क्या हम सचमुच
आज़ाद हैं?
- सुनीता पाहूजा
कुछ ज़ंज़ीरें
हैं....
कुछ ज़ंज़ीरें हैं
... जो दिखाई नहीं देतीं ज़ंज़ीरों सी
पर रोकती हैं..
ये रोकती हैं -
कदमों को बढ़ने से,
हाथों को लिखने से,
ये रोकती हैं –
निगाहों को उठने
से,
ज़ुबाँ को बोलने से,
ज़िंदगी को जीने नहीं देतीं ...
कुछ ज़ंज़ीरें।
ये बाँधतीं हैं -
साँसों को
दबाती हैं - हँसी
को
ज़िंदगी को
खिलखिलाने नहीं देतीं।
कुछ ज़ंज़ीरें
खनकती हैं....
पाजेब के घुँघरुओं
सी
चूड़ियों की खन-खन
सी
बजती हैं,
खटकती हैं,
अटकती हैं
पर....दिखाई नहीं
देतीं।
ये ज़ंज़ीरें
सोचने पर मजबूर करती हैं
कि क्या हम सचमुच
आज़ाद हैं ?
मानो न मानो ! ....कुछ ज़ंज़ीरें अब भी
हैं।
सहायक निदेशक
केंद्रीय अनुवाद
ब्यूरो
Assistant Director CTB, MHA
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