‘‘मुझे
समझ नहीं आता सीमा, तुम्हें साथवाले पड़ोसियों से
इतनी जलन क्यों हैं? हमारे मुक़ाबले तो वे लोग ज़्यादा
पैसेवाले भी नहीं हैं। सुख-सुविधा के बहुत-से साधन उनके पास नहीं हैं। अपनी ख़ुद की
कार भी नहीं है उनके पास।’’ आख़िर एक दिन मैंने अपनी पत्नी से यह सब कह ही दिया।
‘‘इसी बात पर ही तो कुढ़न होती है मुझे. हमें
कहीं जाना होता है तो हर बार वही हमारा ड्राइवर शामसिंह होता है; वही हमें सलाम करता है; और वही हम लोगों के लिए
हमारी कार का दरवाज़ा खोलता है, लेकिन इन पड़ोसियों के तो मज़े
हैं। कहीं जाना हो तो चाहें बस या मेट्रो से जाओ या फिर रिक्शा या ऑटोरिक्शा से।
चाहो तो टैक्सी कर लो।’’ कितने मज़े हैं न इन लोगों के!
‘‘ओफ्फोह, तुम्हारी सोच
भी कितनी अजीब-सी है। महीने में पंद्रह दिन तो होटल या रेस्तराँ से खाना आता है
अपने घर। वैसे भी रसोई का सारा काम कमला बाई ही सँभालती है। इन बेचारों को देखो।
कभी देखा है इन्हें बाहर से खाना मँगवाते? ख़ुद ही पकाते हैं
सुबह-दोपहर-शाम।’’ मैंने समझाना चाहा सीमा को।
‘‘ख़ुद खाना बनाने का भी अपना ही आनंद होता है।
और फिर जब मर्ज़ी बनाओ, जब मर्ज़ी खाओ। ख़ुद बनाया खाना
होता भी कितना साफ़-सुथरा है।’’
‘‘सीमा, पता नहीं तुम
कैसे ऊटपटाँग तरीके से सोचती हो!’’
‘‘तो ग़लत कहाँ सोचती हूँ? इतने ऐशोआराम के बावजूद इस ढलती उमर में हम दोनों अकेले ही इस घर में रह
रहे हैं। दोनों बेटे शादी होते ही इसी शहर में हमसे अलग रहने लगे थे। साल में एकाध
बार ही उनसे आमना-सामना होता है, मगर इन पड़ोसियों के दोनों
बेटे तो शादी के बाद भी अपने माँ-बाप के साथ ही रहते हैं। हर रोज़ इन लोगों के
हँसी-ठहाकों की आवाज़ें सुनाई देती हैं और हमारे घर में पूरे दिन मनहूस सन्नाटा
छाया रहता है।’’
मुझे लगा सीमा की हर सोच ग़लत नहीं है।
सम्पर्कः 304, एम.एस.4,
केन्द्रीय विहार, सेक्टर 56,, गुरुग्राम-122011 (हरियाणा), दूरभाष- 899221107, harishkumaramit@yahoo.co.in
1 comment:
बहुत सुंदर लघुकथा। बधाई। सुदर्शन रत्नाकर
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