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Jun 12, 2018

पर्यावरण के प्रति भारतीय जीवन दृष्टि


पर्यावरण के प्रति भारतीय जीवन दृष्टि
- लोकेन्द्र सिंह        
आज ऐसा कोई देश नहीं है जो पर्यावरण संकट पर मंथन नहीं कर रहा हो। भारत भी चिंतित है। लेकिन, जहाँ दूसरे देश भौतिक चकाचौंध के लिए अपना सबकुछ लुटा चुके हैं, वहीं भारत के पास आज भी बहुत कुछ बाकी है। पश्चिम के देशों ने प्रकृति को हद से ज्यादा नुकसान पहुँचाया है। पेड़ काटकर जंगल के कांक्रीट खड़े करते समय उन्हें अंदाजा नहीं था कि इसके क्या गंभीर परिणाम होंगे? प्रकृति को नुकसान पहुँचाने से रोकने के लिए पश्चिम में मजबूत परंपराएँ भी नहीं थीं। प्रकृति संरक्षण का कोई संस्कार अखण्ड भारतभूमि को छोड़कर अन्यत्र देखने में नहीं आता है। जबकि सनातन परम्पराओं में प्रकृति- संरक्षण के सूत्र मौजूद हैं। भारतीय जीवन दृष्टि में प्रकृति पूजन को प्रकृति संरक्षण के तौर पर मान्यता है। भारत में पेड़-पौधों, नदी-पर्वत, ग्रह-नक्षत्र, अग्नि-वायु सहित प्रकृति के विभिन्न रूपों के साथ मानवीय रिश्ते जोड़े गए हैं। पेड़ की तुलना संतान से की गई है तो नदी को माँ स्वरूप माना गया है। ग्रह-नक्षत्र, पहाड़ और वायु देवरूप माने गए हैं। प्रकृति के प्रत्येक अवयव को हमने आत्मीय भाव से देखा है और उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने की व्यवस्था की है। भारतीय दृष्टि प्रकृति का दोहन नहीं, अपितु त्यागपूर्वक उपभोग का संदेश देती है।
     ईशावास्योपनिषद के पहले ही श्लोक में इस संबंध में कहा गया है- 'ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यांजगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्यस्विद्धनम्।' अर्थात् इस जगत् में जो कुछ भी है वह सब ईश्वर द्वारा आच्छदित है। अर्थात् उसे ईश्वर ने उत्पन्न किया है और वही उसका स्वामी है। इसलिए मनुष्यों को उन सब सांसारिक पदार्थों का उपभोग त्याग की भावना रखकर ही करना चाहिए। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय की ओर से 7-8 दिसंबर, 2017 को भोपाल में आयोजित दो दिवसीय 'ज्ञान- संगम'में यही बात अखिल भारतीय साहित्य परिषद के संगठन मंत्री श्रीधर पराड़कर ने भी रखी। उन्होंने कहा कि हमें जो कुछ भी प्रकृति से प्राप्त हुआ है, उसका त्यागपूर्वक भोग करना चाहिए। उन्होंने कहा कि प्रत्येक क्षेत्र में आज जो समस्याएँ दिख रही हैं, उसका कारण है कि हमने भारतीय जीवन के आधार छोड़ दिए हैं। ज्ञान संगम में भारतीय शिक्षण मंडल के राष्ट्रीय संगठन मंत्री मुकुल कानिटकर ने उचित ही कहा कि प्रकृति भोग के लिए नहीं, बल्कि सामंजस्य एवं संतुलन बनाकर साथ चलने के लिए है और यही भारतीय दृष्टि है। प्रकृति के साथ यदि हमारा समन्वय हो जाएगा तो सामंजस्य की आवश्यकता नहीं होगी। यह सत्य है कि यदि पर्यावरण के प्रति भारतीय जीवन दृष्टि को विश्व के सभी लोग अपने जीवन में उतार लें, तो पर्यावरण की समूची समस्याओं का समाधान प्राप्त हो सकता है। यही कारण है कि पर्यावरण से संबंधित अनेक प्रकार की समस्याओं के समाधान के लिए विश्व भारत की ओर देख रहा है। पर्यावरण को बचाने एवं समृद्ध करने के लिए विश्व के अनेक देश भारत के नेतृत्व को स्वीकार कर चुके हैं। प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक जे. नंदकुमार ने भी ज्ञान संगम में 'भारत