मुक्तेश्वर!
नहीं भूल सकूँगी
तुम्हें
डॉ. आरती स्मित
मुक्तेश्वर !
उत्तराखंड पर्वत -शृंखला का मनमोहक स्थल!
चीड़ और देवदार से घिरा,
वन का संगीत सुनाता हुआ,
अपने पास बुलाता हुआ -सा! ऊँचाई पर
गर्व से सिर उठाए मुक्तेश्वर (शिवलिंग) मंदिर! अपने आप में रहस्यमय और रहस्य- भेदन
करता हुआ- सा भी! लगभग 7500
फीट की ऊँचाई पर बसा यह पर्वतीय इलाका सचमुच पर्वत पर होने का एहसास देता है।
प्रकृति की हरीतिम छटा जहाँ दिन को धूप से अपना रूप संवारती हैं, वहीं रात के
गहरे अँधेरे में रहस्यमयी होकर दिल में खौफ़ पैदा करती है।
सफ़र की शुरुआत
दिल्ली से नैनीताल तक के लिये हुई। अवसर अंतर्राष्ट्रीय महात्मा गाँधी
विश्वविद्यालय एवं महादेवी सृजन पीठ द्वारा बीसवीं सदी के अग्रगण्य साहित्यकार 'भीष्म साहनी
जी की जन्म शताब्दी के उपलक्ष्य में द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के आयोजन में बतौर वक्ता मेरे आमंत्रण का था। संगोष्ठी
बहुत अच्छी रही । ख़ासकर वर्धा विश्वविद्यालय से आईं ,इस
कार्यक्रम की संयोजक शोभा पालीवाल,
वरिष्ठ साहित्यकार हरिसुमनबिष्ट,
हेतु भारद्वाज, ब्रजेन्द्र
त्रिपाठी एवं अन्यान्य साहित्यकारों एवं शोधछात्रों ने वातावरण रमणीक बना दिया था।
तीसरे दिन कुछ साहित्यकारों एवं छात्रों की टोली चली। रास्ते में चाय बागान का
विस्तृत क्षेत्र देखते ही बनता था। दृष्टि की पहुँच तक ,दूर-दूर तक
फ़ैले चाय के पौधे आकर्षण का केंद्र रहे। उपयोगी पत्तियाँ तोड़ी जा चुकी थीं, इसलिए वहाँ
के कामगारों से मिलना न हो सका।
मुक्तेश्वर में,
कुमाऊँ विकास मंडल का गेस्ट हाउस शांत, सुंदर ,रमणीक
परिवेश देने में सक्षम था। दोपहर के ढलते तेवर के बीच हमारी गाड़ी गेस्ट हाउस
पहुँची। अपने कमरे का पर्दा हटाते ही मैं कुहुक पड़ी। कमरे के बाहर बड़ी-सी बालकनी
थी। सामने उन्नत मस्तक किए मुस्कुराता हिमालय ! बर्फ़ कम थी, हिमालय का
हिमरहित चट्टानी शरीर ,
उसकी पूरी शृंखला आँखों के सामने थी। मैं खुली आँखों से देख पा रही थी, उसकी निकटता
महसूस कर पा रही थी। शाम के चार बजे हवा में ठंडक महसूस होने लगी। शांतचित्त खड़े
देवदार कभी प्रहरी से लगते,कभी ध्यानस्थ योगी से। देवदार से लिपटकर गले मिलने, उसकी
पत्तियों को छू कर महसूसने और उस स्पर्श को कहीं अंदर तक उतर जाने देना मुझे प्रिय
रहा है।
हमने तय किया कि पहले 'चौली की जाली',
फिर मुक्तेश्वर मंदिर के दर्शन किए जाएँ। पहाड़ पर ट्रेकिंग का रोमांच मैं किसी
