आइए एक बार पेड़ों के लिए दौड़ें...
- प्रो. अश्विनी केशरवानी
औद्योगिक
क्रांति की भट्ठी में हमने अपना जंगल झोंक दिया है। पेड़ काट डाले और सड़कें बना
डालीं। कुल्हाड़ी-आरी से जंगल काटने में देर होती थी, तो
पावर से चलने वाली आरियाँ गढ़ डालीं। सन् 1950
से 2000
के बीच 50
वर्षों में दुनिया के लगभग आधे जंगल काट डाले, आज
भी बेरहमी से काटे जा रहे हैं। जल संग्रहण के लिए तालाब बनाए जाते थे,
जिससे खेतों में सिंचाई भी होती थी। लेकिन आज तालाब या तो पाटकर उसमें बड़ी बड़ी
इमारतें बनाई जा रही है या उसमें केवल मछली पालन होता है। मछली पालन के लिए कई
प्रकार के रसायनों का उपयोग किया जाता है जिसका तालाबों का पानी अनुपयोगी हो जाता
है। इसीप्रकार औद्योगिक धुएँ से वायुमंडल तो प्रदूषित होता ही है, जमीन
भी बंजर होती जा रही है। इससे प्रकृति का संतुलन बिगड़ने लगा है और दुष्परिणाम हम भुगत
रहे हैं। आखिर जंगल क्यों जरूरी है ? पेड़ हमें ऐसा क्या देते हैं, जो
उन्हें बचाना जरूरी है ? पेड़ हमें फल, फूल, जड़ी-बूटी, भोजन, ईंधन, इमारती
लकड़ी,
गोंद, कागज, रेशम, रबर
और तमाम दुनिया के अद्भूत रसायन देते हैं। इसलिए हमने उसका दोहन (शोषण) तो
किया,
पर यह भूल गये कि वृक्षों के नहीं होने से यह धरती आज वीरान
बनती जा रही है। वनों के इस उपकार का रुपयों में ही हिसाब लगायें तो एक पेड़ 16
लाख रुपये का फायदा देता है। घने जंगलों से भाप बनकर उड़ा पानी वर्षा बनकर वापस आता
है और धरती को हरा भरा बनाता है। पेड़ पौधों की जड़ें मिट्टी को बाँधे रहती है।
पेड़ों की कटाई से धरती की हरियाली खत्म हो जाती है। धरती की उपजाऊ मिट्टी को तेज
बौछारों का पानी बहा ले जाती है। पेड़ों की ढाल के बिना पानी की तेज धाराएँ पहाड़ों
से उतर कर मैदानों को डुबाती चली जाती है। हर साल बाढ़ का पानी अपने साथ 600
करोड़ टन मिट्टी बहा ले जता है। मिट्टी के इस भयावह कटाव को रोकने का एक ही उपाय है-वृक्षारोपण।
मिट्टी,
पानी और बयार, ये तीन उपकार हैं वनों के हम पर; इसलिए
हमारे देश में प्राचीन काल से पेड़ों की पूजा होती आयी है।
‘संयुक्त
राष्ट्र संघ के आंकड़ों के अनुसार विकासशील देशों में हर घंटे 8
से 12
वर्ग कि.मी. वन
काटे जा रहे हैं। वैज्ञानिक पृथ्वी को ‘हरा गृह’कहते
हैं। हरियाली मानव सभ्यता की मुस्कान है। पृथ्वी की हरियाली हजारों किस्म की
उपयोगी वनस्पतियों के कारण है, लेकिन आज तथाकथित विकास की अंधी दौड़ ने
हमें पागल बना दिया है और हम जंगल काटकर कांक्रीट के जंगल खड़े कर रहे हैं।
परिणामस्वरूप वनस्पतियों की 20 से 30
हजार किस्में धरती से उठ गई हैं। यदि हमारे पागलपन की यही स्थिति रही तो इस सदी के
अंत तक हम 50
हजार से भी अधिक वनस्पतियों की किस्मों से हाथ धो बैठेंगे। इस बात का अंदाजा इस
तथ्य से लगाया जा सकता है कि इससे
10-12
जातियों के जीवों का भी लोप हो जाएगा । अतः पृथ्वी की हरियाली न केवल हमारे जीवन
