बढ़ें हम प्रकृति और
प्राकृतिक जीवन की ओर
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डॉ. करुणा पाण्डेय
डॉ. करुणा पाण्डेय
सर्वे
भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः की भावना से ओतप्रोत भारत
ही ऐसा पहला देश है जिसने अपने संविधान के अनुच्छेद के 51 ग
में स्पष्ट रूप से लिखा है कि “भारत
के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य होगा कि वह वनों, झीलों, नदियों
एवम जीव-जंतुओं
सहित प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा एवम सुधार करे तथा जीवित प्राणियों के प्रति
करुणा का भाव रखे।” प्रश्न उठता है कि क्या वैदिक भारतीय
संस्कृति में ऐसा कुछ है जिससे पर्यावरण प्रदूषण की इस भयावह समस्या से निजात पाने
हेतु मार्ग-दर्शन
लिया जा सके?
अथर्ववेद में वृक्षों एवंवनों को संसार
के समस्त सुखों का स्रोत कहा गया है । वृहदारण्यकोपनिषद में बताया गया है कि
वृक्षों में जीवन शक्ति है। वृक्षों की अपूर्व जीवनदायिनी शक्ति के कारण वृक्षों
को काटना हमारे वैदिक धर्म में पातक माना गया है, क्योंकि
वृक्ष स्वयम में बहुत परोपकारी होते हैं। वन हमारी संपदा रहे हैं और उसके वृक्ष
पोषक तत्वों की रक्षा करते हैं, वृक्ष पर्वतों को थामे रखते हैं, वे
तूफ़ानी वर्षा को दबाते हैं, नदियों को अनुशासन में रखते हैं तथा
पक्षियों का पोषण कर पर्यावरण को सुखद, शीतल एवं नीरोग बनाते हैं। अतः वनों को
वर्षा का संवाहक कहा जाता है।
स्वार्थ के वशीभूत होकर बढती हुई
जनसंख्या के कारण लोगों ने पेड़ो को काटना आरम्भ कर दिया। वनके वन नष्टहो गये
इससेदेश भर में अनावृष्टि होने लगी,रेगिस्तान के चरण बढने लगे, धूल
भरी आँधियाँ चलने लगीं। वातावरण और पर्यावरण प्रदूषित होने लगा। पर्यावरण का अर्थ
है –
पृथ्वी पर विद्यमान, जल, वायु, ध्वनि
रेडियोधर्मिता एवं रासायनिक पर्यावरण। जब यह समृद्ध होते हैं तो हमें जीवन एवं
नीरोगता प्रदान करते हैं, स्वाभाविकहैजब ये पर्यावरण के आवश्यक
तत्त्व दूषित हो जाते हैं तो हमारी चिन्ता का विषय बन जाते हैं।
सन्तुलित पर्यावरण में प्रत्येक घटक एक
निश्चित मात्रा में उपस्थित रहता है। जब वातावरण में कुछ हानिकारक घटकों का प्रवेश
हो जाता है तब वह परिणामतःसमस्त जीवधारियों के लिए किसी न किसी रूप में हानिकारक
सिद्ध होता है, जोपर्यावरणीय चिन्ता को जन्म देता है।
जैसे–जैसे
मनुष्य अपनी वैज्ञानिक शक्तियों का विकास करता जा रहा है , प्रदूषणकीसमस्या
बढ़ती जा रही है। यह ऐसी चिन्ता एवं समस्या है जिसे किसी विशिष्ट क्षेत्र या
राष्ट्र की सीमाओं में बाँध कर नहीं देखा जा सकता। यह विश्वव्यापी समस्या है। इसी
लिए सभी राष्ट्रों का संयुक्त प्रयास ही इस समस्या से मुक्ति दिलानेमें सहायक हो
सकता है। स्काटलैंड के विज्ञान लेखक राबर्ट चेम्बर्स का मत है कि वन नष्ट होते है
