जलियाँवाला बाग़
मोक्षदा शर्मा
जहाँ एक ओर अमृतसर के स्वर्ण मंदिर से निकलते गुरबानी के स्वर हमारे पोर -पोर को
श्रद्धा से सराबोर कर देते हैं ,हमारे प्राणों में आह्लाद जगाते हैं, वहीँ दूसरी ओर मंदिर से कुछ ही दूरी पर
एक ऐसा भी स्थान है, जहाँ आज भी हज़ारों मासूमों का मौन आर्त्तनाद..हमारे
.हृदय को .पीड़ा पहुँचाता है , झकझोर देता है! यह
स्थान जलियावाला बाग़ के नाम से जाना जाता है पीड़ा केवे मौन स्वर आज भी हर भारतवासी की धमनियों के बहते लहू में एक सुनामी- सी लाने का काम करते है! ऐसा क्या हुआ था
वहाँ?
यह स्थान एक बाग़
है... एक ऐसा बाग़ जो फूलों की नहीं , हम भारतवासियों के उजले मन
की उन भूलों का दु;खद परिणाम है, जो अपने शत्रुओं की क्रूरता को इसलिए कभी आँक नहीं पाए ; क्योंकि वे स्वयं ही प्रेम और शान्ति के दूत
रहे हैं । इस स्थान में कभी एक ऐसी महा दुःख की घड़ी आई थी,
जिसे भुलाना नामुमकिन है। आज से 97 वर्षों पूर्व की ऐसी साँझ जो अपनी नियति में मासूम लोगों की दर्दनाक कराहें और आहें लेकर आई थी और देखते ही देखते उनकी खौफनाक मौतों की साक्षी बन गई थी। ये एक ऐसा मनहूस हादसा था जिसनें भारतवर्ष को ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व को हिलाकर रख दिया था।
13 अप्रैल 1919 का दिन जिसे कुछ भारतीय प्रदर्शनकारियों ने रोलेट ऐक्ट का विरोध करने के
लिए चुना था। उस समय हमारा देश ब्रिटिश लोगों की दासता में जकड़ा
हुआ था ।अंग्रेज़ों की मनमानी अपनी चरम सीमा पर पहुँच
गई थी। रोलेट ऐक्ट भी इसी मनमानी का हिस्सा था। इसके तहत
ब्रिटिश सरकार को और भी ज़्यादा अधिकार मिल गए थे; जिससे सरकार बिना वॉरण्ट
के लोगों को गिरफ़्तार कर सकती थी, नेताओं को बिना मुकदमें
के जेल में रख सकती थी , प्रेस पर सेंसरशिप लगा सकती थी और
लोगों को बिना जवाबदेही दिए हुए मुकदमा चला सकती थी, आदि। उस
शाम इस बाग़ में हज़ारों भारतवासी एकत्र हुए थे, जो इस जो रोलेट ऐक्ट का विरोध करने के लिए आए
थे।
कुछ दिनों पूर्व ही रोलट एक्ट का विरोध कर रहे दो
आंदोलनकारी नेता - सत्यपाल और सैफ़ुद्दीन किचलू को अंग्रेजों द्वारा मनमाने तौर पर
गिरफ्तार कर उन्हें कालापानी जैसी कठोर सजा दे दी गई थी
और उनकी रिहाई देने से भी इंकार कर दिया था। अहिंसा से प्रदर्शन कर रहे लोगों को भी नहीं बख़्शा गया था ।उन पर भी
गोलीबारी की गयी थी जिसमे लगभग 8 से 20 भारतीयों की
बलि चढ़ा दी गई थी ।सभी भारतीय इस घटना से सन्न रह गए थे, तब उन्होंने अन्य नेताओं
के नेतृत्व में इस एक्ट का विरोध जारी रखने की ठान ली। विरोध करना तो लाज़मी था ही!
जलियाँवाला काण्ड इसी विरोध का दु:खद परिणाम बना। यह इतना खतरनाक होगा, किसी भारतवासी
ने कल्पना भी नहीं की थी!
