मेरे दिल में एक भारत
-डॉ. भावना कुँअर
दर्द होता है तो
मेरी कलम दर्द भरी रचनाओं से नहा जाती है,खुशियाँ,तीज-त्योहार हों तो मेरी कलम भी नाच उठती है मेरी सारी रचनाओं में पात्र और
परिस्तिथियाँ भी ज्यादातर मेरे भारत की होती हैं।
भारत की भाषा और
संस्कृति अन्य लोगों तक कैसे पहुँचती है-
ऐसा नहीं की
हमारी संस्कृति और भाषा हमारे देश तक ही सीमित है इसका एक व्यापक क्षेत्र है,विदेशों
में भी इसको खूब सराहा जाता है और बात सिर्फ सराहना तक ही सीमित नहीं है बल्कि
इसका रूप यहाँ खूब निखर-निखर जाता है।जब भी कोई त्यौहार भारत
में आने वाला होता है चाहे वो पंद्रह अगस्त,छब्बीस जनवरी
दीवाली,होली,जन्माष्टमी,बैशाखी,करवाचौथ या बसन्तपंचमी ही क्यों न हो ,महीनों पहले उसका प्रचार यहाँ पत्रिकाओं और मीडिया के द्वारा आरम्भ हो
जाता है निश्चित की गई तिथि पर उसको इतने धूम-धाम से मनाया
जाता है।सुनने में आया कि त्योहार का वज़ूद अब भारत में कुछ सिमट- सा गया है
वहाँ लोग अब अलग-अलग सोसाइटी बनाकर मनाने लगे हैं,यहाँ एकजुट होकर इतने आनन्द से त्योहार मनाए जाते हैं कि मुझे तो वो अपना पुराना भारत ही
लगता है- जब हम छोटे बच्चे थे तो तिरंगा हाथ में लेकर स्कूल
की ओर से गलियों -गलियों घूमा करते थे,तरह-
तरह के कई बैंड हुआ करते थे ,हम गाते बजाते
अपने देश पर गर्व करते,सीना फुलाए एक अजीब से जोश से भरे
होते थे।
अब जब यहाँ
परदेश में भी उसी संस्कृति का अनुसरण करते हुए,छोटे- छोटे
बच्चों को हाथ में तिरंगा लिये, तिरंगे के रंग के कपड़े पहन,चेहरे पर तिरंगे का टेटू लगाकर
होठों पर ‘मेरे देश की धरती सोना उगले
उगले हीरे मोती’,जहाँ डाल-डाल पर सोने
की चिड़ियाँ करती हैं बसेरा, वो भारत देश है मेरा’,’है प्रीत जहाँ की रीत सदा’,’वन्दे मातरम्’,ये देश है वीर जवानों का अलबेलों का मस्तानों का" पर झूम-झूम कर पर नाचते-गाते
देखते हैं तो तन- मन का रोम-रोम खिल
उठता है,एक जोश एक गर्व का एहसास दिलो-दिमाग
पर छा जाता है। राष्ट्र गान को तन्मयता से गाना मन मोह लेता है।
इंडियन
कम्युनिटी के द्वारा यहाँ पर बड़े-बड़े पार्कों में खूब सजावट की
जाती है,पंद्रह अगस्त छब्बीस जनवरी को जगह-जगह पर कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है,होली और दीवाली जैसे त्योहार कई बार मनाने को मिलते; क्योकि
उनको अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग
तारीखों पर जो मनाया जाता है।
इसको मनाने के
लिए सिर्फ भारतीय ही नहीं होते ,बल्कि यहाँ के लोग भी बहुत अधिक मात्रा में शामिल होते
हैं।जगह-जगह स्टॉल लगाए जाते हैं जिन पर न सिर्फ भारतीय
व्यंजन होते हैं; बल्कि त्योहार से जुड़ी हर चीज़ को रखा
जाता है,भारतीय वस्त्रों आभूषणों,होली
के रंगों,दीयों की कतारों,पूजा के