तो जल नष्ट होता है। पशुनष्ट होते हैं, उर्वरताविदा ले लेती है और तब ये
पुराने प्रेत एक के पीछे एक कर प्रकट होने लगते हैं – बाढ़
सूखा,
आग, अकाल और महामारी। भौतिकता और विकास की अंधी दौड़
में और भी ऐसे तत्व उत्पन्न हो गये हैं जो हमारे पर्यावरण को प्रदूषित कर रहे हैं।तेज़शोर
और इलेक्ट्रॉनिक कचरा अब हमारे पर्यावरण को बहुत हानि पहुँचा रहे हैं और यह सब
हमारे भोग-वृत्ति
के कारण है ।प्रदूषण का स्वरूप समझने के लिए इसके विभिन्न प्रकारों की संक्षिप्त
चर्चा आवश्यक है–
ध्वनि प्रदूषण- निश्चित
अनुपात की आवृत्ति से युक्त ध्वनि जब घटते या बढ़ते क्रममें उत्पादित होती है तो
स्वाभाविक रूप से कर्णप्रिय होकर संगीत के रूप में जानी–पहचानी
जाती है। इसके विपरीत किसी अनुशासन या नियम से अनाबद्ध ध्वनि जिसे मात्र शोर या
कोलाहल के रूप में जाना जाता है, ध्वनि–प्रदूषण
को जन्म देती है। मनुष्य बिना किसी असुविधा के जो शोर सह सकता है उसकी अधिकतम सीमा
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डेसीबल है। इससे अधिक शोर में लम्बे समय तक रहने से सुननेकी
शक्ति खत्म होने लगती है।
जल प्रदूषण मानवतथा जीवधारियों के लिए
खतरनाक तत्त्व जब झीलों , नदियों, समुद्र
या अन्य जल भंडारोंमें पहुँचते हैं, तो जल में घुलकर प्रदूषण उत्पन्न करते
हैं। सहज प्रवाही गुण के कारण जल के प्रवाह से ये प्रदूषक तत्त्व एक स्थान से
दूसरे स्थान तक आसानी से पहुँचने में सफल हो जाते हैं। इतना ही नहीं, जल
के साथ जीवधारियो के पाचन तन्त्र में पहुँच कर कई गंभीर बीमारियों का कारण बनते
हैं।
घरेलू कचरे रासायनिक पदार्थो के साथ– साथउद्योगों
के उच्छिष्ट आदि से जल प्रदूषण की स्थित सतत बनी रहती है, जिसका
प्रभाव मनुष्य के साथ – साथ जानवरों ,जल
जन्तुओं, पक्षियों के साथ – साथ
कृषि एवं वन क्षेत्रपर भी होता है। गंभीर प्रकृति के इस प्रदूषण से जल की शाश्वत
शुद्धता तथा उपयोगिता पर प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है। हम जानते हैं कि नदियाँ हमारी
माता हैं,
हमारीसंस्कृति में क्षीरनीरा नदियों को भी माता की संज्ञा से
अभिहित किया गया है। ये अपने अमृततुल्य जल से जहाँ गाँव नगर के निवासियों की तृषा
को शान्त करती हैं ,वहीं खेतों बागों की सिंचाई में भी ये
सहायक होती हैं। आज अर्थ पैशाचिकता की अंधी दौड़ में सरोवरों को क्या, पोखरों
को भी आदमी बख्शना नहीं चाहता। औद्योगिकउत्पादनों का सारा दूषण नदियों में बहाया
जा रहा है।
जंगल एवं वन सम्पदा -हमने
यह माना कि वृक्ष हमारे पिता हैं। जिस भाव से भारतीय मनीषा ने धरती को माता की
संज्ञा दी है, उसी भाव से वृक्षों को पिता का महत्व
दिया गया है। जिसप्रकार पिता अपनी संतति का पालन , पोषण
और संरक्षण करता है, उसी प्रकार वृक्ष भी जीवधारियो का पालन
