- हरीश कुमार ‘अमित’
ज्यों-ज्यों दीवाली
का दिन नज़दीक आता जा रहा था, मेरी चिन्ता और घबराहट
बढ़ती जा रही थी। मैं क्या मेरी पत्नी, सुधा, की हालत भी ऐसी ही थी। वजह इसकी यही थी कि घर के लिए रोटी कमानेवाला मैं
अकेला ही था। सुधा तो कहीं नौकरी करती नहीं थी। करती क्या नहीं थी, ख़ुद मैं ही नहीं चाहता था कि वह कोई नौकरी करे। शादी करने से पहले ही मेरी
यह धारणा बन चुकी थी कि पत्नी अगर कामकाजी न हो और सिर्फ गृहिणी बनकर रहे, तो वह घर-परिवार और बच्चों का ज़्यादा अच्छी तरह ध्यान रख सकती है। इस तरह
घर चलाने के लिए सिर्फ मेरी तनख़्वाह ही होती थी।
मेरी नौकरी भी बस ठीक- ठाक-सी ही थी।
स्कूल- कॉलेज के दिनों में मैं बेशक पढ़ाई में काफ़ी तेज़ हुआ करता था, मगर
नौकरी मुझे कोई बहुत बढ़िया नहीं मिल पाई थी। यह ज़रूर है कि करते-करते मैं अफ़सर बन
गया था, पर सरकारी दफ्तर के इस अफ़सर को प्राविडेंट फंड, इन्कम टैक्स वगैरह की कटौतियों के बाद जो तनख़्वाह मिलती थी, उससे घर-खर्च चलाना हर महीने एक टेढ़ी खीर ही साबित होता था।
और फिर कोढ़ में खाज वाली बात यह थी कि
मुझे न जाने कैसे एक रोग लग गया हुआ था - ईमानदारी का रोग। दफ्तर का काम पूरी
ईमानदारी से करना और ग़लत तरीकों से कोई कमाई करने की सोचना भी नहीं - बस यही उसूल
थे मेरी दफ्तरी ज़िन्दगी के।
लिहाज़ा कट-कटाकर जो तनख़्वाह हाथ में आती
थी, उससे पूरा महीना बड़ा घिसट-घिसटकर चलता था। तनख़्वाह के
तौर पर मिले रुपयों में से सबसे पहले तो मकान का किराया निकल जाता था। दिल्ली जैसे
शहर में दो कमरे के मकान का किराया भी कुछ कम नहीं था। और फिर ज़रूरत पड़ने पर किसी
सोसायटी वगैरह से लिए गए उधार की किश्त भी तो चुकानी होती थी। श्रेया, हमारी छह साल की बेटी, के स्कूल की फीस दिए
बग़ैर भी काम नहीं चलता था। इन सब खर्चों के बाद घर की दाल-रोटी के लिए जितना पैसा
बच पाता था, उससे घर चलाना वाकई तलवार की धार पर चलने
जैसा ही था।
ऐसे हालात में इस बार दीवाली का महीने की
28 तारीख़ को आना मुझे भयभीत-सा कर रहा था। सच बात तो यह है कि दीवाली का इस तरह
महीने के आखिर में आना मुझे साल के शुरू से ही डरा रहा था। मैंने बहुतेरी कोशिशें
की थीं कि किसी तरह कुछ पैसा दीवाली के मौके पर होनेवाले खर्चों के लिए अलग से
बचाकर रख लिया जाए, पर ऐसी हर कोशिश नाकामयाब ही साबित हुई थी। ऐसी खस्ता
आर्थिक हालत में कुछ पैसा जोड़कर अलग से रख पाना ऐसा ही था जैसे हथेली पर सरसों
उगाना।
करते-करते अक्तूबर भी आ गया था, जिस
महीने दीवाली थी। महीने के शुरू से ही मैंने और सुधा ने सलाह-मश्विरा कर-करके घर
