बनारस
की गलियाँ
और पान की मिठास
डॉ.
रत्ना वर्मा
बीते साल 2018 के अंतिम सप्ताह बहनों के साथ मैं बनारस की
यात्रा पर थी। बहाना था बी.एच. यू .में भतीजी का दीक्षांत समारोह। चित्रों और
फिल्मों में बनारस के घाटों और विशाल गंगा के तो खूब दर्शन किए थे पर घाट की इन
सीढ़ियों पर यर्थाथ में चलने का आनंद तो वहाँ जा कर ही लिया जा सकता है। दरअसल
धनुषाकार में बसे बनारस के इन घाटों के बारे में इतना कुछ पढ़ चुकी हूँ और न जाने
कितनी फिल्मों में इसे देख चुकी हूँ कि मन में भ्रम सा होता है कि क्या में यहाँ आ
चुकी हूँ... वरुणा और असी नदियों के संगम के किनारे बसे इस ऐतिहासिक-सांस्कृतिक और
पौराणिक नगरी में घूमने की इच्छा बरसों से मन में दबी थी, जो अब जाकर
पूरी हुई।
हमारा सफर शुरू हुआ पर कुछ विलम्ब से...रायपुर से रात बारह
बजकर ग्यारह मिनट में छूटने वाली हमारी ट्रेन छह घंटे देरी से यानी सुबह छह बजे
रवाना हुई। इस तरह रात दो बजे हम बनारस पहुँचे। रात के सन्नाटे में बनारस जैसे
गहरी नींद में हो, खाली
सड़कें और कँपकँपा देने वाली ठंड...
भतीजी ने आॉनलाइन होटल बुक किया था, जो वैसा
बिल्कुल भी नहीं था जैसा बताया या दिखाया गया था। हम तीन थे सो एक एक्स्ट्रा बेड
लगाने की बात हुई थी। पर जो कमरा हमें दिया गया वह इतना छोटा था कि हम तीनों के
बैग ही बमुश्किल कमरे में आ पाए थे। बाथरुम भी कुछ ठीक नहीं लगा। खैर... थके थे तो किसी तरह चार घंटे उस
दड़बेनुमा होटल में नींद लेकर सुबह उठते ही हमने होटल ही बदल लिया। दिन भर भले ही
बाहर घूमना हो पर रात को तो सुकून की नींद चाहिए। हमें असी घाट के पास ही एक
बिढ़िया सर्वसुविधा युक्त होटल मिल गया। वहाँ से जब चाहे तब पैदल ही घाट तक चले
जाओ और गंगा की लहरों का आनंद लो। सुबह सूर्योदय देख लो शाम सूर्यास्त और चाहिए भी
क्या था।
रात में बनारस की जो सड़कें सन्नाटे से बातें कर रहीं थीं, सुबह होते
ही मंदिर की घंटियों और मस्जि़द से अजान की आवाज़ से गूँज उठा पूरा शहर...
सूर्योदय के साथ ही बनारस की गलियाँ भी जैसे नींद से जाग जाती हैं। सड़क के किनारे
गरम कुल्हड़ वाली चाय और गरमागरम नाश्ते की खूशबू... वड़ा पाव, दोसा, फ्राइड इडली
और उत्पम....
होटल में सामान रख, घाट जाने से पहले सड़क किनारे ठेलों में
बनते गरमागरम नाश्ते का मजा लिया। तय हुआ कि आज चप्पू वाली नाव में बैठकर गंगा की
लहरों के साथ घाटों के दर्शन करेंगे। असी घाट पँहुच कर घाट की सीढ़ियों पर चढ़ते
उतरते हुए घाट पर बने भव्य महलों का स्थापत्य देखने ही लायक है। विभिन्न राजा
महाराजाओं ने यहाँ अपने घाट बनवाए,
मंदिर बनवाए और अपने महल भी बनवाए। प्रत्येक घाट, प्रत्येक
महल और मंदिर की एक अलग ही कथा। तुलसीदास,
रविदास, रामानन्द
जैसे अनेक महान मनीषियों ने काशी में आश्रय लिया था। घाट पहुँचकर एक अलग ही तरह का
रोमांच हो आया... और मैं सोचने लगी कि भ्रम नहीं, मैं यहाँ सचमुच
हूँ... दूर तक गंगा मैया की शांत संगीत सी स्वरलहरियाँ हमें अपने पास आने का
आमंत्रण दे रही थीं...
