-प्रमोद भार्गव
यह संयोग ही है कि करीब 75 साल पहले भारत की धरती से चीते विलुप्त हो गए थे, लेकिन अब सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से चीतों के पुनर्वास की अनुमति मध्य- प्रदेश सरकार के वन-विभाग को मिली थी। जिसपर अमृत महोत्सव के दौरान क्रियान्वयन होने जा रहा है। यह अनुमति राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) की याचिका पर दी गई है। टाइगर स्टेट का दर्जा प्राप्त मध्य- प्रदेश में इन चीतों को दक्षिण अफ्रीका से लाकर कूनो-पालपुर अभ्यारण्य में नया ठिकाना बनाया गया है। यहां पिछले दो दशक से चीतों को बसाने की तैयारी के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ बनाई जा रही हैं। दरअसल
एक समय था जब चीते की रफ्तार भारतीय वनों की शान
हुआ करती थी। लेकिन 1947 के आते-आते चीतों की आबादी पूरी तरह लुप्त हो गई। 1948
में अंतिम चीता छत्तीसगढ़ के सरगुजा में देखा गया था। जिसे मार गिराया गया। चीता
तेज रफ्तार का आश्चर्यजनक चमत्कार माना जाता है। अपनी विशिष्ट एवं लोचपूर्ण
देहयष्टि के लिए भी इस हिंसक वन्य जीव की अलग पहचान थी। शरीर में इसी चपलता के
कारण यह जंगली प्राणियों में सबसे तेज दौड़ने वाला धावक है। इसलिए इसे जंगल की
बिजली भी कहा गया। हालांकि भारत में चीतों के पुनर्वास की कोशिशें असफल रही हैं।
दरअसल,
दक्षिण अफ्रीका के जंगलों से 1993 में दिल्ली के चिड़ियाघर में चार
चीते लाए गए थे, लेकिन छह माह के भीतर ही ये चारों चीते मर
गए। चिड़ियाघर में इनके आवास, परवरिश व प्रजनन के पर्याप्त
उपाय किए गये थे, लिहाजा उम्मीद थी कि यदि इनकी वंशवृद्धि
होती है तो देश के अन्य चिड़ियाघरों व अभ्यारण्यों में ये चीते स्थानांतरित किए
जाएँगे। हालांकि चीतों द्वारा चिड़ियाघरों में प्रजनन अपवाद घटना होती है। नतीजतन
प्रजनन संभव होने से पहले ही चीते मर गए।
बीती सदी में चीतों की संख्या एक लाख तक थी, लेकिन अफ्रीका के खुले घास वाले जंगलों से लेकर भारत सहित लगभग सभी एशियाई
देशों में पाया जाने वाला चीता अब पूरे एशियाई जंगलों में गिनती के रह गए हैं।
राजा चीता (एसिनोनिक्स रेक्स) जिम्बाब्बे में मिलता है। अफ्रीका के जंगलों में भी
गिने-चुने चीते रह गए हैं। तंजानिया के सेरेंगती राष्ट्रीय उद्यान और नामीबिया के
जंगलों में गिने-चुने चीते हैं। प्रजनन के तमाम आधुनिक व वैज्ञानिक उपायों के
बावजूद जंगल की इस फुर्तीली नस्ल की संख्या बढ़ाई नहीं जा पा रही है। यह प्रकृति के
समक्ष वैज्ञानिक दंभ की नाकामी है। जूलॉजिकल सोसायटी ऑफ लंदन की रिपोर्ट को मानें
तो दुनिया में 91 प्रतिशत चीते 1991 में ही समाप्त हो गए थे। अब केवल 7100 चीते
पूरी दुनिया में बचे हैं। एशिया के ईरान में केवल 50 चीते शेष हैं। अफ्रीकी देश
केन्या के मासीमारा क्षेत्र को चीतों का गढ़ माना जाता था, लेकिन
अब इनकी संख्या गिनती की रह गई है।
बीती सदी के पाँचवे दशक तक चीते अमरीका के
चिड़ियाघरों में भी थे। प्राणी विशेषज्ञों की अनेक कोशिशों के बाद इन चीतों ने 1956
में शिशुओं को जन्म भी दिया, परंतु किसी भी शिशु को
बचाया नहीं जा सका। चीते द्वारा किसी चिड़ियाघर में जोड़ा बनाने की यह पहली घटना थी,
जो नाकाम रही। जंगल के हिंसक जीवों का प्रजनन चिड़ियाघरों में
आश्चर्यजनक ढंग से प्रभावित होता है, इसलिए शेर, बाघ, तेंदुए व चीते चिड़ियाघरों में जोड़ा बनाने की
इच्छा नहीं रखते हैं। भारत में चीतों की अंतिम पीढ़ी के कुछ सदस्य बस्तर- सरगुजा के
घने जंगलों में थे, जिन्हें 1947 में देखा गया था। प्रदेश
अथवा भारत सरकार इनके संरक्षण के जरूरी उपाय करने हेतु हरकत में आती, इससे पहले ही चीतों के इन अंतिम वंशजों को भी शिकार के शौकीन
राजा-महाराजाओं ने मार गिराया और वन की इस तेज गति के ताबूत में अंतिम कील भी ठोंक
दी। इस तरह भारतीय चीतों की नस्ल पर पूर्ण विराम लग गया था।
हमारे देश के राजा-महाराजाओं को घोड़ों और
कुत्तों की तरह चीते पालने का भी शौक था। चीता शावकों को पालकर इनसे जंगल में
शिकार कराया जाता था। राजा लोग जब जंगल में आखेट के लिए जाते थे, तो प्रशिक्षित चीतों को बैलगाड़ी में बिठाकर साथ ले जाते थे। इनकी आँखों पर
पट्टी बांध दी जाती थी, जिससे यह किसी मामूली वन्य जीव पर न
झपटे। जब शिकार राजाओं की दृष्टि के दायरे में आ जाता था, तो
चीते की आँखों की पट्टी खोलकर शिकार की दिशा में हाथ से इशारा कर दिया जाता था।
पलक झपकते ही शिकार चीते के कब्जे में होता। शिकार का यह अद्भुत करिश्मा देखना भी
एक आश्चर्यजनक रोमांच की बात रही होगी ?
चिड़ियाघरों में चीतों की आयु 15-16 वर्ष तक देखी
गई है। इनकी औसत उम्र 20 साल होती है। दरअसल एक ओर तो हम विलुप्त होते प्राणियों
के सरंक्षण में लगे हैं, दूसरी तरफ आधुनिक विकास इनके
प्राकृतिक आवास उजाड़ रहा है। पर्यटन से हम आमदनी की बात चाहे जितनी करें, लेकिन पर्यटकों को बाघ, तेंदुआ व अन्य दुर्लभ
प्राणियों को निकट से दिखाने की सुविधाएँ, इनके स्वाभाविक
जीवन को अंततः बुरी तरह प्रभावित करती हैं। यहाँ विचारणीय प्रश्न यह भी है कि जब
चीता विलुप्ति के निकट पहुँच रहा था, तभी इसको बचाने के उपाय
सफेद शेर की तरह क्यों नहीं किए गए ? चीते जैसे प्राणियों के
आचार-व्यवहार के साथ संकट यह भी है कि ये नए जलवायु में आसानी से ढल नहीं पाते
हैं।
सम्पर्कः शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., मो. 09425488224, 09981061100
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