सभी जन सभा में
आयोजित होने वाले भाषण को सुनने के लिए आतुर थे, हालांकि उस दिन अमृतसर में कर्फ्यू
लगा था किन्तु लोग फिर भी अपने घरों से निडर होकर सभा में पहुँचे थे। वह रविवार बैसाखी का दिन था। अमृतसर में इस दिन एक मेला सैकड़ों साल
से चला आ रहा था, जिसमें उस दिन भी हज़ारों लोग दूर-दूर
से आए थे। अतः जो लोग बैसाखी का त्योहार मना रहे थे, वे भी सूचना पाते ही अपने बीबी -बच्चों के साथ इस बाग़ में दाखिल हो गए थे
।नेताओं ने अपने भाषण आरम्भ किये ही थे कि जनरल डायर करीब पचास
गोरखा ट्रूप के साथ वहाँ पर आ धमका । यह देखकर मौजूद सभी नेताओं
ने भीड़ को शांत रहने के लिए कहा, जिसका सभी ने पालन
किया , पर. क्रूरता की सीमाएँ तब पार हुई जब जनरल
डायर ने अपने सैनिकों को अंधाधुंध फायरिंग करने का आदेश दे दिया यहाँ
तक कि उसने भीड़ को चेतावनी देने की भी ज़रुरत नहीं समझी। फिर
क्या था ! गोलियों के चलते ही लोगों में भगदड़ मच गई।
इस बाग़ में प्रवेश और निकास का एक ही द्वार था वो भी
सँकरा ! जब असहाय लोगों ने बाग़ से बाहर निकलने का प्रयास किया तो वहाँ
भी एक सैनिक को गोलीबारी करते देखा। लोगों ने स्वयं को बाग़ में फँसा
पाया। इस बाग़ में एक कुआँ भी था लोग जान बचाने
के लिए उसमें कूदने लगे.... पर सैनिकों ने बड़े ही अमानवीय ढंग से उन
पर भी गोलीबारी शुरू कर दी थी। लगभग 10 ही मिनट में कुल 1650 राउंड गोलियाँ चलाई गयी। वहाँ बच्चे, महिलाएँ और बूढ़े लोग भी थे; किन्तु उनकी भी परवाह नहीं की गई । सभी सभी बेबस तथा लाचार
थे। कुछ ही क्षणों में वह बाग़ जनरल डायर की गोलियों के शोर के साथ
-साथ मासूम लोगों की चीख -पुकार से भर गया था . कितना
कठिन रहा होगा उनके लिए इस क्रूरता के मंज़र को भोगना! उन्होंने तो कभी ऐसी खैफनाक
मंज़र की कल्पना भी नहीं करी होगी। पिशाच का नाम हम सब ने सुना है ,पर कुछ क्रूर मानवों में भी पिशाच बस्ते है ये
जनरल डायर और उसके सैनिकों ने अपनी बर्बरता से सिद्ध कर दिया
था।मानवता मानव के इस पैशाचिक रूप को देखकर शर्मसार थी।
बाग
में लगी सूचना -पट्ट के आँकड़ों के अनुसार 120 शव तो
कुँएँ से ही मिले। कर्फ्यू लगने के कारण घायलों को
चिकत्सालयों तक ले जानें में लोग
असमर्थ थे देखते ही देखते असहाय लोग दम तोड़ रहे थे । अमृतसर के सरकारी
कार्यालय में 484 शहीदों की सूची है, जबकि जलियाँवाला बाग में कुल 388 शहीदों की सूचना दी
गयी है। ब्रिटिश राज के अभिलेख इस घटना में 200 लोगों
के घायल होने और 379 लोगों के शहीद होने की बात पुष्टि करते
है जिनमें से 337 पुरुष, 41 नाबालिग
लड़के और एक 6-सप्ताह का बच्चा था। अनाधिकारिक आँकड़ों के
अनुसार 1000 से अधिक लोग मारे गए और 2000 से भी अधिक लोग घायल पाए गए। आधिकारिक रूप से मरने वालों की संख्या 372 बताई गई जबकि पंडित मदन मोहन मालवीय के अनुसार कम से कम 1300 लोग शहीद हुए। स्वामी श्रद्धानंद के अनुसार मरने वालों की संख्या 1500 से अधिक थी जबकि अमृतसर के तत्कालीन सिविल सर्जन डॉक्टर स्मिथ के अनुसार
यह संख्या 1800 से अधिक थी।
इसी घटना ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर
सबसे अधिक प्रभाव डाला था। यह क्रूरता और कालिख भरी शाम ही
भारत में ब्रिटिश शासन कि अंतिम रात की शुरुआत बनी।जब
जलियाँवाला बाग में यह हत्याकांड हो रहा था, उस समय उधमसिंह
भी वहीं मौजूद थे और उन्हें भी गोली लगी थी। उन्होंने तय किया कि वह
इस जघन्य अपराध का बदला ज़रूर लेंगे, जो जलियाँवाला बाग नरसंहार के समय पंजाब के गवर्नर रहे माइकल ओडवायर को मारा; क्योंकि गोली चलाने का आदेश उन्होंने ही दिया था।
12 वर्ष की उम्र के भगत सिंह के
कोमल मस्तिष्क पर इस ख़ौफ़नाक हादसे का इतना गहरा असर पड़ा था कि इसकी
सूचना मिलते वह अपने स्कूल से 12 मील पैदल चलकर
जालियाँवाला बाग पहुँच गए थे।गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने इस हत्याकाण्ड के
विरोध-स्वरूप अपनी नाइटहुड की उपाधि को वापस कर दिया।
सम्पर्कः हाउस नं- 32, गलीन.-9, न्यू गुरु नानक नगर, गुलाब देवी हॉस्पिटल रोड, जालंधर, पंजाब- 144013
1 comment:
मार्मिक लेख ..जय हिन्द
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