पोषण और संरक्षण करते हैं। वृक्ष का कोई अंगोपांग ऐसा नहीं है जो प्राणियों के काम
न आता हो।
वायुप्रदूषण- वायु
मण्डल मेंएक या एक से अधिक प्रदूषक तत्वों की उपस्थितिवायु- प्रदूषण
के रूप में जानी जाती है। जीवधारियों को हानि पहुँचाने के साथ– साथ
प्रदूषण का यह रूप,वायुमण्डल की सर्वोच्च ओजोन परत को भी
क्षति पहुँचाता है और परिणामस्वरूपजलवायु व मौसमचक्र पर भी प्रतिकूल प्रभाव होता
है। औद्योगिक उत्सर्जन, वाहनों तथा अन्य प्रकार की गैसों से
उत्पन्न इस प्रदूषण का प्रभाव जीवधारियों के स्वास्थ्य और वनस्पति पदार्थो तथा मौसम
पर स्पष्ट अनुभव किया जाता है।
पर्यावरण प्रदूषित है। जल, जमीन,
हवा,
अन्न और जीवन भी प्रदूषित है। प्रदूषित होता जा रहा है जीवन
और सारे जीवनदायी उपकरण। किसने किया है यह सब? हमने
और हमारी आधुनिक भोगवादी प्रवृत्ति ने। पहले हम वस्तु का उपयोग करते थे और उसकी उपयोगिता
का सुरक्षित भी रखते थे। अब हम उपभोग करते हैं – निर्बाध
उपभोग। उप-योग
और उप-भोग
में वही अंतर है जो योग और भोग में होता है। योगी संयमनियम जानता है। वहआहारविहार
औरश्वास –
प्रश्वास का हिसाब रखता है
परभोगी तत्काल सुख के लिए समर्पित होता है।
उसी भोगवादी प्रवृत्ति का विकास आज
आधुनिकता के नाम पर विश्व भर में हुआ और ऋषियों एवं साधको का देश भारत भी उसके
प्रभाव में आ गया। यही प्रवृत्ति और जीवन शैली आज जीवनोपयोगी वस्तुओं के अभाव और
उनके प्रदूषित होने का मूल कारण है। इसलिए जब हम जल के प्रदूषण, भूगर्भ
जल के संकट,
भूगर्भजल के स्तर के नीचे खिसकते जाने की चर्चा करते हैं, तबहमें
अपनी जीवन शैली में परिवर्तन और व्यापक परिवर्तन की बात भी सोचनी चाहिए।
पानी के लिए वर्षा, वर्षा
के लिए बादल,
बादल के लिए भूजल के वाष्पीकरण और जंगलों से आच्छादित धरती की
आवश्यकता होती है। हमने कुएँ पाट कर नल लगाये, गहरे
नल लगाये फिर गहरी बोरिंग वाले पम्प लगा दिये। खेतों में सिचांई को त्याग कर याँ त्रिक
कूपों से पानी निकालने लगे, पानी नीचे भागने लगा। कुछ दिन में नीचे
के पानी के खत्म होने का संकट मंडरा
रहा है और हम हैं कि पानी – पानी चिल्ला रहे हैं। गोष्ठियाँ
कर रहे हैं,
किताबे लिख रहे हैं लेकिन न अपनी जीवन शैली बदल रहे हैं और न
पानी की बर्बादी कम रहे हैं । इसकेउलट पोखरे , तालाब, बावलियाँ, गडहियाँ
सभी को पाट –
पाट कर खेत बना लिया, उन
पर घर बना लिया, माल, कारखाने
बनाकर कंक्रीट के महल खड़े कर दिये, जो आग में घी का काम कर रहे हैं।कुएँ
पोखरे पटे हैं, जंगल नहीं तो वर्षा-जल
कैसे रिस कर भूगर्भ तक पहुँचेगा।
गॉव उजड़ रहे हैं – शहर
सुरसा के मुँह की तरह बढ़ रहे हैं। रोशनी, पानी, पंखे
के लिए बिजली, बिजली उत्पादन के लिए पानी, पानी के लिए वर्षा, और
वर्षा के लिए प्राकृतिक जल-स्रोत और जंगल ज़रूरी हैं। हम जंगलों को