के खर्चों में कतर-ब्योंत करने की भरसक कोशिशें शुरू कर दी थीं, मगर तरह-तरह के ज़रूरी खर्चों के आगे अक्सर हमारी यह कतर-ब्योंत बेकार
साबित होती।
श्रेया को हम क्या समझाते कि घर खर्च में
इतनी कंजूसी करना क्यों ज़रूरी है। हमें लगता कि इस छोटी-सी उम्र में ही उसे ज़िंदगी
की कड़वी सच्चाइयों से क्यों रूबरू करवाया जाए। एक तो हम वैसे भी उसे कोई बहुत
ज़्यादा सुविधापूर्ण जीवन दे नहीं पा रहे थे। फिर ऊपर से उसे मानसिक अशांति देना
तो हमें बहुत ज़्यादा ग़लत बात लगती थी।
यूँ दीवाली भी हम कोई ऐसी धूमधाम से नहीं
मनाया करते थे, मगर फिर भी दीवाली के मौक़े पर कुछ अतिरिक्त खर्च तो
होता ही था।
मेरी दो शादीशुदा बड़ी बहनें भी दिल्ली
में ही रहती थीं। दीवाली के मौक़े पर उनके घर मिठाई का एक-एक डिब्बा तो मैं हर साल
दिया ही करता था।
पिछले दो-तीन सालों से हम लोग दीवाली आने
से दो-तीन महीने पहले ही यह योजना बनाने लगते थे कि मेरी दो बहनों को दीवाली पर इस
बार तो सिर्फ एक-एक मिठाई का डिब्बा नहीं देना है। साथ में कुछ और भी देंगे। यूँ
तो बाज़ार में बहुत सी चीज़ें मिलती थीं। जो मिठाई के डिब्बे के साथ दी जा सकती थीं, पर
हमारा सपना तो बस इतना ही रहता था कि डिब्बे के साथ दो-अढ़ाई सौ रुपए तक की कोई और
चीज़ भी दी जा सके, लेकिन हमारी यह योजना दीवाली आते-आते
रेत के ताजमहल की तरह ढह जाया करती थी। किसी साल किसी कारण से और किसी साल किसी
दूसरे कारण से अपना यह सपना पूरा कर पाना मुमकिन ही नहीं हो पाता था और हर साल की
तरह मेरी दोनों बहनों को मिठाई का सिर्फ एक-एक डिब्बा देकर ही हमें संतोष करना
पड़ता था।
मगर इस साल की स्थिति तो और भी विकट हो
गई थी। अक्तूबर के महीने में दीवाली से कुछ दिन पहले एक नहीं, दो
नहीं, पूरे तीन-तीन शादी के कॉर्ड हमें मिले थे। कार्ड
रिश्तेदारों के यहाँ से आए थे। इन शादियों में जाना ज़रूरी था और शादी में जाने का
मतलब था शगुन भी देना।
बस इसी कारण इस महीने हमारी आर्थिक
स्थिति मानो रसातल तक ही पहुँच गई थी। दूसरे तमाम खर्चों पर बहुतेरी लगाम कसने के
बावजूद हम इस स्थिति में भी नहीं रह गए थे कि मेरी दोनों बहनों को मिठाई का एक-एक
डिब्बा भी दे सकें।
खुद अपने घर के लिए दीवाली के त्योहार पर
मिठाई ख़रीदने की ज़रूरत हमें पड़ती ही नहीं थी। दरअसल हर साल होता यह था कि मेरी
बहनें भी दीवाली पर हमें मिठाई का एक-एक डिब्बा दिया करती थीं। उस मिठाई को हम लोग
दीवाली वाले दिन और उसके बाद खाया करते थे।
मुझे यही चिन्ता खाए जा रही थी कि बहनों
को देने के लिए मिठाई के एक-एक डिब्बे का इन्तज़ाम कैसे किया जाए। श्रेया को तो
