पर्यावरण के प्रति भारतीय
जीवन दृष्टि
- लोकेन्द्र सिंह
आज ऐसा कोई देश नहीं है जो पर्यावरण संकट
पर मंथन नहीं कर रहा हो। भारत भी चिंतित है। लेकिन,
जहाँ दूसरे देश
भौतिक चकाचौंध के लिए अपना सबकुछ लुटा चुके हैं,
वहीं भारत के पास
आज भी बहुत कुछ बाकी है। पश्चिम के देशों ने प्रकृति को हद से ज्यादा नुकसान पहुँचाया
है। पेड़ काटकर जंगल के कांक्रीट खड़े करते समय उन्हें अंदाजा नहीं था कि इसके
क्या गंभीर परिणाम होंगे? प्रकृति को नुकसान पहुँचाने से रोकने
के लिए पश्चिम में मजबूत परंपराएँ भी नहीं थीं। प्रकृति संरक्षण का कोई संस्कार
अखण्ड भारतभूमि को छोड़कर अन्यत्र देखने में नहीं आता है। जबकि सनातन परम्पराओं
में प्रकृति- संरक्षण के सूत्र मौजूद हैं। भारतीय
जीवन दृष्टि में प्रकृति पूजन को प्रकृति संरक्षण के तौर पर मान्यता है। भारत में
पेड़-पौधों,
नदी-पर्वत,
ग्रह-नक्षत्र,
अग्नि-वायु सहित प्रकृति के विभिन्न रूपों के
साथ मानवीय रिश्ते जोड़े गए हैं। पेड़ की तुलना संतान से की गई है तो नदी को माँ
स्वरूप माना गया है। ग्रह-नक्षत्र,
पहाड़ और वायु
देवरूप माने गए हैं। प्रकृति के प्रत्येक अवयव को हमने आत्मीय भाव से देखा है और
उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने की व्यवस्था की है। भारतीय दृष्टि प्रकृति का
दोहन नहीं, अपितु त्यागपूर्वक उपभोग का संदेश देती
है।


वैदिक वाङ्मयों में प्रकृति के
प्रत्येक अवयव के संरक्षण और संवर्द्धन के निर्देश मिलते हैं। हमारे ऋषि जानते थे
कि पृथ्वी का आधार जल और जंगल है। इसलिए उन्होंने पृथ्वी की रक्षा के लिए वृक्ष और
जल को महत्वपूर्ण मानते हुए कहा है- 'वृक्षाद् वर्षति पर्जन्य:
पर्जन्यादन्न सम्भव:'
अर्थात् वृक्ष जल
है, जल अन्न है,
अन्न जीवन है। जंगल
को हमारे ऋषि आनंददायक कहते हैं- 'अरण्यं ते पृथिवी स्योनमस्तु।'यही कारण है कि भारतीय जीवन पद्धति के
चार महत्वपूर्ण आश्रमों में से ब्रह्मचर्य,
वानप्रस्थ और
संन्यास का सीधा संबंध वनों से ही है। हम कह सकते हैं कि इन्हीं वनों में हमारी
सांस्कृतिक विरासत का संवर्द्धन हुआ है।
भारतीय संस्कृति में वृक्ष को देवता
मानकर पूजा करने का विधान है। वृक्षों की पूजा करने के विधान के कारण भारतीय जन
स्वभाव से वृक्षों का संरक्षक हो जाते हैं। सम्राट विक्रमादित्य और अशोक के
शासनकाल में वन की रक्षा सर्वोपरि थी। चाणक्य ने भी आदर्श शासन व्यवस्था में
अनिवार्य रूप से अरण्यपालों की नियुक्ति करने की बात कही है। हमारे महर्षि यह भली
प्रकार जानते थे कि पेड़ों में भी चेतना होती है। इसलिए उन्हें मनुष्य के समतुल्य
माना गया है। ऋग्वेद से लेकर बृहदारण्यकोपनिषद्,
पद्मपुराण और
मनुस्मृति सहित अन्य वाङ्मयों में इसके संदर्भ मिलते हैं।
छान्दोग्यउपनिषद् में उद्दालक ऋषि अपने
पुत्र श्वेतकेतु से आत्मा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वृक्ष जीवात्मा से
ओतप्रोत होते हैं और मनुष्यों की भाँति सुख-दु:ख की अनुभूति करते हैं। आधुनिक समय में
भारत के ही वैज्ञानिक जगदीश चंद्र वसु ने अपने प्रयोगों के आधार पर यह सिद्ध कर
दिया कि वनस्पति में भी चेतना होती है, जीवन होता है,
वह भी सुख-दु:ख का अहसास करते हैं। ऋग्वेद में एक