की ऊर्जा है, अपितु
पर्यावरण को संतुलित करने के लिए बहुत जरूरी है।‘
पर्यावरण
सबसे अधिक वनों से प्रभावित होता है। हवा, पानी, मिट्टी, तापमान
आदि वनों से प्रभावित होते हैं। शंकुधारी पौधों की प्रजातियाँ समुद्र तट से लगभग 5000
मीटर की ऊँचाई पर पहाड़ों पर पायी जाती है। शंकुधारी पौधों में जल ग्रहण क्षमता
बहुत अधिक होती है। ऊँचे पहाड़ी क्षेत्रों में शंकुधारी पौधों के साथ साथ चौड़े पौधे
वाले वृक्ष भी पाये जाते हैं। प्रायः इन क्षेत्रों के आसपास पानी का स्रोत पाया
जाता है। साल प्रजाति के पौधे अन्य प्रजाति के पौधों की अपेक्षा अधिक ठंडे और
आर्द्र होते हैं और इस क्षेत्र में पानी का बहाव हमेशा रहता है। छत्तीसगढ़ प्रदेश
के सरगुजा,
रायगढ़, जशपुर, रायपुर, बस्तर, दंतेवाड़ा, बिलासपुर
और राजनांदगाँव जिलों के अलावा शहडोल, मंडला और बालाघाट जिले में साल के पेड़
बहुतायत में मिलते हैं। इसी प्रकार हिमालय की चोटी में पूरे वर्ष बर्फ जमे होने के
कारण वहां से निकलने वाली नदियों में हमेशा पानी बहता है। लेकिन इंद्रावती, नर्मदा, सोन, चम्बल, महानदी, रिहंद, केन
आदि का उद्गम बर्फीली पहाड़ियों से नहीं होने के कारण इनमें हमेशा पानी बहता जरूर
था। लेकिन आज इन नदियों के ऊपर बाँध बन जाने से इन नदियों में भी पानी नहीं रहता।
बल्कि इन नदियों में औद्योगिक रसायनयुक्त जल छोड़े जाने से नदियाँ प्रदूषित होती जा रही है और नदियों के पुण्यतोया
और मोक्षदायी होने में संदेह होने लगा है। छत्तीसगढ़ प्रदेश में साल के वनों के साथ
साथ बाक्साइड, आयरन, कोयला, चूना
और डोलामाइट अयस्क की प्रचुर मात्रा उपलब्ध है, जिसका
उत्खनन जारी है। इससे यहां की जल- ग्रहण क्षमता में भी प्रतिकूल प्रभाव
पड़ने लगा है।
वनों
के घटने या बढ़ने से वहां की जलवायु प्रभावित होती है। वन क्षेत्रों में एवं उसके
आसपास की जलवायु अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा आर्द्र और ठंडी होती है। जलवायु पर
वनों के इस प्रभाव को ‘माइक्रो क्लाइमेटिक इफेक्ट‘ कहते
हैं। इस प्रभाव के साथ वनों का पृथ्वी के पूरे वातावरण एवं पर्यावरण पर प्रभाव
पड़ता है। यहां यह बताना समीचीन प्रतीत होता है कि पौधे और वातावरण के साथ हमारा
कैसा सम्बन्ध है। पौधे अपना भोजन बनाने के लिए सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में
पत्तियों में उपस्थित क्लोरोफिल और वातावरण में उपस्थित कार्बनडाइऑक्साइड के साथ
रासायनिक प्रतिक्रिया करके अपना भोजन तैयार करते हैं और आक्सीजन छोड़ते हैं
वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड और आक्सीजन का एक निश्चित अनुपात होता है। इसमें
वायुमंडल में एक साम्य बना रहता है। लेकिन अगर कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ जाए, तो
यह साम्य टूट जाता है। ऐसा तब होता है, जब पेड़ पौधे कम हों ? इस