दीदी ने नाव वाले को फोन पहले ही किया कर दिया था। नाव वाला
दीदी का पूर्व परिचित था,
वे पिछले साल कार्तिक पूर्णिमा में अपने दोस्तों के साथ बनारस आ चुकी थीं।
अनिल नाम था नाव वाले का। उसने दीदी को अपना मोबाइल नम्बर देकर रखा था। वह समय पर
आ गया उसने हमें फोन करके तुलसी घाट पर आने के लिए कहा। उसकी नाव तुलसी घाट पर
लगती थी। सब नाव वालों की अपनी जगह निर्धारित थी। उसने हम तीनों को सावधानी से
अपनी नाव पर बिठाया और चप्पू चलाते हुए गंगा की लहरों के साथ एक घाट से दूसरे घाट
अपनी नाव बढ़ाते चले गया।
चप्पू वाली असंख्य नावों के बीच एक दो मंजिला स्टीमर था और
कुछ मध्यम आकार के मोटर बोट,
जिनमें बड़ी संख्या में पर्यटक बैठ सकते हैं। वैसे अनिल ने भी अपनी नाव में
मोटर फिट करके रखा था। चप्पू से नाव चलाने का अलग किराया और मोटर से चलाने का अलग।
बड़े मोटरबोट को लेकर उसकी नाराजगी साफ दिखी। उसने कहा पीढ़ी दर पीढ़ी हम नाव वाले
गंगा मैया की सेवा करते आ रहे हैं सरकार बड़े- बड़े मोटर बोट लाकर हम चप्पू चलाने
वालों के पेट पर लात मार रही है। उसकी नाराजगी अपनी जगह सही थी।
यद्यपि उसने गंगा की सफाई को लेकर अच्छी बातें कही कि अब
घाट भी साफ सुथरे हैं और गंगा का पानी भी,
पर अभी सफाई पूरी नहीं हुई है,
आज भी बड़ी बड़ी फैक्टरी का काला पानी गंगा में ही आकर मिलता है, उसे रोकना
ज्यादा जरूरी है। इसके बाद अपने असली रोल में आ गया अनिल। फिल्म गाइड के राजू गाइड
के देवानंद की तरह हमारा अनिल गाइड भी घाटों से जुड़े ऐतिहासिक, पौराणिक
कथाओं को बताने में जरा भी कमजोर नहीं पड़ रहा था। उसने हरिश्चन्द्र घाट की कथा
सुनाई, तिरछे
हो चुके मंदिर की कथा बताई,
साथ में और भी कई किस्से कहानियाँ पूरे रास्ते भर चलते रहे... अनिल के पास एक
और खूबी थी वह बहुत अच्छी तस्वीरें भी उतारता था। बीच बीच में वह नाव को गंगा की
लहरों के हवाले कर देता और हमारी मोबाइल ले तस्वीर उतार देता। नाव पर उसने हम
तीनों बहनों की कई अच्छी तस्वीरें उतारी।
अस्सी घाट से तुलसी घाट तक तो हम पैदल ही आ गए थे उसके आगे
के घाटों को नाव में बैठकर पार करते हुए दशाश्ववमेध घाट और उससे भी आगे नये बने
विशाल पुल के करीब तक गंगा की लहरों के बीच तीन चार घंटे घूमते हुए हम तीनों बहनों
ने बहुत आनंद उठाया। बीच में प्रवासी पक्षियों को दाना खिलाते हुए पक्षियों को
एकदम पास से देखना और उनके साथ फोटो खिंचवाने में बड़ा मजा आया। पक्षियों को पास
बुलाने के लिए नमकीन के पैकेट बेचने का व्यापार भी नाव वालों के बीच खूब फल- फूल
रहा है।
मन तो नहीं भरा था पर शाम को गंगा आरती में भी शामिल होना
था सो अनिल ने अपना चप्पू छोड़कर मोटर चालू कर दिया। उसने कहा यदि चप्पू चलाते हुए
लौटेंगे तो आप शाम की आरती नहीं देख पायेंगी। चालाकी तो की उसने पैसा चप्पू वाले
नाव का लिया और वापसी में मोटर चला लिया। पर हमारे पास दूसरा रास्ता नहीं था। हमें
