जो बोएंगे सो काटेंगे
- विजय जोशी
(पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल, भोपाल)
हम सब प्रतिध्वनि के चमत्कार से वाकिफ
हैं.
पहाड़ों के बीच खड़े होकर जब हम प्रकृति से बात करते है तो वह
भी वैसा प्रत्युत्तर प्रदान करती है। अच्छा बोलेंगे तो अच्छा लौटेगा, बुरा
बोलेंगे तो बुरा। यही जीवन है जैसी करनी वैसी भरनी, जो
बोएंगे सो काटेगे, जो देंगे सो पाएँगे। कहा भी गया है बोए
पेड़ बबूल का आम से कहाँ से होय। जीवन का इतना सरल सूत्र हमें स्वतः प्राप्त है,
तो फिर उसका समुचित सदुपयोग न कर पाने से लाभ और हानि दोनों ही स्थितियों में हम
ही रहेंगे।
एक किसान एक बेकरी मालिक को मक्खन बेचा
करता था। एक दिन मालिक ने अनायास तौल कर देखा तो पाया कि मक्खन की मात्रा तौल से
कम थी। उसे क्रोध आया और उसने किसान के खिलाफ कोर्ट में याचिका दायर कर दी।
न्यायाधीश ने किसान से पूछा- वह
कौन से तौल का इस्तेमाल करता है।
किसान ने कहा - महोदय, मैं
तो पुरातनपंथी हूँ। मेरे पास कोई तौल काँटा या बाँट नहीं हैं।
तो फिर कैसे मक्खन तौलते हो।
किसान ने कहा- आदरणीय
बेकरी मालिक ने मुझ से जब से मक्खन खरीदना प्रारंभ किया, उससे काफी समय पहले से इनसे निजी उपयोग हेतु पाव
रोटी या ब्रेड खरीदता आ रहा हूँ। हर दिन उसी ब्रेड को मैं तोल काँटे के रूप में
उपयोग करता हूँ।
अब निर्णय आपके हाथ में है।
आगे की कहानी स्वतः स्पष्ट है। जीवन
में जो हम देते हैं, वही लौटकर पुनः हमारे पास आता है। यही
बड़ी सीधी सच्ची और अच्छी बात है. इसलिए हम जीवन में दूसरों से जिस चीज
की भी प्राप्त की आकांक्षा रखते हैं, पहले उसे देने की क्षमता प्राप्त करते
हुए देने की मानसिकता का विकास करना होगा। यही है प्रतिध्वनि का चमत्कारी, सरल
और सहज सूत्र।
जीवन हो जौहरी सा
जीवन में परख की क्षमता एक वांछित गुण
है। जब तक आदमी अपने व्यक्तित्व में अच्छा- बुरा, सच- झूठ
इत्यादि को परख सकने की क्षमता विकसित नहीं करेगा शून्य बना रहेगा। किनारे पर
बैठकर जीवन की गहराई नहीं नापी जा सकती। इसके लिए तो आपको गहरे उतर कर देश, काल, इंसान
परिस्थिति के आकलन का ज्ञान तथा अनुभव दोनों ही अर्जित करना होगा।
एक
आदमी एक संत के पास गया और कहा कि उनकी सारी बातें बकवास हैं। मैं अनेकों के पास
गया,
लेकिन कुछ नहीं मिला। उनकी किसी बात में कोई सार नहीं मिला।
संत ने निर्विकार भाव से कहा- कोई
बात नहीं। बातचीत बाद में करेंगे, पहले मेरा एक काम कर दो। मेरा पास एक
छोटा-सा
पत्थर है। चाँदी सोने की दुकान पर जाकर यदि कोई इसके बदले एक सोने का सिक्का देने
को राजी हो,
तो बेच देना और वह राशि मुझे लाकर दे देना।
निर्देशानुसार
वह आदमी बाजार में अनेक दुकानों पर गया। पर कोई भी उसे एक सोने के सिक्के में लेने
को राजी नहीं हुआ। वह आदमी लौट आया। यह तो बिल्कुल बेकार पत्थर है। इसे कोई लेना
नहीं चाहता। आपने यह व्यर्थ का भार मुझे क्यों सौंपा.
संत
ने कहा-
अब तुम की जौहरी की दुकान पर जाओ। पर बेचना मत। सिर्फ दाम
पूछकर आ जाना। वह पुनः गया। सबसे पहला जौहरी ही पत्थर देखते ही उसे दस हजार सिक्के
देने को तैयार हो गया तथा आग्रहपूर्वक पत्थर उसे ही बेचने को कहा।
उसने
लौटकर कहा-
एक तो पूछता तक नहीं था और दूसरा दस हजार सिक्के तुरंत देने
को तैयार था।
संत
ने कहा-
मुझे भी पत्थर बेचना नहीं था। मैं तो तुम्हें सिर्फ यह अनुभव
करवाना चाहता था कि जैसे हीरे की पहचान के लिए जौहरी होना जरूरी है, उसी
प्रकार संत को पहचानने के लिए ईश्वर भक्त होना जरूरी है।
सारांश
सिर्फ यह है कि हमें ऊपरी चमक दमक से ऊपर उठकर आदमी के अंतरतम को उसके गुणों को
पहचानने की क्षमता का विकास अपने व्यक्तित्व में करना चाहिए। इससे न केवल स्वयं का
व्यक्तित्व निखरेगा, अपितु सामने वाले को आपसे जुड़ाव के लिए
प्रेरित करेगा।
सम्पर्कः 8/ सेक्टर-2,
शांति निकेतन (चेतक सेतु के पास) भोपाल-
462023, मो.
09826042641,
E-mail- v.joshi415@gmail.com
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