- डॉ.पूरन सिंह
बहुत
छोटा था देवेश तब। तभी एक दिन रामबाबू बाज़ार से उसके नन्हें -नन्हें पंाव के लिए
छोटी-छोटी पायलों की तरह के कड़े ले आए थे जिनमें घुंघुरू लगे थे और अपने बेटे
देवेश के दोनों पांव में पहना दिए थे । देवेश जैसे ही पैर जमीन पर रखता, रून
झुन- रून झुन की आवाजें होती तो फिर वह
अगले पैर और जल्दी जल्दी रखने लगता था। खुश हो जाते थे रामबाबू। कभी - कभी तो इतने
खुश होते कि बुलाने लगते अपनी पत्नी रामसुती को, ‘ अरे देखो तो रामा, देबू
कैसे जल्दी - जल्दी चल रहा है। .....अरे आओ भई,
तुम भी चलाओ इसे।’ और
रामसुती उन्हें अपलक देखती रहती, सोचती मानो उन्हें पूरी दुनियाँ की दौलत मिल गई
हो ।
धीरे-धीरे देवेश बड़ा होने लगा। रामबाबू ने उसे
पढ़ाया, लिखाया और आज देवेश ओ एन जी सी में सीनियर
सांइटिस्ट है। हालांकि देवेश को यहाँ तक लाने में रमाबाबू की ग्यारह बीघा जमीन
स्वाहा हो गई थी फिर भी उन्हें संतोष था कि बेटा बड़ा आदमी बन गया।
देवेश की नौकरी लगने
के ठीक एक माह बाद रामसुती अपने पति को छोड़कर दूसरी दुनियाँ में चली गई थी।
दु:ख-सुख में बराबर साथ देने वाली अपनी पत्नी के बिछोह को सहन न कर सके थे रामबाबू
और चारपाई पकड़ ली थी । कई बार तो उठकर चौंक पड़ते थे, ‘ रामा
आ गई तुम।’ फिर चारों तरफ देखते कहीं बेटा, बहू
सुन न रहे हों । और जब यह विश्वास हो जाता कि बेटा बहू ने सुना नहीं है तो अपने ही
आपसे कहने लगते, ‘तुम
नहीं आओगी न तो मुझे ही बुला लो अपने पास...बुला लो न....।’ लगता
मानो कोई अबोध बालक चिज्जी माँगने की जिद कर रहा हो ।
लेकिन रामसुती ने उन्हें अपने पास नहीं बुलाया ।
स्थिति यह हो गई कि रामबाबू को अपने शरीर का कोई ध्यान नहीं रहता था। कई बार तो
हालत यह हो जाती कि टट्टी-पेशाब की भी सुध नहीं रहती ।
एक दिन खाने पर बुलाया था देवेश ने मुझे । पूरी
कोठी दिखाई थी अपनी लेकिन पीछे की तरफ वह नहीं ले गया था । मुझे वहाँ से कुछ आवाज
सी सुनाई दी थी और आवाज के साथ-साथ दुर्गंध भी लगी थी । मैं उधर जाने को हुआ तो
रोकने लगा था देवेश मुझे। तब तक तो मैं पहुंच गया था वहाँ।
मैंने देखा था, एक टूटी चारपाई पर
एक बुजुर्ग लेटे थे। जगह -जगह टट्टी पड़ी हुई थी और मैंने देखा था कि उन बुजुर्ग
का एक पैर एक बड़ी सी जंजीर से चारपाई के पाए के साथ बांध दिया गया था मानो किसी
को बेडिय़ाँ पहना दी गई हों । उन्होंने मुझे बेबस निगाहों से देखा था और अनायास ही
उनके होठों से बेटा निकल गया था।
मैंने देवेश की ओर घृणा से देखा तो वह बेशर्मों
की तरह बोला था, ‘ डैडी.....डैडी हैं मेरे, यू
नो, पूरे घर में इधर उधर घूमते हैं। टट्टी पेशाब भी
कहीं भी....। विनीता, माई वाइफ फील्स.....यू नो, आई
थिंक दिस इज द प्रोपर वे ।’
'नो.....दिस इज नॉट द प्रोपर वे....यू.....यू....