क़ीमत पर खोना नहीं चाहती। सो,
लोग दो हिस्सों में बँट गए,
जिन्हें अच्छे बच्चे की तरह सीधे रास्ते से जाना था, दूसरे, जिन्हें
बिना रास्ते के रास्ता तय करना था--- फिसलन,
ढलान, उबड़-खाबड़
पत्थरों और बारिश के कारण दलदली मिट्टी को पार करते हुए, वह भी घिरते
अँधेरे और बिना ग्रिप वाले जूतों के। सफ़र ख़तरनाक था, इसलिए रोमांचक था। मेरे साथ मज़बूरी में त्रिपाठी जी को साथ
आना पड़ा-- अच्छे सहयात्री होने का फर्ज़ हमेशा की तरह निभाना उन्हें प्रिय है, मगर रास्ते
में बार- बार उन्हें फिसलते देखकर मुझे ज़रा संकोच हो आया कि मेरी वजह से---।
बहरहाल, मैंने
उनका हाथ मज़बूती से पकड़ा और रास्ता बनाती हुई चली। साँझ घिर आने से दिक्कतें बढ़
गईं थीं। कई जगह कँटीली झाड़ियों में उलझने की भी नौबत आई, टॉर्च भूल
गए थे, मोबाइल
की रोशनी इस अधखुली आँखों -सी संध्याकालीन बेला के धुँधले उजाले में व्यर्थ साबित
हो रही थी। कई बार लगता,
हम गलत दिशा में आ गए,
वापसी का रास्ता मालूम न पड़ता। चलते- चलते आख़िरकार वहाँ पहुँच गए , जहाँ उस
पर्वत का शीर्ष था । अब बारी थी शीर्ष पर चढ़ने की, जिससे नीचे हजारों फीट गहरी खाई थी। कुछ युवा पहले से मौजूद
थे। वे सीधे रास्ते से आए थे,
उन्होंने बताया ,
बरसात में वह पगडंडी काफ़ी ख़तरनाक साबित होती है,
कोहरा घिरने लगा। अँधेरे ने अपना कब्ज़ा जमा लिया था।जंगल
की ख़ामोशी का शोर बढ़ता जा रहा था। युवा
साथी हमें सूखे रास्ते की ओर इशारा कर आगे बढ़ चुके थे। रह गए थे हम दोनों। मैं
सुनना- समझना चाहती थी पहाड़ की ख़ामोशी,
लेकिन खुले में। बंद कमरे में तो ख़ामोशी भी शीशे की खिड़की -दरवाज़ों पर सिर
पटककर लौट आने को विवश होती है। मैंने इन दिनों महसूस किया था, हर पहाड़ की, पहाड़ पर उग
आए हर जंगल का अपना संगीत ,
अपनी ख़ामोशी होती है। एक- दूसरे से एकदम अलग! उनके सन्नाटे का शोर भी एक
-दूसरे से बिलकुल भिन्न,
कहीं -कहीं रहस्यमय भी! मोबाइल भी बहुत देर तक साथ देने की स्थिति में न बचा।
गेस्ट हाउस के मेज़बान ने ताकीद कर दी थी कि अँधेरा होने पर हम वहाँ से निकल कर
मुख्य मार्ग तक आ जाएँ,
क्योंकि वह पत्थरों के बीच से आड़ी- तिरछी
बे निशान पगडंडी ही थी,
कोई सड़क नहीं। इसलिए इस समय बिना अपने मन की इच्छा ज़ाहिर किए मैं त्रिपाठी जी
के साथ आगे बढ़ती हुई उस ओर निकल आई,
जिधर मंदिर था। हालाँकि यह मंदिर गेस्ट हाउस से बहुत दूर नहीं था, किंतु जिस
तरह हमने सफ़र किया, वह