थालों,भगवान की मूर्तियों से माहौल में अपनी माटी की गंध
पूरी तरह घुलमिल जाती है।
ऑस्ट्रेलिया में
बहुत से परिवार ऐसे हैं जो अपने बच्चों को अपने देश की संस्कृति और भाषा दोनों से
अछूता नहीं रखना चाहते उसके लिए वो लोग यहाँ बच्चों को अलग से चलाई जाने वाली
कक्षाओं में भेजते हैं और प्राइवेट कक्षाओं में भी भेजते हैं।मैंने इन प्राइवेट
कक्षाओं में बहुत बच्चों को पढाया है और अभी भी पढ़ा रही हूँ।मैंने संस्थाओं पर
जाकर निःशुल्क शिक्षा भी दी है।मेरी शिक्षा का केन्द्र सिर्फ बच्चें ही नहीं रहे, बल्कि मैंने बड़ों को भी पढ़ाया है एक यहाँ के फिल्म डायरेक्टर हैं ,जो इंडिया हर साल जाते हैं और वहाँ पर डाक्यूमेंटरी फिल्म बनाते हैं उनको
हिन्दी के बारे बहुत कुछ जानना था। वे पति-पत्नी मेरे पास
बहुत समय तक आते रहे और हिन्दी बोलना समझना सीखते रहे।
मैंने यहाँ पर
सिडनी यूनिवर्सिटी में भी बड़ों को हिन्दी की शिक्षा दी उनमें कुछ जाकर भारत में
ही बस गए और कभी-कभी यहाँ आते हैं वहाँ की
कला का प्रदर्शन करते हैं ;जिनमें एक
फैशन डिजाइनर है और एक आर्टिस्ट है वो लोग मुझे सम्पर्क करते हैं । यहाँ आकर मुझसे हिन्दी में बात करते हैं ।भारत की
कला को यहाँ दिखाते हैं तो मैं गर्व से फूली नहीं समाती।
एक मेरी छात्रा
वकील है ,वो आज इतनी अच्छी हिन्दी बोलती है कि मुझे भी मात देती है। मैंने ऐसा
क्यों कहा; क्योंकि मेरे हिन्दी बोलने में कुछ बहुत प्रचलित
शब्द स्वतः ही अंग्रेजी भाषा के भी आ जाते हैं; पर वह शुद्ध
हिन्दी बोलती है और यहाँ बहुत कम आती है। वह दिल्ली में रहती, पराँठे वाली गली उसका पसंदीदा स्थान है।
भारत में एक बहुत जानी मानी हस्ती है उनका नाम तो नहीं
ले पाऊँगी, उनके बारे में बता जरूर पाऊँगी।उनकी दो प्यारी-प्यारी बेटियाँ हैं उनको हिन्दी का एक भी शब्द नहीं आता था, क्योंकि उनके माता-पिता का भी कोसों तक हिन्दी से
नाता टूट चुका था, पर वे हिन्दी जानते थे। वे अपनी बेटियों
को हिन्दी पढ़वाना चाहते थे । उनका कहना था कि उनकी बेटियाँ कभी हिन्दी नहीं बोल
सकती।मैंने उनकी चुनौती स्वीकार तो
कर ली थी, पर अन्दर ही अन्दर डरी हुई थी कि जिसको एक शब्द नहीं आता ,उसको पढना और बोलना कैसे सिखा पाऊँगी? पर काफी
मेहनत के बाद जब रिज़ल्ट आया, तो उनके मम्मी पापा भी हैरान थे
कि हमारी बच्ची हिन्दी की एक लाइन ही नहीं , बल्कि पूरी
पुस्तक पढ़ पा रही और कविता को रिद्म में बोल पा रही है। उनके चेहरे पर आते -जाते भाव आज भी मेरे जहन में बसे हैं ,जो मुझे कहीं
न कहीं न चाहते हुए भी गर्व करा ही जाते हैं।
उनका सपना भारत
में अपनी बच्चियों को शिक्षा प्राप्त कराने का खूब फल-फूल
रहा है। वे वहाँ जाकर अब वहाँ के हिन्दी बोलने वाले बच्चों के साथ स्कूल में खुद