उसकी बात माननी पड़ी। वापस उसने हमें तुलसी घाट पर ही उतारा और कहा साढ़े पाँच बजे
यहीं आ जाइएगा। तीन बज चुके थे अतः हमने घाट के पास ही एक जगह खाना खाया और होटल
लौट गए। आधा घंटा आराम कर फिर वापस तुलसी घाट पहुँच गए। अनिल हमारा इंतजार ही कर
रहा था। बोला जल्दी बैठिए भीड़ बढ़ रही है। हम नाव की ओर जैसे ही बढ़े एक छोटा, पाँच छह साल
का बच्चा हरे पत्तों के दोने में फूल और दिया रखे हमारे पास आ गया। बच्चे का भोला
चेहरा और गंगा में दीपदान करने की चाह में हमने उससे पूछ लिया- कितने का है। उसे
कहा दस रुपये। तब अनिल बोला ये तो साथ ही जाएगा। आरती के बाद वापसी में जहाँ आप
दीये गंगा मैया में छोड़ेंगी तब पैसे दे दीजिएगा। और वह हम लोगों के साथ हो लिया।
तुलसी घाट से दशाश्वमेध घाट तक पहुँचते-पहुँचते छह बज गए। अंधेरा घिर आया था। घाट
की फ्लड लाइटें जल गईं थी जो गंगा की लहरों के साथ अठखेलियाँ कर रही थीं। यद्यपि
वे तेज लाइट हमारी आँखों को चौधिंया रही थीं। मन में तो यही आया ये न होती तो गंगा
आरती का मंजर कुछ और ही होता।
अनिल ने नाव एक जगह लगा दी। चारो तरफ नाव ही नाव सैकड़ों की
तादाद में लोग आरती देखने आए थे। समाने घाट पर भी भारी संख्या में पर्यटकों और
श्रद्धालुओं की भीड़। दो जगह आरती की तैयारी दिखाई दी। थोड़ी देर इंतजार करने के
बाद आरती शुरू हुई। चारो तरफ से आरती के फोटो लेने मोबाइल के कैमरे चमक उठे। गंगा
आरती का अपना एक अलग ही ओज है,
जो कई चरणों में सम्पन्न होती है।
गंगा आरती को देखने दूर- दूर से लोग आते है। विदेशी सैलानी
तो बनारस की गलियों की संस्कृति और गंगा घाट के साथ आरती की इस भव्यता को आश्चर्य
के साथ देखते हैं। इस तरह हमने ठिठुरती ठंड में लगभग एक – ढेड़ घंटे नाव में बैठे-
बैठे गंगा आरती की भव्यता के दर्शन किएl
वापसी में जब नाव की भीड़ थोड़ी छँटी तो साथ बैठे बच्चे से तीन दोने लेकर दीपक
जलाए और गंगा की लहरों में अर्पित कर दिए। इस तरह गंगा मैया को प्रणाम कर हर- हर
गंगे कहते हुए वापस लौट गए। अनिल को हिदायत भी देते आए कि कल अलसुबह गंगा के उस
पार जाएँगे और डुबकी भी लगाएँगे। अनिल ने हाँ तो कहा फिर शंका भी जाहिर की कि कल
से हम नाव वाले अपनी माँगों को लेकर हड़ताल पर जाने वाले हैं, इसलिए कल
सुबह ही बता पाऊँगा कि उसपार जाना हो पाएगा या नहीं।
अब रात के खाने के पहले हमारे पास फिर काफी समय था। दीदी ने
बताया कि आस-पास के प्रसिद्ध मंदिर चलते हैं देर रात तक यहाँ दर्शन होते हैं।
यद्यपि सब बहुत ही पास- पास थे पर समय बचाने के लिए हमने आटो ले लिया। सबसे पहले
जानकी कुंड होते हुए दुर्गा मंदिर,
फिर मानस मंदिर और अंत में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा बनवाया गया संकटमोचन
मंदिर। रात में भीड़ कम थी अतः दर्शन जल्दी- जल्दी और बहुत आराम से हो गए। मानस मंदिर की दीवारों पर सम्पूर्ण तुलसी चरित
मानस उकेरा गया है, दो