की जीवन दृष्टि' को स्पष्ट करते हुए प्रकृति के प्रति भारतीय दृष्टि को प्रस्तुत किया है। श्री नंदकुमार ने कहा था कि भारतीय दृष्टि समूची सृष्टि को ईश्वर ही मानती है। मनुष्य मात्र में ही नहीं, अपितु प्रकृति के प्रत्येक तत्व- पेड़-पौधे, पक्षी, ग्रह-नक्षत्र, पृथ्वी, समुद्र एवं पहाड़, सबमें ईश्वर का ही अंश है। सबमें एक ही ब्रह्म है। इसलिए भारतीय ज्ञान परंपरा में सबके साथ आत्मीय संबंध देखे गए हैं। अन्यत्र किसी विचार-संस्कृति में प्रकृति के प्रति ऐसा दृष्टिकोण नहीं है। उन्होंने बताया- 'भृतहरि ने अपने वैराग्य शतक में प्रकृति की ओर संकेत करते हुए लिखा है कि आकाश मेरा भाई है। पृथ्वी मेरी माता है। वायु मेरे पिता हैं और अग्नि मेरा मित्र है। उन्होंने कहा कि भारतीय दर्शन में प्रकृति को आनंद का बगीचा नहीं माना, बल्कि इसके साथ आत्मीय सम्बन्ध बनाए हैं।' भारतीय जीवन दृष्टि में प्रकृति के साथ यह जो आत्मीय संबंध स्थापित किए गए हैं, यही प्रकृति के साथ सामंजस्य एवं समन्वय की ओर मानव जाति को प्रेरित करती है।
  प्राचीन समय से ही भारत के वैज्ञानिक ऋषि-मुनियों को प्रकृति संरक्षण और मानव के स्वभाव की गहरी जानकारी थी। वे जानते थे कि मानव अपने क्षणिक लाभ के लिए कई मौकों पर गंभीर भूल कर सकता है। अपना ही भारी नुकसान कर सकता है। इसलिए उन्होंने प्रकृति के साथ मानव के संबंध विकसित कर दिए। ताकि मनुष्य को प्रकृति को गंभीर क्षति पहुँचाने से रोका जा सके। यही कारण है कि प्राचीन काल से ही भारत में प्रकृति के साथ संतुलन करके चलने का महत्वपूर्ण संस्कार है। यह सब होने के बाद भी भारत में भौतिक विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति पददलित हुई है। लेकिन, यह भी सच है कि यदि ये परंपराएँ न होतीं तो भारत की स्थिति भी गहरे संकट के किनारे खड़े किसी पश्चिमी देश की तरह होती। भारतीय जीवन दृष्टि ने कहीं न कहीं प्रकृति का संरक्षण किया है। भारत के लोगों का प्रकृति के साथ कितना गहरा रिश्ता है, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि दुनिया के सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद का प्रथम मंत्र ही अग्नि की स्तुति में रचा गया है।
  प्रत्येक भारतीय परम्परा के पीछे कोई न कोई वैज्ञानिक रहस्य छिपा हुआ है। इन रहस्यों को प्रकट करने का कार्य होना चाहिए। भारतीय जीवन पद्धति के संबंध में एक बात दुनिया मानती है कि यह 'जियो और जीने दो'के सिद्धांत पर आधारित है। यह विशेषता किसी अन्य विचार में नहीं है। दुनिया के शेष विचार सिर्फ अपने तक सीमित हैं। उनका भरोसा केवल 'मैं ही' में है। इसलिए वह दूसरे के अस्तित्व का न तो सम्मान करते हैं और न ही उसे स्वीकार करते हैं। यह विचार अपने से इतर विचारों को येन-केन-प्रकारेण अपने जैसा ही बना लेने को तत्पर हैं। जबकि भारतीय जीवन दृष्टि में न केवल दूसरों का सम्मान है, अपितु वह स्वीकार्य भी हैं। भारतीय जीवन दृष्टि का विश्वास 'मैं भी' में है। अर्थात् भारत के लोग, विचार और दर्शन अपने साथ दूसरों के अस्तित्व को मानते हैं। सह-अस्तित्व में भारतीय लोगों का भरोसा है। यह जीवन को देखने की एक उदात्त दृष्टि है। इसलिए भारतीय लोग अधिक संवेदनशील होकर सृष्टि के समस्त तत्वों के साथ आत्मीय संबंध स्थापित कर उनके अस्तित्व को सम्मान देते हैं।