अब थकान से भरने लगा था। आसपास कोई नज़र न आता। मंदिर बहुत ऊँचाई पर था। दूसरे दिन
हमें निकलना था, इसलिए
यह लोभ संवरण नहीं कर पाए कि इस सुप्रसिद्ध मंदिर को देखे बिना लौट जाएँ। मंदिर तक
जाने की सीढ़ियाँ दो ओर से बनी थीं। अँधेरे के कारण हमें बहुत समझ नहीं आया कि किधर
से चले। ईश्वर का नाम लेकर हम सँकरी,
मगर ऊँची सीढ़ियों वाले रास्ते से आगे बढ़े। एक स्थान पर चप्पल उतारना था, वहाँ से शिव
मंदिर की ओर बढ़ते हुए अचानक मुझे लगा ,
जैसे दो आँखें मेरा पीछा कर रही हों। बिना बहुत सचेत हुए मैं सीढ़ियाँ चढ़ती शिव
मंदिर तक पहुँची। पुजारी जी पूजा कर रहे थे। उनकी पूजा के बाद हम अंदर गए, मुझे वहाँ राहत
महसूस हुई, निर्भयता
का एहसास हुआ। पुजारी जी ने कहा,
हम यहाँ जब तक चाहें रुकें,
बस, जाते
समय मंदिर की कुंडी चढ़ा दें, वे घर जा
रहे हैं, और
बग़ैर हमारे उत्तर की बहुत प्रतीक्षा किए वे अपनी पत्नी के साथ चले गए। हम मुश्किल
से थोड़ी देर रुके होंगे,
पुजारी जी का इस तरह चले जाना और उस हिस्से में बिजली का न होना थोड़ा असहज कर
गया। हालाँकि वहाँ से पूरा इलाका देखा जा सकता था, मगर अचानक बर्फीली हवा शुरू हो गई। कुछ भी दिखना मुश्किल
था। रात अपेक्षाकृत अधिक गहरी लगने लगी थी। मुझे
आश्चर्य हुआ कि इतनी सारी सीढ़ियाँ वे उतर कैसे गए, शायद दूसरी
ओर से गए हों! हमारे पास कोई उपाय न था,
बर्फ़ीली हवा में टिकना मुश्किल हो रहा था, जिधर से आए थे,
उधर से ही लौटना हमारी विवशता बन गई। कुछ सीढ़ियाँ उतरने पर अजीब-सी गंध ने
मुझे बाँध लिया। सिर घुमाकर देखा तो सीढ़ी के बगल में देवी देवताओं से भरे कमरे में, जहाँ खाली
जगह नाम मात्र की थी,
उसी कमरे के एक हिस्से में थोड़ी ऊँचाई पर बेतरतीब रखी हुई कई छोटी- बड़ी चीज़ों
के बीच एक कुरसी से चिपकी एक गेरुआ
वस्त्रधारी साधु की आकृति दिखी। आँखें बंद थीं,लगा,
कोई मूर्ति है, मैं
कुछ सोच पाती, अचानक
उन्होंने आँखें खोल दीं और हमारी तरफ़ देखा। मेरी नज़रें टकराईं और न जाने क्यों मैं
सिहर उठी। मुझे लगा, कमरा उस
मादक सुगंध से भर उठा है। सबकुछ बड़ा रहस्यमय -सा लगा।उनकी दृष्टि सह पाना मेरे लिए
कठिन हो गया।मैं झटके से बाहर निकली ,तो त्रिपाठी जी उस कमरे में घुसकर, जहाँ एक
आदमी से अधिक खड़े होने भर की भी जगह न थी,
उनसे कुछ कहना चाहते थे,
मगर मैं बेहद डर गई थी। अँधेरा खौफ़ बढ़ा रहा था, अचानक मुझे लगा,
बस भाग जाओ यहाँ से ... पलटो मत! अब यक़ीन नहीं होता ख़ुद पर, उस घटना पर!
