–तो आप हैं इंचार्ज साहब, यह काली–काली बैट्रियाँ कमरे में कितनी भद्दी लग रही हैं। इन्हें बाहर
खिड़की के पास रखवाइए।
–चोरी हो जाने का डर है।
–हूँ चोरी! कोई मजाक है। तब मैं अपनी जेब से रकम
भर दूँगा।
फिर मुआयना।
–मुझे तुम्हारा तार मिला। तो करवा दी चोरी। वाह
मैंने कहा था, रकम भर दूँगा। खूब, तुम
सबने मिलकर सचमुच बैट्रियाँ चोरी करवा दीं। हर रोज एक आदमी की पेशी होगी।
दसवें रोज।
–तुम लोगों को अब क्या पुलिस की पेशियाँ करवाऊँ।
आखिर स्टाफ बच्चों के समान होता है। यह लो सात सौ रुपये। खरीद लाओ नई बैट्रियाँ।
लिख दूँगा, दूसरे दफ्तर वाले बिना बताए ले गए थे। मिल
गईं। वार्निंग ईशू कर दी।
मुआयना खत्म हुआ। साहब का टी.ए -.डी. ए. छब्बीस
सौ से कुछ ऊपर बैठा था।
1 comment:
बहुत सुंदर। बधाई सुदर्शन रत्नाकर
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