काट रहे हैं,
कूओं पोखरों को पाट रहे हैं । ज्यादातर लोगों ने गॉव को छोड़कर
शहर की भीड़ को , उसके प्रदूषण को बढ़ाया है । पर आज कौन
है-
इस सोच को चरितार्थ करने वाला है कि चलें हम गॉव की ओर, बढ़े
हम प्रकृति और प्राकृतिक जीवन की ओर? हजारों गाँधी आये और उपदेश देते रहे,पर
आधुनिक जीवन के अभ्यस्त हम आँख मूंदकर विनाश के महासागर की ओर अग्रसर होते जा रहे
हैं। न बूँद-बूँद
पानी बचाओ का नारा लगाने से पानी बचेगा और न निर्मलीकरण अभियान के नाम पर करोड़ों
की लूट से प्रदूषण कम होगा, बल्कि हमें स्वयं के जीवन में इसको उतारना होगा चरितार्थ करना होगा, और
फसलों को भी इस ढ़ंग से चुनना होगा जो कम पानी में उपज दे सकें।
क्या स्वेच्छा से हम अपने जीवन को
संयमित करके आने वाले जल-संकट से बच नहीं सकते? यदि
मोटर गाड़ियों के धूम्र उत्सर्जन से हवा सांस लेने योग्य नहीं रह पा रही है तो उनकी
संख्या कम करनी होगी। हम अपनी दिनचर्या में कोई कटौती नहीं करेंगे और चाहेंगे कि
प्रदूषण रुक जाए। कानून से, भाषण से, विज्ञापन
से,
और सेमीनार करने से प्रदूषण नहीं रुकेगा,जब
तक उस प्रकार की रहनी हम नहीं बनाएँगे,जो प्रदूषण
को बढ़ाने वाली न हो।
जल का जीवन से गहरा नाता है। जल का एक
अर्थ जीवन भी है। बिना भोजन के हम महीनों जिन्दा रह सकते है ,पर
बिना जल के दो चार दिन भी जिन्दा रहना मुश्किल होगा, अतः
जल की चिन्ता जीवन की चिन्ता है। हर जीव का मनुष्य जीवन से गहरा नाता है। लेकिन जब
हमने वनों को नष्ट कर दिया तो वे निरीह वन्य-जीव
कहाँ रहेंगे?
क्या हमने कभी यह
सोचा,
उन बेजुबान प्राणियों के घर हमने छीन लिये, खाने
का साधन-चारागाह
हमने छीन लिया; इसलिए वे हमारे खेतों को खाते हैं।
नीलगाय के घरों को हमने उजाड़ दिया है ,तो वे हमारे
खेतों में आकर रहती हैं,खाती है। बाघ बस्तियों में आने लगे।
वास्तव में देखा जाए, तो वह तो अपने ही घर ही आते हैं; क्योंकि
उन जगहों पर पहले उन्हीं का घर था।क्या कभी हमने इन बातों पर मनन किया है ? नहीं
न ,तो
अब भी समय है इस पर विचार करें। इन सभी समस्याओं से निजात पाने के लिए हमें वनों
को आबाद करना होगा; बल्कि गाँव में भी संरक्षित वन बनाना
चाहिए। मुझे याद आ रहा है कि बचपन में मैं किसी मित्र के ननिहाल गई थी। उस गाँव
में एक वन था।
उस वन में हिरण, खरगोश, व नीलगाय, मोर
जैसे छोटे जानवर रहते थे। वहाँ कुछ पेड़ थे,
जिनकी यह जानवर आकर बैठते थे। बाहर की तरफ एक नीम का पेड़ था। उस
नीम के पेड़ के चारों तरफ एक चबूतरा बना था,हम
लोग वहां जाकर खेलते थे और गाँव के बुजुर्ग वहां अपने मित्रों के साथ बहस वार्ता
करते थे। उस स्थान को ‘वनसत्ती माई’ का
चबूतरा कहा जाता था। मैंने सोचा यह किसी सती का चबूतरा है । पर बाद में पता चला कि
यह तो “वनस्पति
माई”
हैं जो ‘वनसपती’, फिर ‘वनसत्ती’ बन
