठाई और पकवान बनाने की, तो वह तो आजकल बाजार में जब चाहो तब उपलब्ध है। माँ और दादी - नानी के हाथ के वे स्वादिष्ट लड्डू या गुजिया की बात अब पुराने जमाने की बात हो गई है। फिर आजकल की कामकाजी माँ के पास उतना समय ही कहा बचता है कि वह इन पकवानों को बनाने के लिए समय निकाल पाए।
इसी प्रकार दीपावली- मिलन के लिए हम आज भी मित्रों, परिवारजनों के पास जाते हैं पर परिवार और मित्रों के बीच बधाई का आदान- प्रदान करने के लिए अब घर में बनने वाले अनेक तरह के स्वादिष्ट पकवानों और मिठाइयों से भरे वे थाल, जो खूबसूरत क्रोशिए से बने थालपोश से ढके हुए होते थे। इसके बारे में आज की पीढ़ी को क्या बताएँ कि दीपावली- मिलन के साथ सबका मुँह मीठा करने की यह मोहक परम्परा कितनी मीठी हुआ करती थी।
अब तो बढ़िया पैकेजिंग के साथ बाजार में हैसियत के अनुसार तरह - तरह के तोहफे उपलब्ध हैं। इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि आजकल दुकानदार द्वारा चमचमाते पन्नों के भीतर पैक मिठाई के डब्बे एक के घर से होते हुए कई घरों को पार करके कब आपके ही पास लौट कर आ जाएँगे, आपको भान भी नहीं हो पाएगा। कहने का तात्पर्य यही है कि आजकल तोहफे देना भी औपचारिकता मात्र बनकर रह गए हैं। और तो और, अब तो इसकी भी आवश्यकता नहीं । सोशल मीडिया ने बधाई और शुभकामनाएँ देने के इतने नायाब तरीके उपलब्ध करा दिए हैं कि घर बैठे ही सब संभव हो गया है। न मिठाई खिलाने का झंझट और न किसी के पास जाने का । एक वीडियो कॉल कीजिए , बड़ों का आशीर्वाद भी ले लीजिए और छोटों को प्यार भी दे दीजिए।
यह सब तो हुआ समाज और परिवार के रहन -सहन और संस्कारों में आए बदलाव का दृश्य। कहते हैं बदलाव प्रकृति का नियम है; पर जब बदलाव अच्छे के लिए हो, तब तक तो सब ठीक, पर जब बदलाव तबाही लाए तो, उसका विरोध तो करना ही पड़ेगा। आइए उन बदलावों का विरोध करने का बीड़ा उठाएँ, जिसने सबका जीना मुश्किल कर दिया है। हम सब आपने आपको शिक्षित, ज्ञानी और जमाने के साथ चलने वाला करते हैं पर क्या सचमें...
आप सब जानते हैं कि पिछले कुछ वर्षों से देशवासी इस पर्व की तैयारी के साथ इस मौसम में लगातार बढ़ते प्रदूषण को लेकर ज्यादा परेशान दिखाई दे रहे हैं। देश की राजधानी दिल्ली के साथ कई मेट्रो शहरों में में प्रदूषण के कारण स्कूल कॉलेज बंद कर दिए गए हैं। इतना ही नहीं बहुत लोग दिल्ली छोड़ने की तैयारी में हैं; क्योंकि उनके अनुसार दिल्ली की आबोहवा रहने लायक नहीं रह गई है। पिछले कई वर्षों से दिल्ली सहित कई शहरों में पटाखे चलाए जाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है , परंतु अन्य कारणों से वहाँ का प्रदूषण कम होने का नाम ही नहीं ले रहा है। लेकिन एक प्रदूषित शहर छोड़कर दूसरे शहर चले जाना समस्या का समाधान तो नहीं है।
दरअसल जो समाधान है उसे हम करते नहीं; बल्कि उसे बढ़ाने के ही उपाय करते रहते हैं। क्या हम पटाखे फोड़ना बंद कर पाते हैं? क्या हम अपने घरों को अपने नगर को बिजली के लट्टुओं से सजाना बंद कर पाते हैं? क्या हम मोटर गाड़ियों पर चलने की बजाय पैदल और साइकिल से चलने को प्राथमिकता दे पाते है? क्या हम प्लास्टिक का उपयोग बंद कर पाए हैं? क्या हम जल, जंगल और जमीन का संरक्षण कर पा रहे हैं ? सवाल बहुत हैं जिनके जवाब नहीं में ही है। तो फिर ऐसे में हमारी शिक्षा, हमारा ज्ञान, हमारे आविष्कार, हमारी उपलब्धियाँ किस काम की अगर हमारी धरती हमारे रहने लायक ही नहीं बचेगी।
इधर एक और प्रदूषण है, जो बढ़ा है, वह है भाषा का प्रदूषण। राजनीति के क्षेत्र में भाषा का जो पतन हुआ है, वह पीड़ादायक है। कभी किसी के धर्म को लेकर, कभी किसी वर्ग विशेष के जीवन को लेकर, जो गर्हित टिप्पणियाँ की जाती हैं, वे नैतिक मूल्यों की गिरावट का साक्षात् प्रमाण हैं। चुनावी राजनीति और दलीय स्वार्थ ने इसे अश्लील की सीमा तक पहुँचा दिया है। वायु-प्रदूषण तो कुछ समय बाद घट जाएगा ; लेकिन शासन-प्रशासन में बैठे लोग जिस तरह नकारात्मक वाणी का सहारा लेने लगे हैं, वह किसी कलंक से कम नहीं। भाषा की यह दरिद्रता और पतन अशोभनीय ही नहीं, बल्कि निन्दनीय भी हैं।
दीपावली के दियों की चमक सबके दिलों में तभी उजियारा फैलाएगी, जब हम अपनी धरती के वातावरण को, मन के चिन्तन को, शुद्ध और साफ- सुथरा रखने का प्रयास करेंगे।
अंत में गोपालदास ‘नीरज’ के शब्दों में -
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
4 comments:
आदरणीया,
समय के साथ सब बदल गया है। अब धीरे धीरे दीवाली भी दिखावे के प्रतीक रूप में उभर रही है। पैसे का प्रदर्शन।
साथ ही जो दुर्दिन लेकर आ रही है वह सच में आगत भयावहता की सूचना है। विशेषकर प्रदूषण। पुरुष ने प्रकृति का संतुलन बिगाड़कर खुद का सर्वनाश कर लिया है।
हर बार की तरह बेबाकी से बात कह देने के लिये हार्दिक बधाई। सादर
आदरणीय रत्ना जी ,
अनकही कहीं के माध्यम से आपने बहुत कुछ कहा है जो आज के परिप्रेक्ष्य मे बहुत ही सारगर्भित एवं मर्मस्पर्शी है। काश़ ये जो सोच है वह सभी के दिलों में पहुँचे और उस पर लोग कार्यरूपों रूप में परिणित करने का संकल्प लें ,तो ये धरा और भी सुंदर हो जाएगी। दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं सभी को।
सुनीता वर्मा भिलाई
रत्ना जी , हर बार की तरह अनकही में आपने विचारणीय बातें कही हैं जो सार्थक भी हैं। पहले और अब की दीपावली में बहुत अंतर आ गया है। आस्था कम और दिखावा अधिक
हो गया है। विषाक्त वातावरण में पर्व की ख़ुशी ही कम हो जाती है। बहुत सुंदर। हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ आपको। सुदर्शन रत्नाकर
Post a Comment