मंजिले इस मंदिर के प्रत्येक दीवार पर तुलसीदास की चौपाइयों को बड़े-बड़े अक्षरों
में बहुत ही खूबसूरती से लिखा गया है। मानस मंदिर की इन दीवारों को देखना अद्भुत
अनुभव रहा। तो इस तरह घाट और गंगा की लहरों के साथ बीता हमारा पहला दिन।
दूसरे दिन सुबह सूर्योदय के दर्शन के लिए अस्सी घाट जाना
था। पर हम सुबह जल्दी उठ नहीं पाए। जब उठे तो पता चला कि कोहरा इतना घना है कि
सूर्य देवता तो देर से ही दर्शन देंगे। अनिल से पता चला नाव वालों की हड़ताल भी
शुरू हो गई है। सो गंगा पार जाना भी स्थगित करना पड़ा। इसलिए तीनों तैयार हुए और
बाहर गरमागरम दोसा खाकर सारनाथ के लिए निकल पड़े।
सुबह बहुत भीड़ नहीं था हम जल्दी ही सारनाथ पहुँच गए।
सारनाथ वह प्रसिद्ध स्थल है जहाँ गौतम बुद्ध ने अपना पहला उपदेश दिया था। वहाँ
सारनाथ की प्राचीनता का बोध कराता धमेख स्तूप है। साथ ही खुदाई में प्राप्त अनेक
छोटे बड़े स्तूप के साथ बौद्धविहार और मंदिरों के इस विशान परिसर में वह मूल अशोक
स्तंभ भी है जो तुर्की आक्रमण के दौरान टूट गया था। 1950 में
राष्ट्रीय चिह्न के रूप में स्वीकार किए गए इस स्तंभ के ऊपर का मुख्य हिस्सा
संग्रहालय में रखा है बाकी स्तंभ के नीचे के दो टूटे हुए हिस्से परिसर में
सुरक्षित रखे गए हैं। पर शुक्रवार होने के कारण हम संग्रहालय देखने से वंचित हो
गए।
सारनाथ में तीन- चार घंटे बीताकर और किनारे लगे दुकानों से
कुछ बनारसी बैग लेते हुए लौटते समय एक
कपड़े की लूम भी देखने गए,
खट- खट करते लूम की बुनाई भी देखी। वहाँ से कुछ कपड़े भी खरीदे। सुबह रास्ते
में लमही छह किलोमीटर का बोर्ड देखकर सोचा सारनाथ से वापसी में लमही भी जाएँगे पर
शाम हो जाने के कारण लमही जाना स्थगित करना पड़ा। शुक्रवार होने के कारण सारनाथ का
संग्रहालय भी बंद था उसका रंज तो था ही और अब लमही भी छूट रहा था। एक कसक तो रह ही
गई कि न जाने अब बनारस आना भी होगा या नहीं। खैर... जितना देखा उतने में ही खुश हो
कर हम वापस शहर की ओर लौट आए।
अँधेरा घिर रहा था पर अब भी हमारे पास फिर कुछ समय था। होटल
जाने की बजाय हमने सोचा यहाँ का मुख्य बाजार गदौलिया हो आएँ और वहाँ की कुछ चटपटी चीजें खाई जाएँ। सो पहुँच
गए बनारस के काशी चाट भंडार में। वहाँ टमाटर चाट और कुछ और चटपटी चीजों का स्वाद
चखा फिर पैदल- पैदल लोगों की भीड़ को चीरते हुए आगे बढ़ने लगे।
बनारस जाओ और बनारस का पान न खाओ ये कैसे हो सकता था। पर
हमें पता नहीं था कि कहाँ बढ़िया पान मिलेगा। चलते हुए एक पान की दुकान के पास रुक
गए। थोड़ी देर उसके पास आने जाने वालों खरीददारों को देखते रहे, लगा स्थानीय
लोग आ जा रहे हैं जरूर अच्छा पान बनाता होगा।
थोड़ा झिझकते हुए पास पहुँचे। जैसे हम पान खाने के आदी हों
वैसे तीन पान का आर्डर दे दिया और एक तरफ किनारे खड़े होकर इंतजार करने लगे। हमें
क्या पता था कि तीन पान बनाने में 10
मिनट से भी ज्यादा समय लग जाएगा। हम थोड़ा परेशान भी ही गए। पान वाले ने तीन मीठे