संतुलन को बिगाड़ने के लिए औद्योगीकरण बहुत हद तक जिम्मेदार है। गगनचुम्बी चिमनियों
से और जल,
थल ओर नभ में बढ़ते यातायात के साधनों के कारण कार्बन डाइऑक्साइड
की मात्रा बढ़ती ही जा रही है, जो पृथ्वी के चारों ओर इकट्ठी होकर एक
चादर का काम करती है। इससे पृथ्वी की गर्मी बाहर नहीं निकल पाती, जिससे
ताप में वृद्धि होती जा रही है। तापमान के बढ़ने की इस प्रक्रिया को ‘ग्रीनहाउस‘ कहते
हैं वैज्ञानिकों का ऐसा अनुमान है कि अगली शताब्दी के अंत तक वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड
की मात्रा दो गुनी हो जाएगी, जिससे ध्रुवीय क्षेत्रों का तापमान बढ़
जाएगा । इससे बर्फ पिघलेगी। गर्मी के दिनों में बाढ़ आएगी और अवर्षा के दिनों में
बर्फ के पिघलने से बारहों मास बहने वाली नदियाँ सूख जाएँगी। इससे जमीन का जल स्तर भी नीचे चला
जाएगा और इन नदियों में बनाए गये बाँध सूख जाएँगे। इससे चलने वाले बिजली घर
बंद हो जाएँगे। अतः इनसे होने वाले दुष्परिणामों का सहज अनुमान लगाया जा सकता है।
इसलिए
यह विकास प्रकृति के साथ समरस होकर जीने वाले लोगों के लिए कष्ट दायक हो गया है।
एक करोड़ पेड़ों को डुबाकर सुदूर वनांचल बस्तर में बनने वाली बोधघाट वि़द्युत जल
परियोजना,
भागीरथी टिहरी की घाटी में बसी हुई 70
हजार की जनसंख्या को विस्थापित कर बनने वाला भीमकाय टिहरी बाँध और इसीप्रकार के
अन्य बाँध जो कभी भी अपनी पूरी आयु तक जिंदा नहीं रहेंगे, गंधमर्दन
के प्राकृतिक वन को उजाड़कर प्राप्त होने वाले बाक्साइड और दून घाटी को रेगिस्तान
बनाकर प्राप्त होने वाले चूना पत्थर से किसको लाभ होने वाला है ? इस
प्रकार के विकास के आधार पर खड़ी होने वाली अर्थ व्यवस्था अवश्य ही भोग लिप्सा को
भड़का सकती है, क्षेत्रीय असंतुलन पैदा कर सकती है।
इससे पर्यावरण की अपूरणीय क्षति हो सकती है, जिसकी
भरपाई किसी भी कीमत पर नहीं हो सकती। बहुगुणा जी ऐसे विकास के लक्ष्य को भारतीय
संस्कृति के अनुरूप एक कसौटी पर खरा उतरने की बात कहते हैं। वे गांधी जी की बातों
को याद दिलाते हैं। गांधी जी हमेशा कहते थे-‘पृथ्वी प्रत्येक मनुष्य की आवश्यकता
पूरी करने के लिए तो सब कुछ देती है, लेकिन मनुष्य के लोभ को तृप्त करने के
लिए कुछ भी नहीं देती।
आखिर
जंगल क्यों जरूरी है ? पेड़ पौधे हमें ऐसा क्या देते हैं, जो
उन्हें बचाना जरूरी है ? पेड़-पौधे
हमें फल,
फूल, जड़ी-बूटी, भोजन, ईंधन, इमारती
लकड़ी,
गोंद, कागज, रेशम, रबर
और कई प्रकार के रसायन देते हें। इसलिए उसका शोषण तो किया गया, पर
हम यह भूल गये कि पेड़-पौधो के कारण ही यह धरती मानव विकास के
योग्य बन सकी है। इसलिए आइये हम एक बार पेड़ों के लिए दौड़ें...।
सम्पर्कः ‘राघव’, डागा
कालोनी,
चांपा-495671 (छत्तीगढ़), E-mail- ashwinikesharwani@gmail.com
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