            वैदिक वाङ्मयों में प्रकृति के प्रत्येक अवयव के संरक्षण और संवर्द्धन के निर्देश मिलते हैं। हमारे ऋषि जानते थे कि पृथ्वी का आधार जल और जंगल है। इसलिए उन्होंने पृथ्वी की रक्षा के लिए वृक्ष और जल को महत्वपूर्ण मानते हुए कहा है- 'वृक्षाद् वर्षति पर्जन्य: पर्जन्यादन्न सम्भव:' अर्थात् वृक्ष जल है, जल अन्न है, अन्न जीवन है। जंगल को हमारे ऋषि आनंददायक कहते हैं- 'अरण्यं ते पृथिवी स्योनमस्तु।'यही कारण है कि भारतीय जीवन पद्धति के चार महत्वपूर्ण आश्रमों में से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास का सीधा संबंध वनों से ही है। हम कह सकते हैं कि इन्हीं वनों में हमारी सांस्कृतिक विरासत का संवर्द्धन हुआ है।
   भारतीय संस्कृति में वृक्ष को देवता मानकर पूजा करने का विधान है। वृक्षों की पूजा करने के विधान के कारण भारतीय जन स्वभाव से वृक्षों का संरक्षक हो जाते हैं। सम्राट विक्रमादित्य और अशोक के शासनकाल में वन की रक्षा सर्वोपरि थी। चाणक्य ने भी आदर्श शासन व्यवस्था में अनिवार्य रूप से अरण्यपालों की नियुक्ति करने की बात कही है। हमारे महर्षि यह भली प्रकार जानते थे कि पेड़ों में भी चेतना होती है। इसलिए उन्हें मनुष्य के समतुल्य माना गया है। ऋग्वेद से लेकर बृहदारण्यकोपनिषद्, पद्मपुराण और मनुस्मृति सहित अन्य वाङ्मयों में इसके संदर्भ मिलते हैं।
            छान्दोग्यउपनिषद् में उद्दालक ऋषि अपने पुत्र श्वेतकेतु से आत्मा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वृक्ष जीवात्मा से ओतप्रोत होते हैं और मनुष्यों की भाँति सुख-दु:ख की अनुभूति करते हैं। आधुनिक समय में भारत के ही वैज्ञानिक जगदीश चंद्र वसु ने अपने प्रयोगों के आधार पर यह सिद्ध कर दिया कि वनस्पति में भी चेतना होती है, जीवन होता है, वह भी सुख-दु:ख का अहसास करते हैं। ऋग्वेद में एक वृक्ष की मनुष्य के दस पुत्रों से तुलना की गई है-
'दशकूप समावापी: दशवापी समोहृद:
दशहृद सम:पुत्रो दशपत्र समोद्रुम:।।'
      घर में तुलसी का पौधा लगाने का आग्रह भी भारतीय संस्कृति में क्यों है? यह आज सिद्ध हो गया है। तुलसी का पौधा मनुष्य को सबसे अधिक प्राणवायु ऑक्सीजन देता है। तुलसी के पौधे में अनेक औषधिय गुण भी मौजूद हैं। पीपल को देवता मानकर भी उसकी पूजा नियमित इसीलिए की जाती है क्योंकि वह भी अधिक मात्रा में ऑक्सीजन देता है। परिवार की सामान्य गृहिणी भी अपने अबोध बच्चे को समझाती है कि रात में पेड़-पौधे को छूना नहीं चाहिए, वे सो जाते हैं, उन्हें परेशान करना ठीक बात नहीं। वह गृहिणी परम्परावश ऐसा करती है। उसे इसका वैज्ञानिक कारण ज्ञात नहीं रहता। रात में पेड़ कार्बन डाइ ऑक्सीजन छोड़ते हैं, इसलिए गाँव में दिनभर पेड़ की छाँव में बिता देने वाले बच्चे-युवा-बुजुर्ग रात में पेड़ों के नीचे सोते भी नहीं हैं। देवों के देव महादेव तो बिल्व-पत्र और धतूरे से ही प्रसन्न होते हैं। यदि कोई शिवभक्त है तो उसे बिल्वपत्र और धतूरे के पेड़-पौधों की रक्षा करनी ही पड़ेगी। वट पूर्णिमा और आंवला ग्यारस का पर्व मनाना है तो वटवृक्ष और आंवले के पेड़ धरती पर बचाने ही होंगे। सरस्वती को पीले फूल पसंद हैं। धन-सम्पदा की देवी लक्ष्मी को कमल और गुलाब के फूल से प्रसन्न किया जा सकता है। गणेश दूर्वा से प्रसन्न हो जाते हैं। प्रत्येक देवी-देवता भी पशु-पक्षी और पेड़-पौधों से लेकर प्रकृति के विभिन्न अवयवों के संरक्षण का संदेश देते हैं।