हमने किसी तरह समझा लिया था कि पटाखों से प्रदूषण फैलता है, इसलिए
इस बार पटाखे न ख़रीदे जाएँ। न जाने कैसे श्रेया इस बार पटाखे न खरीदने के लिए राज़ी
हो भी गई थी। इस साल सुधा और मैंने दीए भी न ख़रीदने का फैसला किया था। बस थोड़ी-सी
मोमबत्तियाँ ख़रीदकर ही दीवाली मना सकने की स्थिति थी इस बार।
मिठाई के इन डिब्बों का आदान-प्रदान दीवाली के दिन से एक-दो दिन
पहले हुआ करता था, मगर इस बार मेरी बड़ी बहन न जाने
क्यों तीन दिन पहले ही मिठाई का डिब्बा हम लोगों को दे गई थी। वे लोग हमारे घर से
ज़्यादा दूर नहीं रहते थे। वह मिठाई का डिब्बा उसी कॉलोनी की एक मिठाई की दुकान से
ही ख़रीदा हुआ था।
बड़ी दीदी के मिठाई देकर हमारे घर से
निकलने से पहले ही मेरे दिमाग़ में यह योजना बन गई थी कि इस डिब्बे को छोटी बहन के
घर में दे दिया जाए। डिब्बा चूँकि उसी कॉलोनी की मिठाई की दुकान का था, जिस
कॉलोनी में हम रहते थे, इसलिए छोटी दीदी को यह पता चल
पाने का डर भी नहीं था कि किसी और के यहाँ से मिला हुआ मिठाई का डिब्बा हमने उसे
दे दिया है। छोटी बहन मुझसे उम्र में बड़ी थी और मैं उसे छोटी दीदी बुलाया करता था।
इसीलिए बड़ी दीदी के हमारे घर से चलने से पहले ही मैंने कोई बहाना बनाकर डिब्बे को
फ्रिज के ऊपर रख दिया था। मुझे डर था कि बड़ी दीदी को दरवाज़े तक छोड़ने के लिए जब हम
जाएँगे, तो इस बीच श्रेया डिब्बे को खोल न ले।
बड़ी दीदी के जाने के बाद हमने किसी तरह
श्रेया को बहला-फुसलाकर इस बात के लिए राज़ी कर लिया था कि उस डिब्बे को फिलहाल
नहीं खोलना और इसे दीवाली वाले दिन ही खोलना है।
मिठाई के उस डिब्बे को हमने फ्रिज में रख
दिया था। हालाँकि श्रेया बीच-बीच में यह ज़िद पकड़ लेती थी कि डिब्बे को खोल लिया
जाए, पर हम किसी-न-किसी तरह उसे बहला लिया करते थे। जब
श्रेया ने डिब्बा खोल लेने की ज़िद कुछ ज़्यादा ही पकड़ ली, तो हम लोगों ने यह कहकर उसे बहला लिया कि छोटी बुआ (यानी मेरी छोटी दीदी)
के आने पर इसे खोल लेंगे। यह तो निश्चित था ही कि छोटी दीदी ने दीवाली पर मिठाई
देने हमारे घर आना था।
मैंने सोच लिया था कि अगले दिन शाम को
दफ्तर से घर वापिस आकर मैं यह मिठाई का डिब्बा छोटी दीदी को दे आऊँगा, लेकिन
समस्या इसमें यह थी कि उस वक्त श्रेया अगर यह डिब्बा लेकर जाते हुए मुझे देख लेती, तो बड़ा हल्ला मचाती। आखिर इसका इलाज भी मैंने सोच लिया था। मैंने सोचा था
कि श्रेया को उस वक्त टी. वी. के सामने बिठा देंगे। टी. वी. में तो जैसे उसकी जान
बसती थी। जब श्रेया का ध्यान टी. वी. की तरफ़ हो जाएगा, तो