पान के पत्ते सामने रखे और एक के बाद एक न जाने कितने प्रकार के मसाले डाले उसके हाथ लगातार कुछ न कुछ डालते
हुए तेजी से चलते ही रहे। हम तीनों चकित होकर एक दूसरे का चेहरा ताकते रहे की ये
हमें एक पान खिलाएगा या पूरी पान की
दुकान। गजब तो यह कि हमारे तीन पान बनाते- बनाते उसने आठ दस ग्राहकों को भी निपटा
दिया था। एक रहस्य जरूर था वे सब पान तो नहीं ही ले रहें थे, हाँ किसी एक
को हाफ सिगरेट माँगते जरूर सुना,
पान वाला डब्बों से कुछ निकालता इतनी सफाई से उनकी माँगी हुई वस्तु उनके हाथ
में थमाता और पैसे लेता की हम समझ ही नहीं पाते किसने क्या माँगा और क्या ले गया।
खैर हमारा पान 15-
20 मसाले डलने के बाद हमारे हाथ में आ ही गया। हमने पहले पैसा
तो पूछा नहीं था पान मुँह में डालने के
बाद ही पूछा कितना? उसने
60रु
.कहा। हमने पैसा चुकाया यह सोचते हुए कि इतने स्वादिष्ट पान मात्र 20रु..। पान
के स्वाद का आंनद लेते हुए खुश- खुश हम दो कदम चले ही थे कि पान मुँह में घुल गया।
हम चकित एक दूसरे को देखते रहे। मेरा मन किया एक साथ दो- चार पान और बँधवा लेना
था। पर वहाँ 10-15
मिनट खड़े होकर पान बँधवाना नहीं थी। सोचा -कल फिर खा लेंगे, लेकिन वह कल
आया नहीं। हम पान के लिए वक्त नहीं निकाल पाए। पान तो कई बार खाने को मिले पर मेरी
याददाश्त में मैंने वैसा पान तो इससे पहले कभी नहीं खाया था। इस तरह पान की मिठास
के आनंद में डूबे थोड़ी दूर पैदल चलने के बाद ई-रिक्शा ले हम होटल लौट आए।
आज का दिन महामना मदनमोहन मालवीय द्वारा 1116 में
स्थापित बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में
भतीजी के दीक्षांत समारोह के लिए था। भतीजी अपने दोस्तों के साथ हॉस्टल में रुकी
थी, पर
सुबह तैयार होने हमारे पास होटल आ गई थी। हम सब तैयार होकर ओला लेकर लगभग 11 बजे
विश्वविद्यालय पहुँच गए। वहाँ पता चला भतीजी को डिग्री लंच के बाद प्रदान किया
जाएगा। तब तक हम विश्वविद्यालय के विशाल परिसर में घुमते रहे।
बी.एच.यू. परिसर इतना बड़ा है कि पैदल तो घुमा ही नहीं जा
सकता। भतीजी के विभाग तक पैदल आने- जाने में ही लंच का समय हो गया। लंच लेकर हाल
में पहुँचे जहाँ डिग्री दी जानी थी। सबने अपना स्थान ग्रहण किया और कार्यक्रम शुरू
हुआ। तालियों के बीच भतीजी को भी डिग्री प्रदान की गई। सेरेमनी के बाद वह ग्रुप
फोटो खिंचवाने वहीं रुक गई तब तक हम परिसर में स्थित विश्वनाथ मंदिर देखने बाहर आ
गए। इतना भव्य और बड़ा परिसर कि समारोह स्थल से मंदिर तक जाने के लिए भी हमें
रिक्शा लेना पड़ा था।
दर्शन करके वापस होटल पहुँचे तो रोज की तरह वह एजेंट आज भी
हमारा इंतजार कर रहा था। पहले दिन से ही उसने हमें कह रखा था कि वह हमें बनारस की
सिल्क साड़ियों की एक दुकान में ले जाएगा। उसने हमें देखते ही नमस्ते किया और पूछा
भोलेनाथ के दर्शन हो गए। हमने कहाँ वहाँ तो कई घंटे लाइन में खड़ा होना पड़ता है