मैं त्रिपाठी जी को लगभग खींचती हुई सीढ़ियाँ उतरती गई, उन्हें
रुककर जूते पहनने देने का भी मेरे पास अवकाश न था। शिव मंदिर में जहाँ सात्विकता
पूर्ण वातावरण की अनुभूति हुई थी, घंटों बैठने
को जी चाह रहा था, मगर
उसी मंदिर के तीन-चार सीढ़ी नीचे तांत्रिक मंत्र-प्रभाव से बंधे तामसी वातावरण की
गंध मिल रही थी। मुझे ऐसा लगता,
मानो वे आँखें अब भी मेरा पीछा कर रही हैं,वह गंध मुझे पागल बनाए जा रही है। काफ़ी नीचे उतर आने पर
त्रिपाठी जी जूते बाँध पाए,
फिर सीढ़ियाँ उतरने लगे,
बाहर आकर समझ में आया,
यह ऊपर मंदिर तक जाने का मुख्य मार्ग नहीं था। सड़क विधवा की माँग- सी सुनसान
थी। फिर भी सड़क पर पहुँच कर मैंने राहत की साँस ली, अपने ईश्वर को धन्यवाद दिया, यह दुआ की कि कोई व्यक्ति दिख जाए तो गेस्ट हाउस का रास्ता
पूछ लें। दुआ कुबूल हुई,
हम असमंजस में पड़े खड़े सोच ही रहे थे कि किधर जाएँ, एक लड़का
अँधेरे में से प्रकट हुआ,
और उसने गेस्ट हाउस तक हमें पहुँचाया,
बात- बात में उसने बताया,
"वो बाबा जी सिद्ध पुरुष हैं, पहले दूसरे बाबा जी थे, वे और भी बड़े सिद्ध थे।
अभी उन्हें दाँत में दर्द है इसलिए चुप होंगे। सुबह से बहुत भीड़ होती है।
" मैं उसकी बात से संतुष्ट नहीं हो पाई। मैं पहाड़ के रहस्य में उलझ गई। 'सुबह और दिन
के उजाले में सौंदर्य और भक्ति का समागम करने वाला यह मंदिर रात को रहस्यमय क्यों
हो उठता है?' मेरी
बातें सुनकर लड़के ने कहा,
“यहाँ शाम के बाद कोई भी मंदिर की तरफ़ नहीं जाता। पुजारी जी भी नहीं रहते।'',
"मगर वो बाबा! वो इस बियावान में
कैसे रहते हैं? वहाँ
तो न बिस्तर, न
आसपास बाथरूम ही दिखा मुझे" उसने इसपर कुछ नहीं कहा । हमें पहुँचाकर जाते समय
इतना कहा, "सुबह
जाकर देखेंगे तो आपको मंदिर अच्छे से दिखेगा। इस मंदिर का बहुत महात्म्य
है।"
आज सोचती
हूँ तो आश्चर्य होता है,
क्या हो गया था मुझे?
मैं हजारों फीट की ऊँचाई पर किनारे खड़ी रहकर नहीं घबराई, जबकि वहाँ
ख़तरा था, वहाँ
क्यों इतनी बेचैन हो गई थी?
बेचैनी भी ऐसी कि न खाना खा पाई,
न रात भर सो पाई। रह- रह सिहर उठती। मेरे भीतर का आह्लाद अचानक क्षीण हो गया।
सारा रोमांच, सारी
ऊर्जा निचुड़- सी गई। अतीत के काले पन्नों से निकलकर वहीं तामसी गंध एक बार फिर
मुझे घेरने लगी थी। अपने बच्चों के सिवा मैं तब भी किसी को अपनी स्थिति समझा नहीं
पाई थी, अब
भी नहीं। रात अपने भयावह पंजों में मुझे
जकड़ने की कोशिश में लगी रही,
मैं उसके खौफ़ से मुक्त होने की कोशिश में। बंद शीशे में से ठंडी हवा सेंध
लगाने में सफल रही थी,
लेकिन बेचैनी के कारण लिहाफ़ ओढ़कर रहना भी कठिन हो रहा था। लेटते, बैठते,कमरे में
चक्कर काटते किसी तरह सुबह के तीन- चार बजने का इंतज़ार किया, फिर शॉल
लपेटकर बाहर बालकनी में खड़ी हो गई।देवदार के बीच से , दूर कहीं, सफ़ेद दीवार-