गयी। पिछले वर्ष अपने उस मित्र के गाँव में गई, तो
वह वनसत्ती उजड़ गया था और वहां सीमेंट की खेती हो गई थी। आज
भी वह वनसत्ती मुझे याद आता है तो वहां बिताए
पल मन में रोमांच भरते हैं।
आज जंगलों की जरूरत है- जानवरों
के निवास के लिए, लकड़ी के लिए, प्राकृतिक
वातावरण की सुरक्षा के लिए, वर्षा के लिए तथा वर्षा जल के भूमि में
स्रवित होकर पहुँचने के लिए। इस प्रकार जल और जीवन दोंनों के लिए जंगल चाहिए। जीवन
के लिए जल चाहिए और जल के लिए जीवन शैली बदलकर संयमपूर्ण उपयोग की शैली अपनानी
होगी।
सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हो
रही दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति हालाँकि विश्व के लिए लाभकारी है, लेकिन
इससे एक नईसमस्या खडी हो गई है। इस समस्या को ‘ई
–अपशिष्ट (इलेक्ट्रॉनिक
कूड़ा-कबाड़) के
नामसे जाना जाता है। कुछ दशक पूर्व तक ई –अपशिष्ट
की मात्राथोड़ी होती थी,इसलिए ई अपशिष्ट की ओर ज्यादा ध्यान
नहीं दिया जाता था; लेकिन आज विश्व की तेज़ी से बढ़ती हुई
प्रदूषण-समस्याओं
में यह निरंतर बढ़ती जा रही है। यह खतरा बहुत तीव्रता से बढ़ रहा है, जिसे
कम करने के लिए विभिन्न उपाय ज़रूरी हैं।
आज पर्यावरण के जिन प्रदूषणों से हम
लोग चिंतित हैं,उससे भयंकर प्रदूषण हमारे मनों का
प्रदूषण है। पहले हम जीवन को सहज गति से जीते थे–जो
मिला उसी में संतुष्ट। पर आधुनिकता, औद्यौगीकरण, भौतिकवाद
ने हमारा नजरिया बदल दिया है। उसने हमें प्रतिद्वंदिता,
स्पर्धा और कामचोरी का पाठ पढ़ाया। पूंजीवाद का विरोध और पूंजी का संचय, इन
दो विरोधाभासों में जीता हुआ आज का मनुष्य केवल धन कमाने की मशीन रह गया है।
पारिवारिक सम्बन्ध केवल लाभ-हानि के सम्बन्ध रह गये हैं। आस-पास, गाँव-गिरेबाँ,कुटुंब
पड़ोस तो दूर,
भाई- बहन, माता- पिता
सब,
व्यक्ति के अहम के आगे पराए हो गए हैं। परिवार टूट गये, गाँव
ज़हरबुझी बस्ती में बदल गए। कौनकिसको कैसे लूट सके यह स्पर्धाकर रहे हैं। इस
प्रदूषण से मानसिक,शारीरिक और सामाजिक व्याधियाँ उत्तरोत्तर बढ़ रही हैं। हमें
इसको बदलना होगा।
वस्तुतः प्रदूषण का प्रादुर्भाव मोह
आदि षट विकारों की ही परिणति है। स्वार्थ,लापरवाही,अभिमान,
असीमित कामना तथा मत्सर व क्रोध के परिणामस्वरूप अनियमित कार्य करने से प्रदूषण का
अस्तित्व होता है। कोई भी मनुष्य प्रदूषण फैलाने के उद्देश्य से कार्य नहीं करता, किन्तु
षट विकारों से युक्त होने के कारण अनायास ही ऐसा करता चला जाता है। अतः इन विकारों
का नियंत्रण प्रथम आवश्यकता है– जिसके लिए वेदों में प्रार्थना की गई है–“उलूकयातुंशुशुलूकयातुं
जहि श्रव्यातुमुत कोकयातुं।
सुपर्णयातुमुत गृध्रयातुं दृषदेव प्र
मृण रक्ष इन्द्र ।।
(ऋग्वेद
7/104
/22 तथा अथर्व 8/4/22 )
अर्थात हे इन्द्र! उल्लू
के समान आचरण कराने वाली मोह की प्रवृत्ति,भेडिये