को बहुत सहज महसूस कर रही हैं।
जल्द ही यहाँ एक
फिल्म रिलीज होने वाले है ,जिसे यहाँ के डायरेक्टर ने बनाया है ।भारत की किसी
घटना को लेकर जिसका खुलासा मैं अभी नहीं कर सकती ;पर इतना
बता सकती हूँ कि उसमें त्योहार हैं जैसे
होली ,उसमें रंगों से माहौल को खुशनुमा बनाया गया है ।उसमें
मेरे चेहरे के रंग भी खिले हैं ; क्योंकि मुझे भी ससम्मान
बुलाया गया उसमें भाग लेने के लिए; क्योंकि उस फिल्म के
कलाकर से हिन्दी में डॉयलॉग बुलावाए गए हैं और उसको सिखाने का काम मुझे दिया गया
था अभी फिल्म को उर्दू में भी डब किया जा रहा है जल्दी ही फिल्म पर्दे पर होगी।
"हिन्दी गौरव" सिडनी से प्रकाशित होने वाली जानी-मानी पत्रिका है
इस पत्रिका में मैंने और रामेश्वर काम्बोज जी ने सह संपादक के रूप में काम किया। अनेकों
कवियों को इस पत्रिका के माध्यम से लोगों तक पहुँचाया,अनेकों
नई विधाओं से लोगों को अवगत कराया।
इस तरह से कहना
चाहिए कि हिन्दी सीखने की ललक न सिर्फ हिन्दी लोगों में है बल्कि अहिन्दी लोगों
में भी बहुत मात्रा में है। मेरे पास नब्वे प्रतिशत जो लोग हिन्दी सीखते हैं , वे न सिर्फ ऑस्ट्रेलियन हैं बल्कि यू एस,यू के साऊथ
इंडिया से भी हैं।
मैंने हिंदी सिखाने
की दिशा में काफी प्रयास किए हैं- मैंने छोटे-छोटे कार्ड बनाकर
उनपर खुद अपनी कूँची से रंग भरकर चित्र अंकित किए हैं और फिर उनपर शब्द लिखे हैं,
जिससे वे बहुत आसानी से छात्रों के मन पर अंकित हो जाते हैं और उनको
आसानी से हिन्दी सीखने को मिलती हैं। मैं एक पुस्तक भी लिख रही हूँ बहुत ही सरल
भाषा में जिससे छात्र आसानी से हिन्दी सीख सकें ;क्योंकि
हिन्दी सिखाते समय मैंने पाया कि भारी भरकम पुस्तक अहिन्दी भाषियों के लिए बड़ी
मुश्किलें पैदा करती है जिससे मैंने आसान पुस्तक निकालने का निर्णय लिया।
मैं परदेश में
तन से रहती हूँ पर मेरा मन वहीं बसता है
मेरी कविताओं में उसको आसानी से देखा जा सकता है। मैं यहाँ कितना भी व्यस्त रहूँ ,मेरा
ये जुड़ाव ही है माटी से जो मुझे नए-नए भावों नई-नई विधाओं से घेरे रखता है । प्रवास में हाइकु संग्रह "तारों की चूनर"
, सेदोका संग्रह
- जाग उठी चुभन और चोका संग्रह - परिंदे कब
लौटे भी प्रथम
प्रवासी संग्रह बने ।मेरे अब तक कुल दो हाइकु संग्रह,एक चोका
संग्रह,एक सेदोका संग्रह प्रकाशित हो चुकें हैं, साठोत्तरी हिन्दी गज़ल में विद्रोह के स्वर (पी-एच०डी०का शोध प्रबन्ध), अक्षर सरिता, शब्द सरिता, स्वर सरिता (प्राथमिक
कक्षाओं के लिए हिन्दी भाषा-शिक्षण की शृंखला), भाषा मंजूषा में कक्षा 7 के पाठ्यक्रम में एक यात्रा–संस्मरण प्रकाशित हो चुके हैं।
मैंने और
काम्बोज जी ने मिलकर कुछ पुस्तकों का संपादन भी किया है-चन्दनमन
(हाइकु-संग्रह), भाव कलश
(ताँका संग्रह), गीत सरिता (बालगीतों का संग्रह- तीन भाग),यादो