सी दिखी। इस अँधेरे में उस दीवार की दमक अच्छी लगी। चिड़िया की बोली सुनाई देने
लगी। मैं बीती रात के मानसिक आघात को भुलाने की चेष्टा करने लगी। धीरे-धीरे वह
दीवार ओझल हो गई। सुबह की हल्की सुनहरी किरणों ने मेरी चेतना लौटाई, कि यहाँ इस
ऊँचाई पर सफ़ेद दीवार कहाँ से आएगी! वह हिमालय
का बर्फ़ से ढँका हिस्सा था,
जो दिन में कोहरे के कारण दिखता न था,
जबकि घुप्प अँधेरे में उसकी ख़ूबसूरती अलौकिक थी। यह वह क्षण था, जिसे मैंने
जिया-- भरपूर जीया, मगर
उसकी अनुभूति उसी प्रकार समझाने और उस स्थल को बालकनी से दिखाने में असमर्थ रही, क्योंकि
उजाला फैलते ही उसका स्वरूप बदल चुका था। हिमालय के खुले बदन पर पड़ी बर्फ़ की परत
अँधेरे में सफ़ेद रंग पुती दीवार लग रही थी,
मगर उजाले में वह पर्वत का एक ऐसा हिस्सा था, जिसपर न के बराबर
बर्फ़ थी।
मेरे किसी साथी ने यह दृश्य नहीं देखा था, इसलिए उसे
मानने को बाध्य भी नहीं थे। सुबह 10
बजे हमें वापसी की यात्रा करनी थी। काठगोदाम तक के लिए बुक की गई गाड़ी आ चुकी ।
मैं जिस उल्लास से आई,
जिस उल्लास से ज़ीरोपॉइंट को जिया,
वह कहीं छूटता नज़र आया। हाँ,
मैं खामोश हो चुकी थी। वह अँधेरा मेरे अंदर उतर आया था, अव्यवस्थित करने वाली वह गंध मेरी साँसों का हिस्सा बन
चुकी थी। रोबोट की तरह नाश्ता कर,
बेजान गुड़िया की तरह गाड़ी में अपनी सीट पर जा बैठी। अब चुप्पी मेरी सहयात्री
थी। काठगोदाम से शताब्दी में रेल यात्रा आरंभ हुई। मैंने ठंडी साँस ली और बच्चों
को फोन मिलाया, स्वर
फूटे, "मैं
आ रही हूँ।तुम्हें बहुत कुछ बताना है। यक़ीन करोगे न मुझपर?"
दो वर्ष हो गए । उसके बाद पहाड़ की कितनी ही यात्राएँ कीं। मुक्तेश्वर के पास से गुज़री भी, दोबारा जा न पाई न ही मुक्तेश्वर -यात्रा की स्मृति से कभी मुक्त नहीं हो पाई। अब तो लगने लगा है , मुक्तेश्वर!कभी न भूल सकूँगी तुम्हें!
दो वर्ष हो गए । उसके बाद पहाड़ की कितनी ही यात्राएँ कीं। मुक्तेश्वर के पास से गुज़री भी, दोबारा जा न पाई न ही मुक्तेश्वर -यात्रा की स्मृति से कभी मुक्त नहीं हो पाई। अब तो लगने लगा है , मुक्तेश्वर!कभी न भूल सकूँगी तुम्हें!
2 comments:
बहुत रोमांचक रहा आपका यह अनुभव...| पढ़ते पढ़ते मानो मैं भी आपकी सहयात्री बन गई | नैनीताल की अपनी यात्रा याद आ गई, हालांकि इस तरह के रोमांच से मैं दो-चार नहीं हुई कहीं...| हाँ, मुक्तेश्वर के लिए हमने भी पहाड़ियों के बीच से एक शॉर्टकट लिया था, पर अकेले नहीं...बल्कि वहाँ के एक स्थानीय गाइड के साथ...| सब कुछ अच्छा लगा, पर आपकी इन यादों के अंत तक आते आते मन उदास हो गया...|
आशा है, आप एक बार फिर जाएँ मुक्तेश्वर और इस बार वहाँ से लौटते समय की यादें बेहद सुखद हों...|
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