मकर संक्रांति का बरमान मेला
बाबा मायाराम
कल का दिन बरमान मेला में बीता। बरमान, नरसिंहपुर जिले में है। जहाँ से नर्मदा नदी गुजरती है, और नर्मदा के किनारे लगने वाले प्रसिद्ध मेलों में से एक बरमान मेला है।
क्या बुजुर्ग, क्या जवान, महिला, पुरुष और बच्चों की भारी भीड़। कल दोपहर मैं अपनी जीजी (बहन), भांजे के साथ यहाँ पहुँचा। करेली से आनेवाली सड़क पर वाहनों का रेला लगा हुआ था। परिवार समेत लोग यहाँ पहुँचे थे।
हम लोग नरसिंहपुर से मोटरसाइकिल से गए। कुछ देर राजमार्ग से चले और जल्दी से कठौतियाँ के लिए बारूरेवा नदी पार की। बारूरेवा में पानी देख मैंने जीजी से पूछा-“ इसमें बहुत पानी है।”
उसने बताया- “बरगी की नहर का है”
अब हम लोगों ने कठौतिया से अंदर के लिए सड़क पकड़ी, जो पिपरिया लिंगा के वहाँ निकली। इस सड़क के दोनों ओर हरे भरे खेतों ने मन मोह लिया। गन्ने के साथ गेंहू और चना बोया गए थे। ऐसा मैंने कम देखा है। चना, मसूर, सरसों के खेत थे। गन्ने का गुड़ भी कुछ जगह बन रहा था।
इस पूरी पट्टी में एक जमाने में गुड़ बहुत बनता था । करेली व आमगाँव का बाजार गुड़ के लिए बहुत प्रसिद्ध था। अब शक्कर मिलें भी हो गई हैं।
कुछ देर में हम मेला -स्थल पहुँच गए। हाथ में झोला, पीठ पर पिट्ठू लटकाए,छोटे बच्चों को कंधे बिठाए लोगों का ताँता लगा हुआ था। वाहनों को एकाध किलोमीटर दूर ही रोक लिया गया था। दूर-दूर तक वाहन ढिले हुए थे।
वहाँ से पैदल चलकर लोग आ जा रहे थे। दूर-दूर तक जनसमुद्र उमड़ा पड़ रहा था। भीड़ ऐसी कि पाँव रखने की जगह नहीं।
मैंने एक नजर ऊपर से मेले पर डाली। एकाध किलोमीटर में दुकानों के तंबू ही तंबू। नदी किनारे स्नान करते श्रद्धालुजन। नाव और डोंगियों में नारियल व सामान बीनते नाविक व बच्चे। अस्थायी पुल पर से बहती जनधारा।
फूलों के रंगीन गमले व गुलदस्ते, बाँसुरी, गुब्बारे, पुंगी, चश्मे आदि लेकर बेचते फेरी वाले आकर्षित कर रहे थे।
स्नान कर पूजा अर्चना की जा रही थी। बाटी-भरता बनाने के लिए कंडे की अँगीठियाँ लगी थी। धुआँ नथुनों व आँखों में भर जाता था।
नर्मदा के किनारे मेला संस्कृति बहुत प्राचीन है। मेला मिल से बना है। यानी मेल-मिलाप। मिलना जुलना। पहले जब गाँवों में टीवी नहीं थे,वाहन नहीं थे; तब बड़ी संख्या में लोग बैलगाड़ियों से मेले में जाते थे। दो-चार दिन की तैयारी से। ओढऩे-बिछाने के कपड़ों के साथ खाने बनाने के सामान के साथ।
मैं खुद अपने परिवार के साथ बैलगाड़ी से जाया करता था छुटपन में। बैलों को अगर ठंड लगती थी, उन्हें टाट ओढ़ा दिया जाता था और बैलगाड़ी में उनके चरने के लिए भूसा व चारा भी साथ ले जाते थे।
नदियों के किनारे माझी, कहार व केवट समुदाय बड़ी संख्या में रहते हैं और उनका जीवन पूरी तरह नदी पर निर्भर था। डंगरबाडी (तरबूज-खरबूज की खेती) करके वे जीवनयापन करते थे।