वृक्ष की मनुष्य के दस पुत्रों से तुलना की गई है-
'दशकूप समावापी:
दशवापी समोहृद:।
दशहृद सम:पुत्रो दशपत्र समोद्रुम:।।'
घर में तुलसी का पौधा लगाने का आग्रह
भी भारतीय संस्कृति में क्यों है? यह आज सिद्ध हो गया है। तुलसी का पौधा
मनुष्य को सबसे अधिक प्राणवायु ऑक्सीजन देता है। तुलसी के पौधे में अनेक औषधिय गुण
भी मौजूद हैं। पीपल को देवता मानकर भी उसकी पूजा नियमित इसीलिए की जाती है क्योंकि
वह भी अधिक मात्रा में ऑक्सीजन देता है। परिवार की सामान्य गृहिणी भी अपने अबोध
बच्चे को समझाती है कि रात में पेड़-पौधे को छूना नहीं चाहिए,
वे सो जाते हैं,
उन्हें परेशान करना
ठीक बात नहीं। वह गृहिणी परम्परावश ऐसा करती है। उसे इसका वैज्ञानिक कारण ज्ञात
नहीं रहता। रात में पेड़ कार्बन डाइ ऑक्सीजन छोड़ते हैं,
इसलिए गाँव में
दिनभर पेड़ की छाँव में बिता देने वाले बच्चे-युवा-बुजुर्ग रात में पेड़ों के नीचे सोते भी
नहीं हैं। देवों के देव महादेव तो बिल्व-पत्र और धतूरे से ही प्रसन्न होते हैं।
यदि कोई शिवभक्त है तो उसे बिल्वपत्र और धतूरे के पेड़-पौधों की रक्षा करनी ही पड़ेगी। वट
पूर्णिमा और आंवला ग्यारस का पर्व मनाना है तो वटवृक्ष और आंवले के पेड़ धरती पर
बचाने ही होंगे। सरस्वती को पीले फूल पसंद हैं। धन-सम्पदा की देवी लक्ष्मी को कमल और
गुलाब के फूल से प्रसन्न किया जा सकता है। गणेश दूर्वा से प्रसन्न हो जाते हैं।
प्रत्येक देवी-देवता भी पशु-पक्षी और पेड़-पौधों से लेकर प्रकृति के विभिन्न
अवयवों के संरक्षण का संदेश देते हैं।

'एतेषां सर्ववृक्षाणां छेदनं नैव
कारयेत्।
चातुर्मास्ये विशेषेण विना यज्ञादि
कारणम्।।'
अर्थात्
वृक्षों को काटना नहीं चाहिए। यदि यज्ञ के उद्देश्य से काटना भी पड़े,
तो भी वर्षा ऋतु
में कदापि न काटा जाए। यहाँ ध्यान देना चाहिए कि यज्ञ जैसे पवित्र एवं लोक कल्याण
के कार्य के लिए भी वृक्ष काटने पर आंशिक प्रतिबंध है। ऋषियों ने स्पष्टतौर पर कहा
है कि वर्षा ऋतु में तो किसी भी प्रकार से वनस्पति को नुकसान नहीं पहुँचाना चाहिए।
वर्षा ऋतु प्रकृति के आनंद का समय है।
जलस्रातों का भी भारतीय जीवन दृष्टि
में बहुत महत्व है। ज्यादातर गाँव-नगर नदी के किनारे पर बसे हैं। ऐसे
गाँव जो नदी किनारे नहीं हैं, वहां ग्रामीणों ने तालाब बनाए थे। बिना
नदी या ताल के गाँव-नगर के अस्तित्व की कल्पना नहीं है।
भारतीय संस्कृति के आधार स्तम्भ चार वेदों में से एक अथर्ववेद में बताया गया है कि
आवास के समीप शुद्ध जलयुक्त जलाशय होना चाहिए। जल दीर्घायु प्रदायक,
कल्याणकारक,
सुखमय और
प्राणरक्षक होता है। शुद्ध जल के बिना जीवन संभव नहीं है। यही कारण है कि जलस्रोतों को बचाए रखने के
लिए हमारे ऋषियों ने इन्हें सम्मान दिया। पूर्वजों ने कल-कल प्रवहमान सरिता गंगा को ही नहीं वरन सभी
जीवनदायनी नदियों को माँ कहा है। भारतीय परंपरा में अनेक अवसर पर नदियों, तालाबों और सागरों की माँ के रूप में उपासना की
जाती है। छान्दोग्योपनिषद् में अन्न की अपेक्षा जल को उत्कृष्ट कहा गया है। महर्षि
नारद ने भी कहा है कि पृथ्वी भी मूर्तिमान जल है। अन्तरिक्ष, पर्वत, पशु-पक्षी, देव-मनुष्य, वनस्पति सभी मूर्तिमान जल ही हैं। जल ही ब्रह्म