और हमारे पास इतना समय नहीं है। तब वह बोला आप सुबह छह बजे वहाँ चलिए
बहुत आराम से दर्शन हो जाएँगे। हमने उसे सुबह आने को कह दिया। इस तरह सुबह का
कार्यक्रम बना कमरे में थोड़ी देर रुक कर रात का खाना खाने फिर निकल पढ़े बनारस की
गलियों में पैदल पैदल।
बनारस में हमारा आखिरी दिन। वह एजेंट सुबह आ गया था उसने एक
आटो बुला दिया और हमें बारह ज्योर्तिलिंगों में एक काशी विश्वनाथ मंदिर के दर्शन
के लिए ले गया। गलियों को पार करते हुए जब सुरक्षा गार्ड की चेकिंग के पश्चात
मंदिर परिसर में पहुँचे तो सहसा विश्वास ही नहीं हुआ कि इतनी पतली गलियों के बीच
इतना भव्य मंदिर होगा। एजेंट के बताए अनुसार हमने बहुत अच्छे से दर्शन किए और पूरा
मंदिर परिसर भी बड़े आराम से घूमे। मंदिर परिसर में सुरक्षा के इंतजाम देखकर समझ
में आ गया कि यह पूरा क्षेत्र कितना संवेदनशील है। एक तरफ मंदिर एक तरफ मस्जिद बीच
में काँटों के तार से घिरी मोटी दीवार ।
हमने मोबाइल पहले ही होटल में रख दिया था इसलिए बस चप्पल
रखने एक दुकान में रुकना पड़ा और उसी दुकान से फूल और भोले बाबा को चढ़ाने के लिए
दूध भी लेना पड़ा। चढ़ावे के लिए ५० रु. से लेकर १५० रु. की थाली। खैर हमें लम्बी
लाइन लगाकर गलियों में दूर तक चलना नहीं पड़ा यह हमारी बहुत बड़ी उपलब्धि थी।
क्योंकि पिछले साल दीदी को चार घंटे लाइन में लगकर भोले बाबा के दर्शन मिले थे।
इसलिए हमने तो वहाँ जाना स्थगित ही कर दिया था।
पर काशी नगरी आकर भोले बाबा हमें खाली हाथ कैसे लौटाते... इस तरह हमें भोले बाबा के दर्शन हो ही गए। जबकि
हम तो बीएचयू के विश्वनाथ मंदिर के दर्शन पाकर ही खुश थे।
रविवार का दिन था इसलिए बनारस की दुकाने लगभग बंद थी। पर
एजेंट ने हमारे लिए एक बनारसी साड़ी की एक दुकान खुलवा ही दी। बनारस तो गलियों का
शहर है । वह बुनकरों के जिस दुकान में ले गया वह भी कई गलियों को पार करने के बाद
ही आया। उसने कुछ लूम भी दिखाए जो छुट्टी का दिन होने के कारण बंद थे। सिल्क की
साड़ियाँ कितनी असली थी ,कितनी
नकली यह तो समझ नहीं आया ;इसलिए
हमनें साड़ियाँ खरीदीं कम, देखीं
ज्यादा।
आज रात हमारी वापसी थी। भतीजी भी हमसे मिलने आ गई थी। उसकी दिल्ली वापसी दो दिन बाद थी वह अपने दोस्तों के साथ नया साल बीएचयू में ही मनाना चाहती थी। वह हमें अपने कॉलेज के दिनों के वे अड्डे दिखाने ले गई जहाँ वह अपने दोस्तों के साथ बनारस की गलियों में कुछ खास पकवान खाया करती थी। पहले हम गए दशाश्वमेध घाट की एक गली में पिजारिया रेस्तराँ, जहाँ उसने हमें अपनी पसंद का खास पिज्जा खिलाया। खासियत यह कि यहाँ विदेशी पर्यटक भी पिजारिया का पिज्जा खाने आते हैं। एक छोटे से घर में चलाए जा रहे इस रेस्तराँ को केवल पति पत्नी ही चलाते हैं। पति आर्डर लेते हैं और भीतर छोटे से किचन में पत्नी एकदम ताजा डिश तैयार करके देती है। जितना आर्डर उतनी तैयारी...