नर्मदा की कई कथाएँ हैं, नर्मदा पुराण भी है। पर कम्मावासियों व नर्मदा किनारे के लोगों की कई गाथाएँ हैं। ऐसी नर्मदा के दर्शन मात्र से ही लोग तर जाते हैं;इसीलिए तो आते जा रहे हैं।
हमने स्नान किया। बाटी-भरता का भोजन किया। मेले में घूमे। छोटे बच्चों को खिलौने से खेलते देखा, तो बचपन की याद आई। नर्मदा से मिलना सदैव उसके मिलने के साथ स्मृतियों में खो जाना भी होता है। आंतरिक यात्रा भी होता है जो जारी रहती है।
ऋतु बदलाव का पर्व
नर्मदा तट पर बरमान में संक्रांति मेला बहुत बड़ा होता है। दूर-दूर तक इसकी ख्याति है। चर्चा है।
संक्राति ऋतु बदलाव का पर्व है। संकरात यानी संक्रमण। लोग इस मौके पर परबी लेते हैं। स्नान करते हैं, पूजा करते हैं।
मेलों में आते हैं, नई ऊर्जा पाते हैं, उल्लास व खुशी से भर जाते हैं। रोजाना की कठिन व धीमी गति से निजात पाकर आनंद लेते हैं।
मेले में विविध रुचि व जरूरत वाले लोग आते हैं। पुण्य स्नान तो है ही मुख्य,साथ ही वस्तुएँ खरीदने, बेचने, घूमने फिरने व मनोरंजन के लिए भी लोग आते हैं। यहाँ लोग गाँवों व शहरों से अलग-अलग व एक साथ समूहों में आते हैं। कोई जीप से कोई ट्रेक्टर से कोई आटो रिक्शा से समूहों में आए थे। टोलियों में नर्मदा के जयकारा के साथ झंडे हाथों में लिये यहाँ आए थे।
यहाँ बच्चों व महिलाओं में मेले का काफी आकर्षण दिखा। बच्चे तरह तरह की खेलने की चीजों की दुकानों पर खरीदारी करते दिखे। अपने परिजनों के साथ। पुंगी, फिरकनी, बांसुरी, गुब्बारे व गेंद। गुड्डी के बाल खाते हुए भी देखे गए।
मेलों में बहुत पहले और भीड़ हुआ करती थी। जब वाहन व सिनेमा और मोबाइल फोन का ज़माना नहीं था। लोग पैदल व बैलगाडिय़ों से बड़ी संख्या में आते थे। नाटक, नौटंकी, सर्कस, झूला व हिंडोलना का आकर्षण होता था। अब भी है, अब कुछ नई चीजें भी हैं।
हमारा देश गाँवों का देश है। यहाँ गाँवों से बाहर निकलना कम होता था। मेले ही बाहर जाने और मिलने जुलने का मौका होते थे। यह एक बाजार भी होता था, जहाँ से लोग अपनी जरूरत का सामान खरीदते थे। कुछ ऐसी चीजें होती थी ,जो मेले में अच्छी मिला करती थी। झारा, कढ़ाई, गुड़, ढोलक आदि लोग खरीदते दिखे।
प्रेम और भाईचारा ऐसे मेलों में दिखता है। यह हमारी जमीन से जुड़ी मेला-संस्कृति है ,जो एक दूसरे से जोड़ती है। एक दूसरे से बतियाने व मिलने का मौका देती है।
संस्कृतियों के आदान प्रदान का मौका देती है। मेला संस्कृति हमें सामूहिकता का भाव देती है और उस परंपरा से जोड़ती है जो अच्छी परंपराएँ हैं। जो दिखावे व तामझाम से दूर ठेठ ग्रामीण देसी मिट्टी की उपज हैं।
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