जैव विविधता भारत
की धरोहर है
प्रमोद भार्गव
जिस
तरह से आज पूरी दुनिया वैश्विक प्रदूषण से जूझ रही है और कृषि
क्षेत्र में उत्पादन का संकट बढ़ रहा है, उस परिप्रेक्ष्य में जैव विविधता का महत्त्व
बढ़ गया है। लिहाजा हमें जहां जैव कृषि सरंक्षण को बढ़ावा देने की जरूरत है, वहीं
जो प्रजातियाँ बची हुई हैं, उनके भी सरंक्षण की जरूरत है। क्योंकि
आज 50
से अधिक प्रजातियाँ प्रतिदिन विलुप्त हो रही हैं। यह भारत
समेत पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय है। शायद इसीलिए ‘नेशनल
एकेडमी ऑफ साइंस’जनरल में छपे शोध-पत्र
ने धरती पर जैविक विनाश की चिंतनीय चेतावनी दी है।
लगभग साढ़े चार अरब साल उम्र की यह धरती
अब तक पांच महाविनाश देख चुकी है। इस क्रम में लाखों जीव व वनस्पितियों की
प्रजातियाँ नष्ट हुईं। पांचवां जो कहर पृथ्वी पर बरपा था, उसने
डायनासोर जैसे महाकाय प्राणी का भी अंत कर दिया था। इस शोध-पत्र
में दावा किया गया है कि अब धरती छठे विनाश के दौर में प्रवेश कर चुकी है। इस का
अंत भयावह होगा। क्योंकि अब धरती पर चिड़िया से लेकर जिराफ तक हजारों जानवरों की
प्रजातियों की संख्या कम होती जा रही है। वैज्ञानिकों ने जानवरों की घटती संख्या
को वैश्विक महामारी करार देते हुए इसे छठे महाविनाश की हिस्सा बताया है। बीते 5 महाविनाश
प्राकृतिक घटना माने जाते रहे हैं, लेकिन अब वैज्ञानिक इस महाविनाश की वजह
बड़ी संख्या में जानवरों के भौगोलिक क्षेत्र छिन जाने और परिस्थितिकी तंत्र का
बिगड़ना बता रहे हैं।
स्टैनफोर्ड
विश्विविद्यालय के प्रोफसर पाल आर इहरिच और रोडोल्फो डिरजो नाम के जिन दो
वैज्ञानिकों ने यह शोध तैयार किया है, उनकी गणना पद्धति वही है, जिसे
यूनियन ऑफ कंजर्वेशन ऑफ नेचर जैसी संस्था अपनाती है। इसकी रिपोर्ट के मुताबिक 41 हजार
415
पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों
की प्रजातियाँ खतरे में हैं। इहरिच और रोडोल्फो के शोध-पत्र
के मुताबिक धरती के 30 प्रतिशत प्राणी विलुप्तता के कगार पर
हैं। इनमें स्तनपायी, पक्षी, सरीसृप
और उभयचर प्राणी शामिल हैं। इस ह्रास के क्रम में चीतों की संख्या 7000 और
ओरांगउटांग 5000
ही बचे है। इससे पहले के हुए पांच महाविनाश प्राकृतिक होने के
कारण धीमी गति के थे, लेकिन छठा विनाश मानव निर्मित है, इसलिए
इसकी गति बहुत तेज है। ऐसे में यदि तीसरा विश्व युद्ध होता है तो विनाश की गति
तांडव का रूप ले सकती है। इस लिहाज से इस विनाश की चपेट में केवल जीव-जगत
की प्रजातियाँ ही नहीं आएंगी, बल्कि अनेक मानव प्रजातियाँ, सभ्यताएँ
और संस्कृतियाँ भी आएँगी। गोया, शोध-पत्र
की चेतावनी पर गंभीर बहस और उसे रोकने के उपाय अमल में लाए जाना जरूरी हैं। बाबजूद
यह शोध-पत्र
इसलिए संशय से भरा लगता है, क्योंकि अमेरिका के जिन दो वैज्ञानिकों
ने यह जारी किया है, उसी अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड
ट्रंप ने अपनी जवाबदेही से मुकरते हुए जलवायु परिवर्तन के समझौते को खारिज कर दिया
है। इसलिए यह आशंका प्रबल है कि दुनिया का राजनीतिक नेतृत्व इसे गंभीरता से लेगा ?