लर्न..... यू विल आलसो बी कम आन दिस स्टेज ....लर्न ......ही इज डैडी नॉट एन
एनीमल।’ और इतना कहने के बाद मैं वहाँ से बाँधकर भागा था तो अपने घर पर ही साँस ली थी ।
2.
भ्रम
सुमित्रा के तीन बेटे हैं और तीनों को उसके पति ने खूब
पढ़ाया लिखाया। आज तीनों ही नौकरी करते हैं। तीनों की शादी भी सुमित्रा के पति ने
कर दी थी। वे सेवा में थे तभी।
सुमित्रा के पति समय से सेवा निवृत्त हुए और
अपनी सेवा निवृत्ति के दो ढाई वर्ष के बाद ही भगवान को प्यारे हो गए। पति की
मृत्यु के दुख और उनके वियोग में सुमित्रा बीमार रहने लगी तो सबसे पहली समस्या आई
कि आखिर सुमित्रा को कौन रखे। जो बच्चे जब सुमित्रा ठीक थी और उसका पति कमाकर लाता
था तब 'मम्मी-मम्मी’की रट लगाए रहते थे आज उन्हें रखने के लिए 'मुडफुटौव्वर’करने
पर उतर आए थे ।
'मम्मी को मझले वाला रखे मेरे पास पहले से ही बहुत
जिम्मेदारियाँ है।‘बड़े वाले का तर्क बिच्छू के डंक के मानिंद खड़ा
रहता। ' मैं क्यों रखूँ, छोटे
वाला रखे । मम्मी ने सारी चीज - गहने उसी की बहू के पास रखे हैं। वही कराए इलाज
मम्मी का।’मँझले वाला अपनी नौकरी पेशा पत्नी के सुर में सुर
मिलाते हुए रेंकता ।
'मैं, मैं
क्यों रखूँ ,मम्मी को। मैं तो सबसे छोटा हूँ । बड़े भइया को
रखना चाहिए। बड़े भइया के पास ही तो पूरे घर की मालिकी है... ना बाबा ना...मैं..
मैं तो मम्मी को किसी कोस्ट (कीमत) पर नहीं रखने वाला।’अपनी
पत्नी के घूँघट में मुँह छिपाकर छोटे वाला मिमियाता।
सुमित्रा की स्थिति
दिनों- दिन खराब होती जा रही थी। तभी पड़ौस के देवी चाचा ने सुमित्रा को सरकारी
अस्पताल में भर्ती करवा दिया था । ज्यों-ज्यों सुमित्रा का इलाज चलता त्यों-त्यों
उसकी तबियत और ज्यादा बिगड़ती जाती थी। हार-थककर एक दिन डॉक्टरों ने अपना निणर्य
सुना दिया था ‘हम चाहते हैं माँ जी कि आप अपने घर जाएँ और अपने
अपनों के बीच ही रहें।’
डॉक्टरों की बात सुनकर सुमित्रा के होंठ कँपकपाए
थे, ' बेटा, अगर आप मेरे बेटा - बहुओं को मेरा अपना कहते हो
तो मुझे इतना बता दो यदि वे मेरे अपने हैं तो फिर बेगाने कौन होते
हैं।....बेटा...मेरे बच्चों....मैं घर नहीं जाऊंगी .....मैं इसी अस्पताल में ही
मरना चाहती हूँ। कम से कम यहाँ कोई भ्रम तो नहीं है कि यहाँ कोई
मे.....रा....अ....प.....ना ।’और इतना कहने के ठीक दो घड़ी के बाद ही सुमित्रा
अपनी अंतिम यात्रा पर निकल पड़ी थी ।
सम्पर्क: 240 बाबा फरीद पूरी वेस्ट पटेल नगर न्यू दिल्ली
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1 comment:
मार्मिक लघुकथाएँ !
दिल भर आया। :(
क्या कहा जाए ऐसी औलादों को...
~सादर
अनिता ललित
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