कके समान क्रोध, कुत्ते के समान मत्सर, कोक
के समन कामना, गरुड के समान अभिमान, और
गिद्ध के समान लोभ क आचरण कराने वाली
राक्षसी प्रवृत्तियो को उसी प्रकार पीसकर नष्ट कर देन जैसे पत्थर से मिट्टी के
ढेले को पीस दिया जाता है।” हमें अपने प्राचीन संस्कारों की तरफ
लौटना होगा।
गवेषणा करने पर ज्ञात हुआ कि संसार में
नब्बे प्रतिशत बीमारियों का कारण किसी नाकिसी रूप में प्रदूषण ही है, यह
स्थिति चिंतनीय है। इटली के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो. कार्लो
सिरतोरी ने अपनी वैज्ञानिक शोधों से यह बताया कि जल्दी ही वह समय आ रहा है जब धरती
से पुरुष-सत्ता
मिट जाएगी;
क्योंकि प्रदूषण की विकरालता दिन-प्रतिदिन
बढ़ती जा रही है । वहाँ यह संकट अभी से दिखने लगा है। ऐसा
लगता है कि चारों ओर प्रदूषण का तिमिर अपने विकराल रूप में हर स्तर पर व्याप्त है।
प्रदूषण की आग की लपटें ऊँची उठती साफ़ दिखाई दे रही हैं। कहीं भी कोई प्रकाश कीकिरण, आशा की चमक दिखाई नही दे रही। जनसाधारण घोर
निराशा में है। हमें युद्ध-स्तर पर कुछ करना होगा।
इतने सारे सम्मेलनों, चेतावनियों, एवं
पर्यावरण सुरक्षा का विशालकाय तंत्र खड़ा करने के बावजूद प्रश्न यथावत है, समस्या
की विकरालता घटने के स्थान पर बढ़ी है; क्योंकि जन-भावनाएँ
जाग्रत नहीं की गई। प्रकृति के साथ मनुष्य के भाव भरे संबंधों का मर्म नहीं समझा
गया। वर्तमान पीढ़ी इस बात से अनजान है कि प्रकृति से उसके कुछ वैसे ही रिश्ते है, जिसकी
उसके अपने परिजनों एवं सगे-सम्बन्धियों के संग हैं। इस
भावनात्मक सत्य का मर्मोदघाटन विज्ञान के दायरे के बाहर की चीज़ है; संभवत: इसीलिए
अपनी सारी तार्किकता और मेधा नियोजित करने के बाबजूद इसे वैज्ञानिक हल नहीं कर पाए। प्रकृति के साथ बलात्कार अभी तथाकथित
वैज्ञानिकों को अपने कौशल की ध्वजा फहराने का निमित्त भलेही प्रतीत होता है, पर
तत्त्वदृष्टि से देखने पर यही प्रतीत होगा कि स्वल्प सफलता के आधार पर उद्धत हुआ
मनुष्य नशेबाजों की तरह ऐसा कुछ कर रहा है जो उसके लिए नहीं, समूचे
समुदाय के लिए घातक होगा। अगर कल को बचाना
है,
तो हमें आज अपने बच्चों कोबचपन से ही पेड़-पौधों
का,
जल-नदी-जंगल, पर्यावरण
का और इन प्राकृतिक संसाधनों के सही उपयोग
और महत्त्व का संस्कार देना होगा।
जिस पर्यावरण से मानव जीवन है, उसके उद्धार के लिए हमें आज ही शपथ लेनी होगी।
“स्वयं
पर्यावरण अपना सुरभि संयुक्त कर देंगे ,
सुधारों के प्रयासों को समर्पण युक्त
कर देंगे।
हमें मिलकर शपथ यह एक स्वर से आज लेनी
है
कि दुनिया को यथासंभव प्रदूषणमुक्त कर देंगे।।
सम्पर्कः 2/62 –सी, विशालखण्ड,
गोमतीनगर,
लखनऊ-226010, (उत्तर प्रदेश),
मोबा.
9897501069, E-mail- karunapande15@gmail.com
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