चूंकि छठा महाविनाश मानव निर्मित बताया
जा रहा है,
इसलिए हम मानव का प्रकृति में हस्तक्षेप कितना है, इसकी
पड़ताल किए लेते हैं। एक समय था जब मनुष्य वन्य पशुओं के भय से गुफाओं और पेड़ों पर
आश्रय ढूँढ़ता फिरता था; लेकिन ज्यों-ज्यों
मानव प्रगति करता गया प्राणियों का स्वामी बनने की उसकी चाह बढ़ती गई। इस चाहत के
चलते पशु असुरक्षित हो गए। वन्य जीव विशेषज्ञों ने जो ताजा आंकड़े प्राप्त किए हैं, उनसे
संकेत मिलते हैं कि इंसान ने अपने निजी हितों की रक्षा के लिए पिछली तीन शताब्दियों में दुनिया से लगभग 200 जीव-जन्तुओं
का अस्तित्व ही मिटा दिया। भारत में
वर्तमान में करीब 140 जीव-जंतु
विलोपशील अथवा संकटग्रस्त अवस्था में हैं। ये संकेत वन्य प्राणियों की सुरक्षा की
गारंटी देने वाले राष्ट्रीय उद्यान, अभ्यारण्य और चिड़ियाघरों की सम्पूर्ण
व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं ?
पंचांग (कैलेण्डर) के
शुरू होने से 18
वीं सदी तक प्रत्येक 55 वर्षों में एक वन्य पशु की प्रजाति लुप्त
होती रही। 18
वीं से 20 वीं सदी के बीच प्रत्येक 18 माह
में एक वन्य प्राणी की प्रजाति नष्ट हो रही है। एक बार जिस प्राणी की नस्ल पृथ्वी
पर समाप्त हो गई तो पुनः उस नस्ल को धरती पर पैदा करना मनुष्य के बस की बात नहीं
है। हालाँकि वैज्ञानिक क्लोन पद्धति से डायनासौर को धरती पर फिर से अवतरित करने की
कोशिशों में जुटे हैं, लेकिन अभी इस प्रयोग में कामयाबी नहीं
मिली है। क्लोन पद्धति से भेड़ का निर्माण कर लेने के बाद से वैज्ञानिक इस अहंकार
में हैं कि वह लुप्त हो चुकी प्रजातियों को फिर से अस्तित्व में ले आएँगे। हालाँकि
चीन ने क्लोन पद्धति से दो बंदरों के निर्माण का दावा किया है। बावजूद इतिहास गवाह
है कि मनुष्य कभी प्रकृति से जीत नहीं पाया है। इसलिए मनुष्य यदि अपनी वैज्ञानिक
उपलब्धियों के अहंकार से बाहर नहीं निकला तो विनाश या प्रलय आसन्न ही समझिए ? चुनाँचे, प्रत्येक
प्राणी का पारिस्थितिक तंत्र, खाद्य शृंखला एवं जैव विविधता की दृष्टि से
विशेष महत्त्व होता है, जिसे कम करके नहीं आँका जाना चाहिए। क्योंकि
इसी पारिस्थितिकी तंत्र और खाद्य शृंखला पर मनुष्य का अस्तित्व टिका है।
भारत में दुनिया के भू-भाग
का 2.4
प्रतिशत भाग है। इसके बाबजूद यह सभी ज्ञात प्रजातियों की सात
से आठ प्रतिशत प्रजातियाँ उपलब्ध हैं। इसमें पेड़-पौधों
की 45
हजार और जीवों की 91 हजार प्रजातियाँ हैं इस नाते भारत जैव-विविधता
की दृश्टि से संपन्न देश है। हालाकि कुछ दशकों से खेती में रसायनों के बढते प्रयोग
ने हमारी कृषि संबंधी जैव-विविधता को बड़ी मात्रा में हानि
पहुँचाई है। आज हालात इतने बद्तर हो गए हैं कि प्रति दिन 50 से
अधिक कृषि प्रजातियाँ नष्ट हो रही हैं। हरित क्रांति ने हमारी अनाजसे संबंधित
जरूरतों की पूर्ति जरूर की, लेकिन रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं
के प्रयोग ने एक ओर तो भूमि की सेहत खराब की, वहीं
दूसरी ओर कई अनाज की प्रजातियाँ भी नष्ट कर दीं। अब फसल की उत्पादकता बढ़ाने के
बहाने जीएम बीजों का भी खतरा कृषि संबंधी जैव-विविधता
पर मंडरा रहा है।
वर्तमान में जिस रफ्तार से वनों की
कटाई चल रही है उससे तय है कि 2125 तक जलाऊ लकड़ी की भीशण समस्या पैदा होगी, क्योंकि
वर्तमान में प्रतिवर्ष करीब 33 करोड़ टन लकड़ी के ईंधन की जरूरत पड़ती
है। देश की संपूर्ण ग्रामीण आबादी लकड़ी र्के इंधन पर निर्भर है। हालाँकि केंद्र
सरकार की उज्ज्वला योजना ने ग्रामीण स्तर पर ईंधन का एक बेहतर विकल्प दिया है।
सरकार को वन-प्रांतरों
निकट जितने भी गाँव है उनमें ईधन की समस्या दूर करने के लिए बड़ी संख्या में गोबर
गैस सयंत्रं लगाने, उज्ज्वला योजना के तहत गैस सिलेंडर
देने और प्रत्येक घर में एक विद्युत कनेक्षन निःशुल्क देना चाहिए। ग्रामीणों के
पालतू पशु इन्हीं वनों में घास चरते हैं, इस कारण प्राणियों के प्रजनन पर
प्रतिकूल असर पड़ता है। यह घास बहुत सस्ती दरों पर ग्रामीणों को उपलब्ध कराई जानी
चाहिए। घास की कटाई इन्हीं ग्रामों के मजदूरों से कराई जाए तो गरीबी की रेखा के
नीचे जीवन-यापन
करने वाले जो ग्रामीण हैं, उनके परिवारों की उदरपूर्ति के लिए धन
भी सुलभ हो सकेगा और वे संभवतः जंगल से चोरी-छिपे
लकड़ी भी नहीं काटेंगे। इन उपायों से बड़ी मात्रा में जैव-विविधता
का संरक्षण होगा, ऐसी उम्मीद की जा सकती है। एक समय
हमारे यहाँ चावल की अस्सी हजार किस्में थीं;
लेकिन अब इनमें से कितनी शेष रह गई हैं, इसके आंकड़े कृषि विभाग ने एकत्र नहीं
किए हैं। जिस तरह से सिक्किम पूर्ण रूप से जैविक खेती करने वाला देश का पहला राज्य
बन गया है,
इससे अन्य राज्यों को प्रेरणा लेने की जरूरत है। अपनी कृषि
भूमि को बंजर होने से बचाने के लिए भी जैविक खेती की पैरवी जरूरी है।
मध्य-प्रदेश
एवं छत्तीसगढ़.
देश के ऐसे राज्य हैं, जहाँ
सबसे अधिक वन और प्राणी संरक्षण स्थल हैं। प्रदेश के वनों का 11 फीसदी
से अधिक क्षेत्र उद्यानों और अभ्यारणों के लिए सुरक्षित है। ये वन विंध्य-कैमूर
पर्वत के रूप में दमोह से सागर तक, मुरैना में चंबल और कुवाँरी नदियों के
बीहड़ों से लेकर कूनो नदी के जंगल तक, शिवपुरी का पठारी क्षेत्र, नर्मदा
के दक्षिण में पूर्वी सीमा से लेकर पश्चिमी सीमा बस्तर तक फैले हुए हैं। एक ओर तो
ये राज्य देश में सबसे ज्यादा वन और प्राणियों को संरक्षण देने का दावा करते हैं, वहीं
दूसरी ओर वन संरक्षण अधिनियम 1980 का सबसे ज्यादा उल्लंघन भी इन्हीं
राज्यों में हो रहा है। साफ है कि जैव-विविधता पर संकट गहराया हुआ है। जैव
विविधता बनाए रखने के लिए जैविक खेती को भी बढ़ावा देना होगा जिससे कृषि संबंधी जैव
विविधता नष्ट न हो।
सम्पर्कः शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी (म.प्र.) पिन 473-551, मो. 09425488224, 9981061100
फोन 07492-404524
No comments:
Post a Comment