     मनुष्य के जीवन में वनस्पति के इस महत्व को जानकर ही ऋषियों ने उनकी स्तुति-पूजा का विधान रचा है। यह भी कहा जा सकता है कि ऋषियों ने यह व्यवस्था इसलिए दी होगी ताकि मनुष्य अपनी जीवन में वनस्पति के महत्व से भली-भाँति परिचित हो सके। पेड़-पौधों को नुकसान पहुँचाने से रोकना भी एक प्रमुख उद्देश्य रहा होगा। यद्यपि जीवित वनस्पति का मनुष्य के जीवन में अत्यधिक महत्व है, किंतु घर निर्माण, रसोई और यज्ञ आदि के लिए भी लकड़ी की आवश्यकता रहती है। ऐसी स्थिति में मनुष्य के सामने धर्मसंकट खड़ा न हो इसके लिए भी भारतीय संस्कृति में मार्गदर्शन दिया गया है। ऋषियों ने कहा कि वृक्षों से प्रार्थना करके लड़की, छाल, फूल-पत्ती माँगनी चाहिए। वृक्ष हमारी याचना सुनते हैं। इसके कई उदाहरण आख्यान में मिलते हैं। इसके बाद भी बहुत अधिक आवश्यकता के कारण वृक्ष काटना पड़े, तो उससे क्षमा याचना की परंपरा है। इसके लिए स्कन्दपुराण में कहा गया है-
'एतेषां सर्ववृक्षाणां छेदनं नैव कारयेत्।
चातुर्मास्ये विशेषेण विना यज्ञादि कारणम्।।'
अर्थात् वृक्षों को काटना नहीं चाहिए। यदि यज्ञ के उद्देश्य से काटना भी पड़े, तो भी वर्षा ऋतु में कदापि न काटा जाए। यहाँ ध्यान देना चाहिए कि यज्ञ जैसे पवित्र एवं लोक कल्याण के कार्य के लिए भी वृक्ष काटने पर आंशिक प्रतिबंध है। ऋषियों ने स्पष्टतौर पर कहा है कि वर्षा ऋतु में तो किसी भी प्रकार से वनस्पति को नुकसान नहीं पहुँचाना चाहिए। वर्षा ऋतु प्रकृति के आनंद का समय है।
    जलस्रातों का भी भारतीय जीवन दृष्टि में बहुत महत्व है। ज्यादातर गाँव-नगर नदी के किनारे पर बसे हैं। ऐसे गाँव जो नदी किनारे नहीं हैं, वहां ग्रामीणों ने तालाब बनाए थे। बिना नदी या ताल के गाँव-नगर के अस्तित्व की कल्पना नहीं है। भारतीय संस्कृति के आधार स्तम्भ चार वेदों में से एक अथर्ववेद में बताया गया है कि आवास के समीप शुद्ध जलयुक्त जलाशय होना चाहिए। जल दीर्घायु प्रदायक, कल्याणकारक, सुखमय और प्राणरक्षक होता है। शुद्ध जल के बिना जीवन संभव नहीं है। यही कारण है कि जलस्रोतों को बचाए रखने के लिए हमारे ऋषियों ने इन्हें सम्मान दिया। पूर्वजों ने कल-कल प्रवहमान सरिता गंगा को ही नहीं वरन सभी जीवनदायनी नदियों को माँ कहा है। भारतीय परंपरा में अनेक अवसर पर नदियों, तालाबों और सागरों की माँ के रूप में उपासना की जाती है। छान्दोग्योपनिषद् में अन्न की अपेक्षा जल को उत्कृष्ट कहा गया है। महर्षि नारद ने भी कहा है कि पृथ्वी भी मूर्तिमान जल है। अन्तरिक्ष, पर्वत, पशु-पक्षी, देव-मनुष्य, वनस्पति सभी मूर्तिमान जल ही हैं। जल ही ब्रह्म है।
     महान ज्ञानी ऋषियों ने धार्मिक परंपराओं से जोड़कर पर्वतों की भी महत्ता स्थापित की है। देश के प्रमुख पर्वत देवताओं के निवास स्थान हैं। अगर पर्वत देवताओं के वासस्थान नहीं होते तो कब के खनन माफिया उन्हें उखाड़ चुके होते। विन्ध्यगिरि महाशक्तियों का वासस्थल है, कैलाश महाशिव की तपोभूमि है। हिमालय को तो भारत का किरीट कहा गया है। महाकवि कालिदास ने 'कुमारसम्भवम्' में हिमालय की महानता और देवत्व को बताते हुए कहा है- 'अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः।' भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन की पूजा का विधान इसलिए शुरू कराया था क्योंकि गोवर्धन पर्वत पर अनेक औषधि के पेड़-पौधे थे, मथुरा के गोपालकों के गोधन के भोजन-पानी का इंतजाम उसी पर्वत पर था। मथुरा-वृन्दावन सहित पूरे देश में दीपावली के बाद गोवर्धन पूजा धूमधाम से की जाती है।