मैं डिब्बे को चुपचाप फ्रिज से निकालकर छोटी दीदी के घर चला जाऊँगा। टी. वी. और
फ्रिज अलग-अलग कमरों में हुआ करते थे।
मगर ऐसा हो नहीं पाया। अगले दिन मैं अभी
दफ्तर में ही था कि छोटी दीदी का फोन आ गया कि वे लोग आज शाम को हमारे घर आएँगे।
शाम को मेरे घर आने के कुछ देर बाद ही
छोटी दीदी व जीजा जी आ गए। साथ में उनके दो बच्चे भी थे, जो
श्रेया से कुछ बड़े थे।
मैं ड्राइंगरूम में छोटी दीदी और जीजा जी
के साथ बैठा था। दीदी के बच्चे भी ड्राइंगरूम में ही थे।
उन लोगों के सामने चाय-वाय के साथ मिठाई
थी रख पाने की स्थिति तो अपनी थी नहीं, इसलिए सुधा के कहने
पर मैं दफ्तर से घर आते हुए बाज़ार से चीनी के बने कुछ खिलौने ले आया था। हम लोगों
ने सोचा था कि चाय के साथ यह बहाना बनाते हुए इन्हें सामने रख देंगे कि ये खिलौने
खाते वक्त बच्चों को बहुत मज़ा आएगा।
सुधा रसोई में चाय बना रही थी। तभी रसोई
से श्रेया की हल्की-हल्की-सी आवाज़ सुनाई दी। वह सुधा से कह रही थी, ‘‘खोल
लो न! खोल लो न!’’
उसके बाद श्रेया के गाल पर ज़ोरदार चपत
लगने की आवाज़ के बाद श्रेया का दिल दहला देनेवाला चीत्कार सुनाई दिया।
ड्राइंगरूम में बैठे लोग हक्के-बक्के-से
रह गए। एकाएक किसी को समझ ही नहीं आया कि यह हुआ क्या है, मगर
ड्राइंगरूम में बैठे-बैठे अपनी आँखों से बिना कुछ देखे ही मैं जान गया था कि रसोई
में क्या हुआ था।
तभी छोटी दीदी मुझसे पूछने लगी, ‘‘क्या
हुआ श्रेया को?’’
मैं सन्न-सा चुपचाप कुर्सी पर बैठा रह
गया। श्रेया का चीत्कार मानो मेरे दिल पर आरियाँ चला रहा था।
रचनाकार के बारे में- प्रकाशन 1,000 से अधिक रचनाएँ (कहानियाँ, कविताएँ/ ग़ज़लें, व्यंग्य, लघुकथाएँ, बाल कहानियाँ/ कविताएँ आदि) विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, एक कविता संग्रह ‘अहसासों की परछाइयाँ’, एक कहानी संग्रह ‘खौलते पानी का भंवर’, एक ग़ज़ल संग्रह ‘ज़ख़्म दिल के’, एक लघुकथा संग्रह ‘ज़िंदगी ज़िंदगी’, एक बाल कथा संग्रह ‘ईमानदारी का स्वाद’, बाल उपन्यास ‘दिल्ली से प्लूटो’ व ‘साधु और जादूगर’ तथा तीन बाल कविता संग्रह ‘गुब्बारे जी’, ‘चाबी वाला बन्दर’ व ‘मम्मी-पापा की लड़ाई’ प्रकाशित। बाल उपन्यास ‘ख़ुशियों की आहट' तथा बाल विज्ञान उपन्यास ‘मेगा 325’ का ऑनलाइन प्रकाशन, 28 विभिन्न संकलनों में रचनाएँ संकलित, सम्प्रतिः भारत सरकार में निदेशक के पद से सेवानिवृत्त, सम्पर्कः 304, एम.एस.4, केन्द्रीय विहार, सेक्टर 56, गुरुग्राम- 122011 (हरियाणा), दूरभाष- 9899221107, ईमेल- harishkumaramit@yahoo.co.in
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