है।
महान
ज्ञानी ऋषियों ने धार्मिक परंपराओं से जोड़कर पर्वतों की भी महत्ता स्थापित की है।
देश के प्रमुख पर्वत देवताओं के निवास स्थान हैं। अगर पर्वत देवताओं के वासस्थान
नहीं होते तो कब के खनन माफिया उन्हें उखाड़ चुके होते। विन्ध्यगिरि महाशक्तियों
का वासस्थल है, कैलाश महाशिव की तपोभूमि है। हिमालय को तो भारत
का किरीट कहा गया है। महाकवि कालिदास ने 'कुमारसम्भवम्' में हिमालय की महानता और देवत्व को बताते हुए
कहा है- '‘अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः।'
भगवान श्रीकृष्ण ने
गोवर्धन की पूजा का विधान इसलिए शुरू कराया था क्योंकि गोवर्धन पर्वत पर अनेक औषधि
के पेड़-पौधे थे,
मथुरा के गोपालकों
के गोधन के भोजन-पानी का इंतजाम उसी पर्वत पर था। मथुरा-वृन्दावन सहित पूरे देश में दीपावली के
बाद गोवर्धन पूजा धूमधाम से की जाती है।

भारतीय जीवन दृष्टि का वैशिष्ट्य है कि
वह प्रकृति के संरक्षण की परम्परा की जन्मदाता है। भारतीय जीवन दृष्टि में
प्रत्येक जीव के कल्याण का भाव है। भारत के प्रमुख त्योहार प्रकृति के अनुरूप ही
हैं। मकर संक्रान्ति, वसंत पंचमी,
महाशिव रात्रि,
होली,
नवरात्र,
गुड़ी पड़वा,
वट पूर्णिमा,
ओणम्,
दीपावली,
कार्तिक पूर्णिमा,
छठ पूजा,
शरद पूर्णिमा,
अन्नकूट,
देव प्रबोधिनी
एकादशी, हरियाली तीज,
गंगा दशहरा आदि सब
पर्वों में प्रकृति संरक्षण का ही स्मरण है। आज यह स्थापित सत्य है कि प्राचीन काल
में हमने जिन्हें ऋषि-मुनि कह कर संबोधित किया है,
वह उस समय के
वैज्ञानिक-विचारक थे। अपनी वैज्ञानिक समझ के आधार
पर ही उन्होंने प्रकृति संरक्षण की ओर विशेष ध्यान दिया है। प्रकृति और प्रकृति
द्वारा प्रदत्त प्राकृतिक संसाधनों को संवद्र्धित कर आने वाली अपनी पीढ़ी को
सौंपना हमारा नैतिक कर्तव्य है। ज्ञान संगम में 'प्रकृति में सामंजस्य एवं समन्वय की
भारतीय दृष्टि' विषय पर अपनी बात रखते हुए पैसिफिक
विश्वविद्यालय, जयपुर के कुलपति प्रो.
भगवती प्रकाश शर्मा
ने बहुत महत्वपूर्ण विचार रखे। उन्होंने स्पष्टतौर पर कहा है कि अपनी आने वाली पीढ़ियों
को प्राकृतिक संसाधन देने के लिए प्रत्येक व्यक्ति का दायित्व है कि वह अपने
द्वारा उपयोग किए हुए संसाधनों एवं ऊर्जा का हिसाब रखे। जब हम यह हिसाब रखेंगे, तब ही हमें पता होगा कि हमने प्रकृति
को कितना नुकसान पहुँचाया है। जब हमें यह पता होगा कि हमने प्रकृति को कितना
नुकसान पहुँचाया है या पहुँचा रहे हैं, तब हम उसकी भरपाई के लिए सोचेंगे।
प्रकृति को पहुँचाए नुकसान की भरपाई का विचार या प्रयास करते समय हमें ध्यान आएगा
कि प्रकृति के अवदानों की प्रतिपूर्ति संभव नहीं है। इसके लिए एक ही रास्ता है कि
हम संपूर्ण प्रकृति के प्रति भारतीय जीवन दृष्टि को पुन:
व्यवहार में लाएँ।
यह अत्यंत कठिन और असंभव कार्य भी नहीं है। भारतीय परंपरा ने सभी उपयोगी
वनस्पतियों के संरक्षण की पूर्ण व्यवस्था की,
बस उसका पालन करने
की आवश्यकता है।
सम्पर्कः सहायक प्राध्यापक ,
माखनलाल चतुर्वेदी
राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय,
भोपाल, E-mail-
lokendra777@gmail.com
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