  इसी प्रकार हमारे महर्षियों ने जीव-जन्तुओं के महत्व को पहचानकर उनकी भी देवरूप में अर्चना की है। मनुष्य और पशु परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर हैं। हिन्दू धर्म में गाय, कुत्ता, बिल्ली, चूहा, हाथी, शेर और यहां तक की विषधर नागराज को भी पूजनीय बताया है। भारतीय परिवारों में पहली रोटी गाय के लिए और आखिरी रोटी कुत्ते के लिए निकाली जाती है। चींटियों को भी बहुत से लोग आटा डालते हैं। चिड़ियों और कौओं के लिए घर की मुँडेर पर दाना-पानी रखा जाता है। पितृपक्ष में तो काक को बाकायदा निमंत्रित करके दाना-पानी खिलाया जाता है। इन सब परम्पराओं के पीछे जीव संरक्षण का संदेश है। भारतीय व्यक्ति गाय को माँ कहता है। उसकी अर्चना करता है। नागपंचमी के दिन नागदेव की पूजा की जाती है। नाग-विष से मनुष्य के लिए प्राणरक्षक औषधियों का निर्माण होता है। नाग पूजन के पीछे का रहस्य ही यह है।
     भारतीय जीवन दृष्टि का वैशिष्ट्य है कि वह प्रकृति के संरक्षण की परम्परा की जन्मदाता है। भारतीय जीवन दृष्टि में प्रत्येक जीव के कल्याण का भाव है। भारत के प्रमुख त्योहार प्रकृति के अनुरूप ही हैं। मकर संक्रान्ति, वसंत पंचमी, महाशिव रात्रि, होली, नवरात्र, गुड़ी पड़वा, वट पूर्णिमा, ओणम्, दीपावली, कार्तिक पूर्णिमा, छठ पूजा, शरद पूर्णिमा, अन्नकूट, देव प्रबोधिनी एकादशी, हरियाली तीज, गंगा दशहरा आदि सब पर्वों में प्रकृति संरक्षण का ही स्मरण है। आज यह स्थापित सत्य है कि प्राचीन काल में हमने जिन्हें ऋषि-मुनि कह कर संबोधित किया है, वह उस समय के वैज्ञानिक-विचारक थे। अपनी वैज्ञानिक समझ के आधार पर ही उन्होंने प्रकृति संरक्षण की ओर विशेष ध्यान दिया है। प्रकृति और प्रकृति द्वारा प्रदत्त प्राकृतिक संसाधनों को संवद्र्धित कर आने वाली अपनी पीढ़ी को सौंपना हमारा नैतिक कर्तव्य है। ज्ञान संगम में 'प्रकृति में सामंजस्य एवं समन्वय की भारतीय दृष्टि' विषय पर अपनी बात रखते हुए पैसिफिक विश्वविद्यालय, जयपुर के कुलपति प्रो. भगवती प्रकाश शर्मा ने बहुत महत्वपूर्ण विचार रखे। उन्होंने स्पष्टतौर पर कहा है कि अपनी आने वाली पीढ़ियों को प्राकृतिक संसाधन देने के लिए प्रत्येक व्यक्ति का दायित्व है कि वह अपने द्वारा उपयोग किए हुए संसाधनों एवं ऊर्जा का हिसाब रखे। जब हम यह हिसाब रखेंगे, तब ही हमें पता होगा कि हमने प्रकृति को कितना नुकसान पहुँचाया है। जब हमें यह पता होगा कि हमने प्रकृति को कितना नुकसान पहुँचाया है या पहुँचा रहे हैं, तब हम उसकी भरपाई के लिए सोचेंगे। प्रकृति को पहुँचाए नुकसान की भरपाई का विचार या प्रयास करते समय हमें ध्यान आएगा कि प्रकृति के अवदानों की प्रतिपूर्ति संभव नहीं है। इसके लिए एक ही रास्ता है कि हम संपूर्ण प्रकृति के प्रति भारतीय जीवन दृष्टि को पुन: व्यवहार में लाएँ। यह अत्यंत कठिन और असंभव कार्य भी नहीं है। भारतीय परंपरा ने सभी उपयोगी वनस्पतियों के संरक्षण की पूर्ण व्यवस्था की, बस उसका पालन करने की आवश्यकता है।
सम्पर्कः सहायक प्राध्यापक , माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपालE-mail- lokendra777@gmail.com

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