भतीजी ने
पहले ही पिजारिया से सफर के लिए उपमा पैक भी करा दिया था। इन तीन दिनों में हम
ब्लू लस्सी नहीं पी पाए थे,
बहुत तारीफ सुनी थी,
सुने थे बनारस की ब्लू लस्सी की । सो कई गलियाँ पार कराके वह हमें ब्लू लस्सी
पिलाने ले गई। ब्लू लस्सी की दुकान तक
पहुँचना किसी टास्क से कम नहीं था,
पर हमने वह भी पूरा किया। कई गलियों से वापस भी लौटे, लोगों ने
कहा आगे रास्ता बंद है क्यों,
क्योंकि वहाँ भूकंप आया है। हम समझ नहीं पाए कि यहाँ भूकंप कब आ गया, तो बताया
गया कि बनारस के अन्य भव्य मंदिरों के आस-पास हुए एनक्रोचमेंट को हटाने के लिए
वहाँ काफी तोड़-फोड़ की गई है। जिसे बनारस वासियों ने भूकंप का नाम दिया है। लेकिन
ये बात तो सत्य है कि मंदिरों के इस शहर में अनेक भव्य मंदिर गलियों के संकरेपन
में कहीं गुम से हो गए हैं। न जाने कितने भूकंप यहाँ लाने पड़ेंगे, तब कहीं
जाकर यहाँ मंदिर बाहर आ पाएँगे।
किसी तरह हम ब्लू लस्सी की उस छोटी सी दुकान में पहुँचते
हैं। दुकान पूरा नीले रंग से रंगा हुआ और उसकी दीवारों पर चारो तरफ ग्राहकों के
फोटो ही फोटो साथ में लिखे मेसेज। हमने भी आर्डर दिया। अभी हम अपनी लस्सी समाप्त
भी नहीं कर पाए थे कि वहाँ विदेशी सैलानियों की भीड़ बढ़ जाती है। हम अपनी लस्सी
समाप्त करते- करते नीचे आ जाते हैं और विदेशी मेहमानों के लिए दुकान खाली कर देते
हैं। एक ही व्यक्ति के लिए चलने वाली इस गली में अचानक भीड़ का एक रेला आ जाता है
और हमें लगभग गली की दीवार से चिपकते हुए उन्हें जगह देनी पड़ती है। एक साँड भी
दौड़ते हुए आता है। हम थोड़ा डर जाते हैं,
पर वहाँ के लोग बड़े आराम से उसे जगह देते हुए आगे बढ़ जाते हैं।
तो इस तरह घाटों की नगरी काशी में चार दिवसीय हमारी यात्रा
पूरी हुई। पर पिक्चर अभी बाकी है मेरे
दोस्त की तर्ज पर हमारी भी यात्रा का अंतिम दृश्य अभी बाकी है.... रात में होटल से हमने सामान उठाया और चल पड़े
रेल्वे स्टेशन की ओर... ओला वाले को भतीजी ने स्पष्ट चेतावनी दी थी कि वह हमें एक
नम्बर प्लेटफार्म पर ही उतारे। पर ओला वाला चालाक था वह जान गया था हम बनारस की
गलियों से वाकिफ़ नहीं हैं सो उसने बड़ी चालाकी से हमें नौ नम्बर प्लेटफार्म में
उतार दिया। हमारे पास उसकी शिकायत करने का समय नहीं था, क्योंकि इस
बार हमारी ट्रेन सही समय पर चल रही थी। हम चाहते, तो भतीजी से कहकर ओला वाले की शिकायत कर सकते थे, क्योंकि
उसने अपने मोबाइल से बुकिंग की थी और उसके पास उसका फोन नम्बर, नाम अता-
पता सब कुछ मिल जाता ,पर
हम कड़ुआहट लेकर यहाँ से वापस जाना नहीं चाहते थे। सामान उठाने एक कुली तय किया
उसे एक नम्बर प्लेटफार्म पर चलने के लिए फिर दो सौ रुपये दिए। समय पर ट्रेन आ गई
थी, हमने
अपनी सीट पर बैठकर ही चैन की साँस ली और टेक्सी वाले की दगाबाजी भूल बिस्तर लगा
लेट गए।...सपनों के लिए यादों में सँजोकर लाए थे बनारस के खूबसूरत घाट, बनारस की
गलियाँ, सारनाथ
के स्तूप, विहार
और साथ में मीठी मलैया,
ब्लू लस्सी, टमाटर
चाट और बनारसी पान की मिठास....
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