के पाखी (हाइकु संग्रह),अलसाई चाँदनी
(सेदोका संग्रह), उजास साथ रखना (चोका-संग्रह), डॉ०सुधा गुप्ता
के हाइकु में प्रकृति (अनुशीलनग्रन्थ),हाइकु
काव्यःशिल्प एवं अनुभूति (एक बहु आयामी अध्ययन)।
मैं कला में भी
विशेष रुचि रखती हूँ मैंने अनेकों ऑयल,वॉटर और एक्रेलिक पेंटिग्स बनाई
हैं जिनकी शीघ्र ही प्रदर्शनी लगने वाली है।मैं भारत से बाहर रहती हूँ पर मेरा
जुड़ाव अब पहले से
भी ज्यादा भारत से है।मैं बहुत कुछ ऐसा है जिसे दूर महसूस करती हूँ तो उसे कविताओं
के माध्यम से या पेण्टिंग
के माध्यम से अभिव्यक्त करने की कोशिश करती हूँ, चाहे वो
रिश्ते हों,तीज -त्योहार या फिर खेत-खलियान।
ऐसा नहीं है कि
सिर्फ सुख ही मेरे सपनों में आता है ; बल्कि भारत में घटित दुख तो मुझे भीतर तक झकजोर कर रख
देता है।कभी किसी पर भी होने वाला अत्याचार मेरी रातों की नींद दिन का चैन न सिर्फ
छीन लेता है बल्कि मेरे भीतर एक आक्रोश को पैदा कर जाता है चाहे वह नारी पर होने
वाले अत्याचार हों या बच्चों की बालमजदूरी उनका शोषण या उनको शिक्षा से वंचित रखना
आदि।ऐसे मैं विचलित हो कभी कभी भगवान को पाती लिख बैठती हूँ-
अब ये दुनिया नहीं
है भाती /तभी तुझे लिक्खी है पाती
गरीबी देख मेरा मन ना जाने क्या- क्या सोचता है काश! यहाँ कि तरह मेरे भारत में भी सब पर घर हों,गाडियाँ हों, भरपेट भोजन हो,किसी को छोटा या बड़ा न देखा जाए, ना ही किसी काम को छोटा या बड़ा माना जाए।सबके पास यहाँ की तरह काम हो सुकून हो सारी जिंदगी माता-पिता अपनी संतान के लिए हड्डियाँ ही न घिसते रहें, वे भी अपनी जिंदगी जिएँ, सब सुखी हों, प्रशासन जनता को समझे उनको सुख-सुविधाएँ दे,किसी भी तरह की रिश्वतखोरी,चोरी- चकारी ना हो।
गरीबी देख मेरा मन ना जाने क्या- क्या सोचता है काश! यहाँ कि तरह मेरे भारत में भी सब पर घर हों,गाडियाँ हों, भरपेट भोजन हो,किसी को छोटा या बड़ा न देखा जाए, ना ही किसी काम को छोटा या बड़ा माना जाए।सबके पास यहाँ की तरह काम हो सुकून हो सारी जिंदगी माता-पिता अपनी संतान के लिए हड्डियाँ ही न घिसते रहें, वे भी अपनी जिंदगी जिएँ, सब सुखी हों, प्रशासन जनता को समझे उनको सुख-सुविधाएँ दे,किसी भी तरह की रिश्वतखोरी,चोरी- चकारी ना हो।
सुना है राम राज
ऐसा ही था क्या फिर से मेरा भारत राम राज बनेगा ?मेरा सपना यही है कि भारत एक बार
फिर से राम राज बने और फिर हमेशा -हमेशा के लिए वैसा ही रह
जाए। अगर हम मिलकर चलेंगे तो मेरा यह सपना एक दिन ज़रूर पूरा होगा।
छाया घना अँधेरा,ज़रा
रोशनी मैं लाऊँ!!
सम्पर्क: द्वारा श्री सी बी
शर्मा, आदर्श कॉलोनी, डॉ शिव शंकर वाली गली, सामने ,मुज़फ्फ़र नगर (उत्तर प्रदेश)- 251001
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